Homeपुस्तकेंलोक के आलोक से प्रदीप्त है "महुआ चूए आधी रात"

लोक के आलोक से प्रदीप्त है “महुआ चूए आधी रात”

ललित निबंधकार लोकसंस्कृतिकर्मी वरिष्ठ साहित्यकार डा. रामशंकर भारती का लोकसंस्कृति को लेकर ललित निबंध संग्रह “महुआ चुए आधी रात” Mahua Chuye Aadhi Rat अभी – अभी छपकर बाजार में आया है। ‘बुंदेली झलक’ के इस अंक में ‘महुआ चुए आधी रात’ में वर्णित विभिन्न लोकसंस्कृति विषयक संदर्भ हैं , जिनमें बुंदेली लोकपरंपराओं की जमीनी पड़ताल से लेकर बोली , भाषा , लोकगीत  और बुंदेलखण्ड की विरासत को लेकर अनेक लेखों के माध्यम से पुस्तक में विस्तार से लिखा गया है। यहाँ पर मैं इस पुस्तक के “लोक के आलोक” पर थोड़ी- सी चर्चा कर रहा हूँ….। 

लोकसंस्कृति की सदानीरा के घाट पर ही मनुष्यता को जीवंत बनाए रखनेवाले उत्सवों , तीज – त्योहारों , पर्वों ,  रागात्मक संबधों,जीवन शैलियों और आनंदगंधी परंपराओं का जन्म हुआ है। लोकाभिराम करनेवाली लोकसंस्कृति की यह अविरलता कहीं धम न जाए , कालखण्डों के क्रूरतम अधोगामी प्रहारों से सदा-सदा के लिए कहीं पथरा न जाए,  जड़ताओं की जकड़न कहीं उसे पंगु न करदे “महुआ चुए आधी रात” के ललित लेखों के बहाने डा.रामशंकर भारती ने यही चिंता व्यक्त करते हुए विकृतियों की गहरी काली डरावनी अँधेरी सुरंग से निकलकर लोकमंगल के उजालों की दुनिया में पैर रखने के अनेक समाधान प्रस्तुत किए हैं।

हमारे यहाँ लोक जीवन की व्यापकता निर्मित करने के उद्देश्य से संचित हैं। लोकसंस्कृति से उद्भूत इन्हीं ऋतु पर्वों के माध्यम से मनुष्य की संवेदनाओं को व्यापकता मिलती है , उसका सौंदर्यबोध परिष्कृत होता है और नैतिक वृत्ति पवित्र होती है। प्रकारांतर  से ऋतु पर्व सांस्कृतिक चेतना को अनुप्राणित – विकसित और मार्जित करने का सर्वोत्तम माध्यम है ।

भारतीय संस्कृति के मूल में यहाँ के लोकपर्वों , लोक -उत्सवों की एक विराट परंपरा समाहित है । संस्कृति को जानने के लिए मनुष्य ने चिरकाल से प्रकृति से अपने संबंध स्थापित किये हैं । क्योंकि प्रकृति अंतश्चेतना की अनुभूति होती है जिससे आत्मा में आनंद और तन्मयता उत्पन्न होती है।

भारत की आत्मा का साक्षात्कार करने का एकमात्र मार्ग लोक ही है। शास्त्र कहते हैं , ज्ञान के समस्त वैभव का विकास दो  धाराओं या परंपराओं में हुआ “लोके वेदे च !” शास्त्र परंपरा और लोकपरंपरा ! लिखित अक्षर की परंपरा शास्त्र – परंपरा और वाचिक – परंपरा लोक – परंपरा  है !  ध्यान देने की बात है कि शास्त्र – परंपरा ने लोकपरंपरा को वरीयता दी ! महर्षि पतंजलि जी हमें सूत्र दिया –     “लोकत:प्रमाणम् !लोकविज्ञानाच्च सिद्धम् !”

आचार्य कौटिल्य ने अपने अद्भुत ग्रंथ अर्थशास्त्र में स्पष्टरूप से उद्घोषणा की –

लोकज्ञता सर्वज्ञता ! शास्त्रज्ञोSप्यलोकज्ञो भवेन्मूर्ख तुल्य:।

 कौटिल्य का मानना था कि  जो शास्त्र को जानता है लेकिन लोक को नहीं जानता है तो वह मूर्ख के समान ही है । भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में  लोकधर्मिता की महिमा का प्रतिपादन किया है !    गीता में श्रीकृष्ण ने लोकसंग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है –

 ” लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि। “

  व्यष्टिहित और समष्टिहित के संबंध में गीता कहती है…..। 

  यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।

   न तो लोक ही उससे दुखी या उद्विग्न होता है और न ही वह स्वयं ही लोक से उद्विग्न होता है! यह बात भूलने की नहीं है कि शास्त्र का जन्म भी लोक में ही होता है और उसकी प्रतिष्ठा भी लोक में होती है , लोक के द्वारा ही होती है । लोक समुद्र है और शास्त्र मेघ ! लोकजीवन महासमुद्र की भांति है।शास्त्र आसमान में जा कर बरसा है,यह ठीक है  किन्तु उसका स्रोत समुद्र अर्थात लोकजीवन का अनुभव ही है। लोक सागर है और शास्त्र मेघ….।

  ओह ! जिस दिन लोक धूमिल हो जाएगा उस दिन सभी कुछ मटियामेट हो जाएगा। लोक की सदानीरा की धार जरूर मंद हुई किंतु वह सूखी नहीं है , पथाराई नहीं है। समस्त समाज को अपनी इस लोकमंगलदायिनी लोक संस्कृति के पुनर्वास के लिए प्राणपण से काम करने की आवश्यकता है। निश्चितरूप से यही हमारे जीवन को पाएगी । लोक भारत का एक अनुभवजन्य रूप है। ‘लोक‘ का अर्थ है – जो यहाँ है। लोक का विस्तृत अर्थ है – लोक में रहनेवाले मनुष्य, अन्य प्राणी और स्थावर , संसार के पदार्थ , क्योंकि ये सब भी प्रत्यक्ष अनुभव के विषय हैं। यह लोक अवधारणा मात्रा नहीं है, यह कर्मक्षेत्र है।

प्रत्येक कर्मकांड में लोक दो दृष्टियों से महत्वपूर्ण है -एक तो लोक में जो वस्तुएं सुंदर हैं , मांगलिक हैं उनका उपयोग होता है। यथा सात नदियों का जल या सात कुओं का जल , सात स्थानों की मिट्टी, सात औषधियों , पांच पेड़ों के पल्लव ,धरती पर उगनेवाले कुश , कुम्हार के बनाए माटी के दीए व बरतन , ऋतुओं के फल-फूल-से सब उपयोग में लाए जाते हैं।

दूसरे लोककंठ में बसे गीतों और गाथाओं , लोकाचार के क्रम और लोक की मर्यादाओं का उतना ही महत्व माना जाता है, जितना शास्त्रा विधि का है। लोकाचार और लोक जीवन का अपना स्थान है। यही लोक संस्कृति का लोकमंगलदाता स्वरूप है।

देश के जाने माने प्रकाशक “अनामिका प्रकाशन प्रयाग “ से प्रकाशित यह महत्वपूर्ण कृति “महुआ चुए आधी रात” बुंदेली लोकसंस्कृति को निकट बैठने के अनेक अवसर उपलब्ध कराती है।

 

कृति का नाम – महुआ चुए आधी रात
लेखक – डा.रामशंकर भारती
प्रकाशक – अनामिका प्रकाशन , प्रयागराज
मूल्य – 450/-

समीक्षक – गौरीशंकर रंजन , मुंबई

( निर्देशक – फिल्म एंड टेलीविजन )
संस्थापक – बुंदेली झलक

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