Jadui Sankh जादुई संख-बुन्देली लोक कथा

गाँओं में एक साधु बाबा रहत थे। बिनकी कुटिया गाँओं से बाहर नदी के किनारे थी। साधू बाबा के पास एक  Jadui Sankh हतो । एक आदमी बिनको चेला हतो । बो रोज साधु बाबा  की सेबा करबे जात तो । बो दिन ऊगे चलो जाए। कुटिया में बुहारी लगाए, पानी भर आए । साधु बाबा के लाने रोटी बना दे। ऐसो करत-करत भोत समय बीत गओ ।

साधु बाबा बूढ़ो हो गओ ओर बीमार रहन लगो । एक दिन साधु खों लगो बाको आखिरी समय आ गओ हे। बाने अपने चेला खों बुलाके कई, “बेटा तूने मेरी भोत सेबा करी हे, कछु दुख नई होन दए । में तोहे कछु देनो चाहत हूँ।”

साधु बाबा ने अपने सिरहाने के नीचे सें एक संख निकारके चेला खों दओ । बोलो, “जो जादुई संख है, तोय  मुसीबत में भोत काम आहे। जब भी तू संख से कछु माँगहे बो तोहे देहे। हाँ एक बात जरूर हुए। तू जो भी माँगहे बासे दूनो तेरे पड़ोसी खों मिल जेहें  ।

साधु ने चेला खों  संख को उपयोग करबे की  बिधि बिधान बताओ। बोलो, “आधी रात में घर के बाहर आँगन में निकरके संख फूँकबे से तेरी इच्छा पूरी हो जेहे । कभऊँ भी दूसरे को बुरो करने की मत सोचिए नई तो तेरो अनष्ट हो जेहे।

थोड़ी देर बाद साधु मर गओ । चेला ने गाँओं बारन खों  बुलाके बाको किरिया – करम कर दओ । रात में चेला लुकाके संख अपने साथ घर ले आओ ओर बाय  म्यार पे रख दओ । जा बात बाने अपनी घरबारी खों नई बताई । बाके मन में सोचा- बिचारी चलन लगी, संख से का माँगू ? धन-दौलत, हाथी-घोड़ा, महल – अटारी । पर जा बिचारके की, में जो भी माँगहों  बासे दूनो पड़ोसी खों मुफ्त में मिल जेहे, बो चिमा जाए।

ऐसो करत-करत भोत दिना हो गए। एक दिन बाको अपने संगी के साथ द्वारिकापुरी तीरथ जाबे को बिचार बन गओ । एकाएक बिचार बनो तो जब घर में खाबे -पीबे  के सामान की जुगाड़ नई कर पाओ । जाबे की बेरा तुरतई बाय जादुई संख को ध्यान आओ । बाने सोची बन गओ काम । घरबारी खों  संख के बारे में बता देऊं  बा अपने खाबे – पीबे को इन्तजाम कर लेहे।

बाने पत्नी खों  जादुई संख के बारे में सब कछु समझा दओ । बोलो, “सिरफ खाबे-पीबे  को सामान माँगियो, मेघो सामान मत माँगियो । काय से हमसे जादा फायदा हमरे पड़ोसी को हो जेहे।” बो बोलो, “अच्छो रोबो है, मोहे इत्ते दिनों की सेबा – टहल के बाद संख मिलो हे, ओर फायदा हुहे पड़ोसी को, बो भी दूनो में बाको फायदा नई होन दऊँ, जई सोच के मेने अबे तक संख नई बजाओ।”

चेला ओर बाको संगी  निकर गए तीरथ यात्रा पे । इते चेला की घरबारी हे चेन नई पड़े। बा सोचे कबै आधी रात होय ओर में संख को जादू देखों । आधी रात तक बा भूँकी बेठी रई । आधी रात होतई आँगन में निकरके बाने जा सोचके संख फूँको की सोने की थारी में खीर पुड़ी, पकबान खाबे मिल जाएँ। तुरतई सोने की थारी प्रकट भई । बाने जी भरके खाना खाओ।

खाना खाबे  के बाद बाने सोची, मेरे गरे में हीरों को हार आ जाए। संख बजातेई बाकी इच्छा पूरी हो गई। हीरों की चिलक में बाने अपने टूटे-फूटे घर खों  देखके सोची, जाकी जिग्गहा महल बन जातो तो। संख फूँकतेई से महल बन गओ । साथ में ई पड़ोसी के घर की जिग्गहा बेंसेई दो महल बन गए।

चेला की घरबारी ने अपने महल के छज्जा से पड़ोसन खों  देखो। बाके गरे में हीरों के दो-दो हार थे। बाके मोड़ा- मोड़ी सोने की थारियों में खाना खा रए थे। जा देखके बा जलभुँज गई। रात भर बाहे नींद नई आई । सोचन लगी तीरथ यात्रा से बाके घरबारे लोट हैं तो बे कछु कर हैं। बाने संख हे लुकाके रख दओ ।

महीना भर बाद बाको घरबारो तीरथ यात्रा से लोटो, तो बाने बाहे सब बातें बताई। घरबारो घरबारी से जादा सुआरथी निकरो। बो पहले तो घरबारी पे खूब चिल्लाओ, “मैंने पहलेई कई थी संख से मेंघो सामान मत माँगियो, तुमने पड़ोसी के दो-दो महल बनबा दए ?” अब में कछु जुगाड़ लगात हों  ताकी पड़ोसी को भलो ने होय ।

बो लग गओ सोचा- बिचारी में। आधी रात को बाने जा सोचके संख फूँक दओ की मेरी एक आँख फूट जाए, बासे पड़ोसी की दोई आँखें फूट जेहें । बाकी एक आँख फूट गई पर भाग से, बा दिना पड़ोसी अपनी सुसरार गओ थो । जा से बाकी आँखें फूटबे से बच गईं। दूसरी बार बाने अपनी एक टांग टूट जाए सोचके संख बजा दओ । पड़ोसी तो बच गओ पर बाकी एक टाँग टूट गई। टाँग टूटी तो दरद के मारे बो चिल्लान लगो ।

 फिर भी बाने जा सोचके तीसरी बार संख फूँक दओ की मेरे महल के सामने एक कुआ खुद जाए, बाके पड़ोसी के महलों के दवारें दो -दो कुआ खुद गए । घरबारे ने सोची की मै डर्ड के मारें इत्तो चीख-चिल्ला रओ हूँ पर पड़ोसी को ऐरो नई हो रओ का बात है ?

दोइयों ने सोची महल के बाहर निकरके देखिएँ की पड़ोसी को का भओ ! उलास  में बे भूल गए  की महल के सामने भी कुआ खुदो है । बे दोई कुआ में गिर गए और मर गए ।

बुन्देली लोक कथा परंपरा 

संदर्भ
मिजबान बुंदेलखंडी लोक कथाओं का संकलन
पुनर्लेखन-  संपादन प्रदीप चौबे महेश बसेड़िया
एकलव्य प्रकाशन भोपाल

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