बुदेली बुन्देलखण्ड भाषा है। यह उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मध्य बसे बुन्देलखण्ड के लोगों द्वारा बोली जाने वाली लोक भाषा है। बुंदेली भाषी क्षेत्र की सीमाओं के संबंध में विद्वानों में एक मत नहीं हैं। इन जिलों में बुंदेली का मानक, मिश्रित और आंशिक रूप में व्यवहार होता है। उस-भू-भाग में बुंदेली के उत्तर से दक्षिण की ओर क्रमशः बुन्देलखण्ड के अलग-अलग क्षेत्रों में बोली जाने वाली Bundeli Ki Upboliyan बुन्देली की प्रमुख उप बोलियाँ इस प्रकार हैं।
1- सिंकरवारी
2 -तँवरधारी
3 -महावरी
4- राजपूतधारी
5 -जटवारे की बोली
6- कछवाय घारी
7 -पंवारी
8 -रघुवंशी
9 -लोधांती
10 -खटोला
11 -बनाफरी
12 -कुंदरी/कुन्द्री
13 -तिरहारी
14 -निभट्टा
15 -छिंदवाड़ा की बुंदेली आदि रूप व्यवहार में है।
ग्वालियर और मुरैना की सिकरवारी को आसन नदी विभाजित करती है और पूर्व में भदावरी, उत्तर में तँवरघारी, डबरा के आसपास पंचमहली, अट्ठाइसी तथा जटवारी के बोली-रूप स्पष्ट हैं। लहजे में अंतर है किंतु एकात्म की पूरी संभावना है। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से पँवारी दतिया में बोली जाती है। इस क्षेत्र में पंवार क्षत्रियों का बाहुल्य था। बुंदेली-भाषी उस भू-भाग में जिन बोली रूपों का व्यवहार किया जाता है, वे बोली रूप अपनी प्राचीन परंपरा पर विकसित हुये हैं।
बुन्देलखण्ड के भू-भाग में उपलब्ध गुफा चित्र, भित्ति चित्र, शैलाश्रय, सिक्के, शिलालेख, पांडुलिपियाँ, ताम्रपत्र, सनदें और अन्य कागज पत्र यह प्रमाणित करते हैं कि बंदेली भाषा के विविध क्षेत्रीय रूप प्राचीन भाषिक परिपाटी के परिणाम हैं। बुंदेली को चार सौ साल पहले से राजभाषा होने को गौरव प्राप्त है।
बुंदेली भाषा की सभी बोलियाँ और उपबोलियाँ बुंदेली-भाषा की समृद्धता की परिचायक हैं। बोलियों की सीमायें न तो अचल होती है और न सनातन । आवश्यकता और संपर्क के आधार पर बोलियाँ व्याक्ति से आरंभ होकर समाज तक पहुँचाती हैं। एक-दूसरे के निकट लाती हैं। बोलियों का उच्चारित रूप मानव हृदय को झझकोरता है। क्रोध के साथ करुणा है और सूक्ष्म-भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है।
बुंदेली बोली आरंभ से ही एक लोकभाषा के रूप मे बुंदेलखण्ड के निवासियों की वाणी का माध्यम रही है। बंदेली एक सविस्तृत का की भाषा है। विस्तृत भू-भाग में व्यवहार होने के कारण बुंदेली के शब्द में स्थानीय रूपों का विशेष महत्त्व है। डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त के अनुसार 17 वीं – 18 वीं शती में राजकाज एक परिष्कृत बुंदेली का ऐतिहासिक रूप और दूसरा ग्रामीण बुंदेली का लोक-रूप उन रूपों में निरंतर सृजन होता रहा।
बुन्देली भाषा और लोक संस्कृति की विवेचना
खटोला Khatola (बुन्देली की उप बोली)
खटोला का क्षेत्र मोटे रूप से छतरपुर, पन्ना और दमोह है। डॉ. ग्रियर्सन द्वारा बतलाये गये स्थान पन्ना जिले के पश्चिमी भाग तथा छतरपुर जिले के पूर्वोत्तर भाग के अतिरिक्त क्षेत्र में आ जाते हैं। उन्होंने दमोह जिले की बोली को भी ‘खटोला‘ कहा है, किन्तु हम इनके इस कथन से सहमत नहीं हो पाते। हम इस जिले के केवल उत्तरी सीमावर्ती भाग को ही ‘खटोला-क्षेत्र‘ के अन्तर्गत रखना उचित समझते हैं। शेष भाग की बुन्देली सागर जिले की बुन्देली से ही अधिक साम्य रखती है।
छतरपुर एवं पश्चिमी पन्ना तथा दमोह के उत्तरी सीमावर्ती क्षेत्र में प्रचलित बुन्देली के खटोला कहे जाने वाले रूप में इस क्षेत्र से संलग्न दक्षिण पूर्व टीकमगढ़, पूर्वी सागर जिले के बुन्देली रूप से अधिक भिन्नता नहीं है। ओकारान्त का औकारान्त तथा एकारान्त का ऐकारान्त उच्चारण एवं हकार का सर्वथा लोप ही खटोला की प्रमुख विशेषता है। इसके रूप वैशिष्ट्य के संबंध में पन्ना दरबार के पूर्व राजकवि श्री कृष्णदास जी का एक दोहा प्राप्त हुआ है, जो इस प्रकार है –
रउवा मउवा कात हैं, नाँय माँय अविचार।
ज्यों खटोलवासी तजैं, अच्छर बीच हकार।।
‘खटोलावासी‘ मध्याक्षर से हकार का लोप करके ‘रहुआ‘ को ‘रउवा‘ (रहने वाला), ‘महुवा‘ को ‘मउवा‘, ‘कहत‘ को ‘कात‘ कहते हैं। ये ‘नाँय माँय‘ (यहाँ वहाँ) का भी विचार नहीं करते अर्थात् इन शब्दों का प्रयोग नहीं करते (ये शब्द सागर जिले की बुन्देली में ही अधिक प्रयुक्त होते हैं)। इस प्रकार इस दोहे से एक बात स्पष्ट होती है कि खटोला में ‘हकार‘ लोप की प्रवृत्ति पायी जाती है और यही इसकी विशेषता भी है, वैसे हकार लोप संपूर्ण बुन्देली में पाया जाता है।
पंवारी Panwari (बुन्देली की उप बोली)
पंवारी का मूल स्थान धार माना जाता है। बेनगंगा और उसकी सहायक नदियों के आस-पास बसने वाले पंवारों का मूल निवास मालवा तथा मध्य भारत रहा है। मध्यभारत के धार, उज्जैन तथा देवास के आस-पास पंवार निवास करते थे। इनकी एक शाखा बेनगंगा और उसकी सहायक नदियों बावनधड़ी, बाध, चनई, घिसरी, देव, सोन आदि के किनारे भंडारा, बालाघाट तथा सिवनी जिले में बस गयी।
दूसरी शाखा वर्धा नदी के किनारे स्थित वर्धा (आर्वी क्षेत्र) नागपुर (काटोल सावसेर क्षेत्र) छिन्दवाड़ा, बैतूल जिले में बस गयी। पंवारी बोली मुख्यतः महाराष्ट्र राज्य के भंडारा, नागपुर, वर्धा, यवतमाल, अमरावती तथा मध्यप्रदेश के बालाघाट, सिवनी, छिन्दवाड़ा एवं बैतूल जिले के देहातों में बोली जाती है।
महाराष्ट्र में बोली जाने वाली पंवारी पर मराठी का प्रभाव दिखायी देता है। बालाघाट जिले में गौड़ी, मुरारी, लोधान्ती आदि उपबोलियाँ बोली जाने के कारण इस जिले की पंवारी पर उनका प्रभाव दिखायी देता है। इस जिले के वारासिवनी, बैहर, बालाघाट तहसीलों और कटंगी, लालबर्रा, लांजी, खैरलांजी उप तहसीलों में पंवारी जाति के लोग पंवारी प्रभावित हिन्दी बोलते हैं। किन्तु ग्रामों में मराठी, मालवी, बुन्देली-बघेली मिश्रित बोलते हैं। सिवनी, छिन्दवाड़ा और बैतूल जिला बुन्देली प्रभावित है, इसलिए इस क्षेत्र में बुन्देली और मराठी मिश्रित पंवारी बोली जाती है।
जहं पंवार तहं धार है, और धार जहां पंवार।
धार बिन पंवार नहीं, नहीं पंवार बिन धार।।
परमार राजाओं के द्वारा बोली जाने वाली बोली पंवारी कहलाती है। पंवार राजाओं के कार्यकाल में ही पंवारी का सम्पर्क पश्चिमी महाराष्ट्र की मराठा जाति से बना रहा। अतः दोनों का परस्पर मिश्रण हुआ, इस कारण दो शाखाएँ बनीं- मराठा पंवार और बेनगंगा के पंवार। पंवारी की उत्पत्ति बघेली से मानी जाती है।
लोधान्ती Lodhanti (बुन्देली की उप बोली)
बुन्देली के पूर्वी क्षेत्र की उपबोली को लोधान्ती कहते हैं। यह बुन्देली हमीरपुर जिले के पश्चिमी उत्तर भाग में बोली जाती है। इस बुन्देली रूप में बुन्देली से हटकर स्थानीय बोलियों का मिश्रण पाया जाता है। लोधान्ती बुन्देली की सीमारेखा का निर्धारण डॉ. हंस के अनुसार हमीरपुर जिले का पश्चिमोत्तर भाग, राठ तहसील, जालौन जिले के उरई क्षेत्र से होता है। लोधान्ती की व्युत्पत्ति और क्षेत्र के बारे में बहुत कम सामग्री मिलती है।
लोधान्ती बुन्देली की व्युत्पत्ति लोधी राजपूतों द्वारा बोली जाने से मानी गयी है। दूसरी ओर राठौर राजपूतों की अधिक संख्या के बीच बोली जाने के कारण इसको राठौरी भी कहा जाता है। इसके बोलने वालों में लोधी राजपूतों की संख्या अधिक होने से इसे ‘लोधान्ती‘ कहा जाता है। बुन्देली के इस रूप को राठौर राजपूत भी बड़ी संख्या में बोलते हैं, इससे यह ‘राठौरी‘ भी कही जाती है।
बनाफरी Banafari (बुन्देली की उप बोली)
बुन्देलखण्ड के पूर्वी क्षेत्र की बोलियों में बनफरी, बनपरी अथवा बनाफरी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। बुन्देली के संपूर्ण क्षेत्र को कई अन्य उपबोलियों में विभाजित किया जाता है। बनाफरी उनमें से एक है। ‘बुन्देलखण्ड का उत्तरी भाग और पूर्वी भाग मुख्यतः बनाफरी बोली का बताया है।
इसके अतिरिक्त उनकी मान्यता के अनुसार छतरपुर जिले का लौंड़ी क्षेत्र, पन्ना राज्य का धर्मपुर परगना, नौगाँव, रेवाई, गौरीहर, बेरीजागीर तथा अजयगढ़ और बाउनी राज्य भी बनाफरी भाषा क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। इसका क्षेत्र हमीरपुर जिले के दक्षिण पूर्वी भाग तथा पूर्व में बघेलखण्ड के नागौद तथा मैहर राज्य के पश्चिमी भाग तक विस्तृत है।
हमीरपुर जिले का समस्त दक्षिण-पूर्वी भाग, जिसमें महोबा, मोदहा और चरखारी तहसील स्थित है, वर्तमान छतरपुर जिले की लौंड़ी तहसील तथा वर्तमान पन्ना जिले की अजयगढ़ तहसील एवं उसमें संलग्न इस जिले का पूर्वी भाग बनाफरी बोली का क्षेत्र कहा जा सकता है। बनाफरी के क्षेत्र में मध्यप्रदेश का उत्तरी-पूर्वी भाग तथा कुछ उत्तरप्रदेश का भाग भी इसके अंतर्गत लिया जाता है।
बनाफरी भी क्षेत्र के अनुसार दो-तीन बोलियों का मिश्रित रूप है। इस संबंध में डॉ. हंस ने लिखा है – ‘बनाफरी के जो रूप प्राप्त हैं, उन्हें दो रूपों में विभाजित किया जा सकता है। एक रूप वह है जिसे बघेली मिश्रित बुन्देली का रूप कहा जा सकता है और दूसरा रूप वह है, जिसे बुन्देली रूप कहना अधिक युक्तिसंगत जान पड़ता है।
जहाँ बुन्देली का स्थानीय रूप प्रयुक्त किया जाता है। उनके अनुसार बनाफरी के जो क्षेत्र हैं, वे हैं- बुन्देली प्रधान बनाफरी, महोबा चरखारी क्षेत्र की बनाफरी, लौंड़ी क्षेत्र की बनाफरी आदि। इन क्षेत्रों के द्वारा बनाफरी का सीमांकन किया जाता है।
बुन्देलखण्ड की भाषा और क्षेत्र
कुन्द्री Kundri (बुन्देली की उप बोली)
बुन्देली के पूर्वी बोलीरूप को कुन्द्री माना जाता है। यह बुन्देली के पूर्वी रूप का एक उपरूप है। इसका क्षेत्र हमीरपुर जिले और बांदा जिले के बीच बहने वाली केन नदी का तटवर्ती क्षेत्र है। कुन्द्री केन नदी के आस-पास एक पट्टी में बोली जाती है।
हमीरपुर जिले की उत्तर-पूर्वी सीमा पर केन नदी प्रवाहित होती है, जो हमीरपुर और बांदा जिले की सीमा का निर्धारण करती है। इस नदी के दोनों ओर की तटवर्ती सकरी पट्टी में जो बोली, बोली जाती है, वही कुन्द्री कहलाती है। इसका यह नाम पड़ने का कोई विशिष्ट कारण नहीं जान पड़ता। संभव है कि केन नदी के तटवर्ती संकीर्ण (कुन्द) भाग में बोली जाने के कारण ही यह ‘कुन्द्री‘ अथवा ‘कुन्दरी‘ कहलाती है।
हमीरपुर की कुन्द्री बुन्देली पर आधारित है और उसमें बघेली मिश्रित है, पर बांदा की कुन्द्री बघेली पर आधारित है और उसमें बुन्देली मिश्रित है। दूसरे शब्दों में, हमीरपुर की कुन्द्री बघेली मिश्रित बुन्देली रूप है, पर बांदा की कुन्द्री बुन्देली मिश्रित बघेली है। कुन्द्री हमीरपुर और बांदा जिले से मिलकर इसकी सीमाओं को बनाती हैं।
निभट्टा Nibhatta (बुन्देली की उप बोली)
निभट्टा बुन्देली की एक उपबोली है, जो यमुना के दक्षिणी भागों में जालौन के आस-पास बोली जाती है। वैसे तो यह तिरहारी का विस्तार मानी जाती है और इसके बोलने वालों की संख्या भी बहुत कम है, परंतु यह बुन्देली और बघेली का ऐसा मिश्रित रूप है, जो केवल इसी भू-भाग में व्यवहृत होता है।
जालौन जिले के पश्चिमोत्तर सीमावर्ती भाग में बुन्देली का जो रूप प्रचलित है, वह निभट्टा कहलाता है। यह वास्तव में तिरहारी का ही एक भिन्न रूप है। इस प्रकार निभट्टा तिरहारी का एक भिन्न रूप होने के कारण एक छोटे से क्षेत्र की उपबोली है।
जालौन जिले के उत्तर में इसकी सीमा कन्नौजी भाषा भाग से संलग्न है, जिससे इस पर कन्नौजी का भी किंचित प्रभाव दिखाई देता है। इस प्रकार इस बोली का रूप बुन्देली, बघेली और कन्नौजी के मिश्रण से बड़ा अनोखा बन गया है। निभट्टा में बुन्देली, बघेली और कन्नौजी बोली के शब्दों का मिश्रण होने से इसका शब्द सामर्थ्य समृद्ध माना जाता है।
शब्द सामर्थ्य को समझने के लिए हम कहानी के कुछ अंश को देख सकते हैं- एक सौदागिर के चार लरिका हते। सौदागिर कों एक लरकिया पसंद आ गई। वा ने लरकन से कहिस के बाकों ब्याव तुमसन माँ से केके संग कद्दऊँ? छोट लरका कहिस बाको ब्याव बड्डे भइया से कद्देओ। ब्याव होगौ।
इस प्रकार इस अंश में तीनों बोलियों के शब्दों का समावेश हो गया है। इसमें आये शब्दों को हम अलग-अलग बोली के अनुसार देख सकते हैं। बुन्देली- एक, सौदागिर, चार हते, लरकिया, पसंद, वाने, लरकन, से बाको, ब्याव, संग, लरका, भइया, से होगौ आदि। बघेली- लरिका, सौदागिर का, कहिस, तुमसमन माँ से, केके, कहिस आदि। कन्नौजी- कद्दऊँ, बड्डे, कद्देओ आदि। इस प्रकार हम देखते हैं कि निभट्टा बोली का शब्द सामर्थ्य तीन बोलियों से मिलकर समृद्ध हुआ है।
भदावरी-तंवरगढ़ी़ Bhadavari-Tanwargadhi (बुन्देली की उप बोली)
बुन्देलखण्ड के उत्तरी क्षेत्र में भदावरी का प्रयोग विशेष रूप से होता है। भदावरी के क्षेत्र को लेकर विद्वानों में अलग-अलग मत हैं। कुछ विद्वान भदावरी का केन्द्र भिण्ड जिले को मानते हैं तो कुछ ग्वालियर को। प्रमुख रूप से भदावरी के अंतर्गत मुरैना (श्योपुर तहसील छोड़कर) भिण्ड और ग्वालियर जिला उत्तरी क्षेत्र के अंतर्गत है।
इसके अतिरिक्त उत्तरप्रदेश के आगरा, मैनपुरी और इटावा जिले तथा मध्यप्रदेश के उत्तरी जिलों से लगे हुए कुछ दक्षिणी भाग भी इसी क्षेत्र के अंतर्गत माने जाते है। इस क्षेत्र में शुद्ध अथवा आदर्श बुन्देली से भिन्न इसके तीन रूप प्रचलित हैं –
1 – ब्रज मिश्रित रूप
2 – कन्नौजी मिश्रित रूप
3 – खड़ी बोली प्रभावित प्रधान रूप।
ये तीनों रूप भदावरी अथवा तंवरगढ़ी़ कहे जाते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि बुन्देली का भदावरी रूप मध्यप्रदेश का उत्तरी क्षेत्र तथा उत्तर प्रदेश का पश्चिमी क्षेत्र और राजस्थान का कुछ पूर्वी क्षेत्र इसके अंतर्गत आते हैं। भदावरी की सीमा अंकित करना विवादास्पद है। अलग-अलग विद्वानों ने उसकी अलग-अलग सीमा रेखा निर्धारित की है।
किन्हीं भी दो भाषाओं अथवा बोलियों के बीच भी कोई भौगोलिक सीमा रेखा नहीं खीचीं जा सकती। हम जहाँ एक भाषा अथवा बोली का क्षेत्र समाप्त मानते हैं, वहाँ भी वह भाषा अथवा बोली पूर्णतः समाप्त नहीं होती, वह उसके आगे भी न जाने कितने मील तक दूसरी भाषा अथवा बोली में घुसी चली जाती है। फिर भी हमें अध्ययन की दृष्टि से उनका क्षेत्र तो निश्चित करना ही पड़ता है।
इस बोली का क्षेत्र भदावरी क्षेत्र सीमित नहीं है। यह चम्बल से आरंभ होकर गुना तक फैली है। इसके पश्चिम में ब्रजभाषा तथा हरौति (राजस्थान की एक उपबोली) का क्षेत्र तथा पूर्व में पंवारी बुन्देली का क्षेत्र है। दक्षिण में यह मालवी में विलीन हो जाती है। आगरा जिले में यह चम्बल के तटवर्ती आगरा के दक्षिणी भाग में बोली जाती है। इटावा जिले की यमुना और चम्बल के मध्य में स्थित भाग में भी भदावरी ही बोली जाती है। इस प्रकार यह एक विस्तृत क्षेत्र की बोली है।
इसी तरह से भदावरी के क्षेत्र की सीमा के बारे में आगरा गजेटियर में लिखा है- अधिकांश जनसमूह ब्रज बोलता है और पूर्वी प्रदेश की बोली प्रायः अंतर्वेदी ही है, इसे इस क्षेत्र के ग्रामीण ‘गांववारी‘ कहते हैं। यह बुन्देली का एक उपरूप है, जो पश्चिमी हिन्दी की एक शाखा है। यह बोली (अम्बाह तहसील की) पूर्व नाम भदावर के आधार पर भदावरी कहलाती है।