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Kartik Isnan कार्तिक स्नान-बुन्देली महिलाओं का लोकपर्व

बुन्देलखण्ड की लोक परंपरा में बुन्देली महिलाओं का लोकपर्व ‘कार्तिक स्नान’ Kartik Isnan मन वांछित फल पाने की लालसा से मनाया जाता है। कृष्ण भक्ति से सराबोर वह सांस्कृतिक अनुष्ठान जहां एक ओर अध्यात्म तथा धर्म से प्रेरित है, वहीं दूसरी ओर लोक परंपराओं की साधना का अनुपम उदाहरण है तो वहीं तीसरी ओर यह पर्व वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित है। ‘कार्तिक स्नान’ पूर्णतया लोक विज्ञान पर आधारित है । 

इस पर्व के अन्तर्गत कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तक लोक विज्ञान एवं लोक कला के विविध अंगों के साथ भक्ति का अविरल प्रवाह देखा जा सकता है। इस पर्व में धर्म , परंपरा और लोक विज्ञान का मिश्रण है । बुन्देली लोक संस्कृति के इस पर्व से जुड़े लोकगीतों, लोककथाओं, विविधलोक-कलाओं तथा धार्मिक विधान का विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन शोध का विषय है।

एक महीने चलने वाला यह लोकपर्व बुन्देली महिलाओं के धर्म , संयम, तप, लोककला ,  साधना तथा लोकरंजन का समन्वित स्वरुप प्रस्तुत करता है। इस लोक पर्व में किसी गांव या मुहल्ले की महिलायें टोलियां बनाकर भाग लेती हैं। इन्हें कतकारी / कतकियारी कहते हैं प्रत्येक महिला एक दूसरे को ‘सखी’ कहती  हैं।

लोक विज्ञान और आस्था का पर्व 

बुन्देलखण्ड में ब्रह्म मुहूर्त में कतकारियों के समूह  नंगे पैर कृष्ण भक्ति से सराबोर लोकगीत गाते हुए हर तरफ दिखाई देती हैं। इन कतकारियों की कठोर साधना होती है। एक महीने तक जमीन पर सोना , ब्रह्म मूहूर्त में सूर्योदय से  लगभग दो- घण्टे पहले जागना , बिना साबुन के स्नान करना होता है। केशों में कंघी, भोजन में नमक तथा पति समागम वर्जित है ।

यदि कोई कतकारी विशेष परिस्थितियों में पति संसर्ग कर लेती है  तो उसे सखियों के समक्ष अपराध  स्वीकार करना पड़ता है। कुछ सांकेतिक वाक्यों यथा ‘कुत्ता छू गऔ’ आदि कहने से इस दोष का परिमार्जन कर लिया जाता है। अपराधिनी की आत्म स्वीकृति के बाद सभी सखियां उस पर व्यंग्य बाण छोड़ने से नहीं चूकती हैं।

शोध का विषय  “कुरा फूट गये
इस लोक पर्व का श्रीगणेश कार्तिक कृष्ण चतुर्थी (गणेश चौथ), जिसे करवा चौथ के नाम से जाना जाता है, के दिन से होता है। इसमें भाग लेने की इच्छुक महिलायें उस दिन एक वस्त्र गॉठ बांधकर कातिक नहाने का संकल्प लेती हैं। ये  वस्त्र गॉठ एक महीने कटकारियों  के हाथ में बंधा रहता है इस गांठ के अंदर जौ बंधा होता है । अगर किसी महिला ने किसी कारण बस पति संसर्ग कर लेती है तो वह जौ अंकुरित हो जाते हैं।

यह गांठ अनुष्ठान पूर्ण होने के बाद खोली जाती है। इस दिन गणेश व्रत रखा जाता है। जो महिलायें करवा चौथ का व्रत रखती हैं वे उसके साथ ही गणेश व्रत तथा गांठ बांधने का विधान करती हैं। जो महिलायें पूरे माह का व्रत विधान पूरा नहीं कर पाती हैं, वे संक्षेप में नहाती हैं। वे इच्छा नवमी (कार्तिक शुक्ल नवमी) को आंवले के वृक्ष के नीचे गांठ बांधकर संकल्प लेती हैं तथा शुक्ल पक्ष की दशमी से चतुर्दशी तक ‘पचबिकियां मनाती हैं। इन तिथियों में उन्हें व्रताहार रखकर कतकारियों की आचार संहिता का पालन करना अनिवार्य है ।

कतकारी महिलायें ब्रह्म मुहूर्त में किसी तालाब, नदी, कुंए या अन्य जलाशय पर जाकर सामूहिक स्नान करती हैं। जहां यह सुविधायें नहीं हैं वहां घर पर स्नान करके कार्तिक-पूजा के निर्धारित स्थान पर आना होता है। कातिक पूजा का विशेष आचार विधान  है। किसी मंदिर या देव चबूतरा पर एक छोटी चौकी, जिसे ‘चौंतरिया’ कहते हैं, बनाई जाती है। उस पर नित्य सफेद वस्त्र बिछाकर मिट्टी से राधाकृष्ण, सूरज, चांद तथा बिरवा (तुलसी) के धूलि चित्र बनाये जाते हैं। उसके बाद लोक गायन होता है।

गुह लईयों री मलिनिया लाल गजरा
लाल फूल जिनि गुहियों री मालिन
लाल सेंदुर भरी राधा जी की मंगिया
लाल गजरा…..
गुह लईयों री मलिनिया लाल गजरा

पीरे  फूल जिनि गुहियों री मालिन
पीरी पीरी राधा जी के नाक में नथुनिया
लाल गजरा…..
गुह लईयों री मलिनिया लाल गजरा

भोर के सन्नाटे को चीरते हुए इन कतकारियों के समूह की मधुर स्वरलहरी सर्वप्रथम भगवान कृष्ण का  आह्वान करती हैं।
उठो मेरे कृष्ण भये भुनसारे
गऊअन के बंध खोलो सकारे
उठकें कन्हैया प्यारे मुकुट संवारे
सुघर राधिका दोहन ल्यायें । उठो मेरे…….
काहे की दोहन, काहे की लोई ?
काहे की हर गारें खोई ?
सोने की दोहन, पाटा की लोई
पीताम्बर हर गारें खोई । उठो मेरे

पूजा विधान के विभिन्न सोपानों से भरपूर यह लंबा गीत कई चरणों में पूरा होता है। उसके बाद दूसरी सखी तान छेड़ती है..। 
अब मन लागा, अब चित लागा
सेवरिया न चूकियो जसुदा के नन्दन आरती
जो मैं ऐसी जानती कि आहें आज कन्हाई
गैंयन के गोबर मंगाउती, ढिंग दै आंगन लिपाउती
मुतियन चौक पुराउती, पटरी देती डराय । जो मैं….
सोने के कलश मंगाउती, जल तौ लेती भराय । जो मैं….
पूजा की थारी लगाउतीं, आरती लेती उतार । जो मैं…..
धो धो गेंडन पिसाउती, कपड़न लेती छनाय । जो मैं….
छप्पन भोजन बनाउती, रुचरुच भोग लगाउती । जो मैं….
सोने के पलंग बिछाउती, उर हरि कों लेती पोंड़ाय । जो मैं….
हरि के चरन दबाउती, मन चाहत फल पाउती । जो मैं….

कृष्ण के आने की संभावना के साथ ही उनके लिये भवन बनाने को कारीगर बुलाने का गीत गाया जाता है..।
गंग जमुन बारु रेवता में, बारु रेवता की
तबई की थप थप होय अहो राम जी
बनइयो श्री कृष्ण ज़ू को बैठका बैठका
रानी रुकमनी की दालान अहो राम जी ।

कृष्ण के महल अधिष्ठापन के पश्चात् सखियां कातिक नहान के आचार विधान पर आधारित एक लोक गीत गातीं हैं..।
कहत राधिका सुनो कन्हैया, कातिक कैंसे अन्हेँये ।
राधे दामोदर बन जइयें । राधे दामोदर बन जइयें ।
नित्य सबेरें भोरई उठकें सखियन टेर लगइयें ।
तेल तिली से त्यागन करियें, कोरे तटन नहइयें ।
नौन तेल को त्यागन करियें, घिया गकरियां खइयें ।
खाट पिड़ी को त्यागन करियें भू पै सैन लगइयें । 

इसके साथ ही सखियों की लोकरागिनी राधाकृष्ण के प्रसंगों को स्मरण करती हैं ..।
नेक पठै दो गिरधर जू कों मैया
गिरधारी मोरे हिरदै बसत है।
सो उनई के हांत लगै मोरी गइया । नैंक पठै दो… ।
इतनी सुन कैं जसोदा मुस्क्याती
जाऔ जाऔ लाल लगा आऔ गया। नैंक पठै दो… ।

इन कोकिल कंठी स्वर लहरियों के पश्चात् लोक कथाओं का सिलसिला प्रारम्भ होता है। गणेश जी दस दिन के देवता विसरम्भो, तुलसी, बाल्मीकि, सत्यनारायण, रामचर्या आदि की कहानियां सखियां आपस में ही कहती सुनती हैं। इस बीच पूरब में सूरज की पौ फटते देखकर सखियां गाने लगती हैं..।
उठौ सूरज देव कलाधारी
कश्यप जू के पुत्र धनुषधारी । उठौ …..
उठौ री सूरज जू की मैया, लाल कों जगा देओ ।
सारी दुनियां है अंधियारी । उठौ …. |
उठौ री सूरज जू की मैया दहिया बिलोऔ
छारें खड़ी एक छछियारी । उठौ ….।
उठौ रे पंछीड़ा भैया मारग चलियें ।
सिर पै गठरी है भारी । उठौ …. |
आधी नगरी में बम्मन, बनियाँ
आधी नगरी में प्यारी घरवारी । उठौ …..।

सूरज निकालने तक यह गीत पूरा होते ही गांव के पंडित जी आ जाते हैं। वे वहीं चौंतरिया पर विराजमान भगवान का पूजन विधि पूर्वक कराते हैं। आचमन, पान – समर्पण, झूला के बाद कातिक व्रत का महात्म्य सुनाते हैं फिर सभी सखियां भगवान की परिक्रमा करती हैं नित्यप्रति कोई एक सखी क्रम से भगवान को अपने घर ले जाकर जलाशय में विसर्जित कर देती है।

यह क्रम दीपावली के पूर्व चतुर्दशी (नरक चौदस) तक चलता है । कतकारियां उसी दिन मौन व्रत रखकर करई तमरियां किसी जलाशय में विसर्जित कर देती हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि श्रीकृष्ण यमुना में कहीं छिप गये हैं। अगले दिन से घाटों घाटों श्रीकृष्ण को खोजने का प्रयास सखियां करती हैं। कतकारियां कृष्ण को ढूंढने विभिन्न नदी, तालाबों आदि पर जाती हैं, वहीं स्नान करती हैं।

वहां सखी छेड़ने का लोकनाट्य होता है। इसके अन्तर्गत दो टोलियां बनती हैं- एक पुरुषों की तथा दूसरी कतकारियों की । पुरुष गोप तथा सखा बनकर सखियां छेड़ने, माखन छीनकर खाने आदि का अभिनय करते हैं। सखियों की छेड़ाखानी का  यह लोकनाट्य लीलायें अत्यन्त रोचक होती हैं। यह लोक नाट्य परम्परा भैया दूज तक चलती है। उस दिन श्रीकृष्ण मिल जाते हैं। उसी दिन उसी चौकी पर राई दामोदर की स्थापना करके नवमी तक पूजन का क्रम चलता है।

दशमी से चतुर्दशी तक पचबिकियां मनाते हैं। इन दिनों कतकारियां व्रत रखतीं तथा फलाहार ही लेती हैं। चतुर्दशी के दिन भीत पाखे का डला चढ़ाते हैं इसके अन्तर्गत मकान के विभिन्न अंगों यथा खपरैल, दरवाजे, खिड़कियां, दीवालें आदि को व्यंजन पकवान के रुप में बनाते हैं भगवान के आभूषणों के भी पकवान बनाये जाते हैं ।

चतुर्दशी के दिन में विष्णु तुलसी के विवाह का आयोजन किया जाता है। इसमें धूमधाम से बारात निकाली जाती है। विवाह की डलिया के रूप में भीत पाखे का डला देते हैं। भीगी पलकों से दान दहेज के साथ तुलसी की विदा होती है। अनेक निःसंतान महिलायें कन्यादान का पुण्य प्राप्त करने के लिये तुलसी का विवाह का आयोजन करती हैं।

पूर्णिमा की रात्रि में कतकारियां किसी तालाब, नदी, नहर या जलाशय पर एकत्र होती हैं। वे कागज की नाव बनाकर उस पर आटा के कुछ प्रज्ज्वलित दीपक रखकर उस नाव को जलाशय में प्रवाहित करती हैं। पूर्णिमा की चांदनी के उज्ज्वल प्रकश में सैकड़ों-हजारों दीपकों का झिलमिल प्रकाश अद्भुत दृश्य उपस्थित करता है।

पूर्णिमा को कतकारियां निराहार व्रत रखती हैं। अगले दिन ‘ग्वाल- चबैनी’ (भींगे चना, लइया, भूनी हुई मूंगफली आदि का मिश्रण) बांटकर वे अन्न ग्रहण करती हैं।

इस प्रकार कार्तिक स्नान का लोक पर्व पूरा हो जाता है। महिलाओं में अधिक से अधिक संख्या में कार्तिक स्नान की ललक होती है। तप-साध्य तथा व्यय – साध्य होने के बाबजूद अनेक महिलायें ग्यारह तथा इक्कीस कातिक नहाने का संकल्प करती हैं। जिस वर्ष अधिमास/मलमास पड़ता है, उस वर्ष के कार्तिक स्नान को विशेष महत्व दिया जाता है।

सुआता -नौरता 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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