Rajput Period Literature Art
राजपूत राजाओं का शासनकाल साहित्य की उन्नति के लिए विख्यात है। Rajput Kalin Sahitya Kala का विशेष योगदान नरेशों का रहा । कुछ राजपूत नरेश स्वयं उच्चकोटि के विद्वान थे। इनमें परमारवंशी मुंज तथा भोज का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। मुंज एक उच्च कोटि का कवि था जिसकी राजसभा में ’नवसाहसांकचरित’ के रचियता पदमागुप्त तथा ‘दशरूपक’ के रचियता धनंजय निवास करते थे।
भोज की विद्वता तथा काव्य-प्रतिभा लोक विख्यात है। उसने स्वयं ही चिकित्सा, ज्योतिष, व्याकरण, वास्तुकला आदि विविध विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे थे। इनमें श्रृंगार प्रकाश, प्राकृत व्याकरण, सरस्वतीकण्ठाभरण, कूर्मशतक, चम्पूरामायण, श्रंगारमंजरी, समरांगणसूूत्रधार, तत्व-प्रकाश, भुजवलनिबनध, राजमृगांक, नाममालिका तथा शब्दानुशासन उल्लेखनीय हैं। उसकी राजसभा विद्वानों एवं पण्डितों से परिपूर्ण थी।
भोज के समय में धार नगर शिक्षा एवं साहित्य का प्रमुख केन्द्र था। चालुक्य नरेश कुमारपाल विद्वानों का महान संरक्षक था। उसने हजारों ग्रंथो की प्रतिलिपियां तैयार करवायी तथा पुस्तकालयों की स्थापना करवायी। राजा भोज ने धार में एक विश्वविद्यालय की भी स्थापना की।
इस काल में संस्कृत तथा लोकभाषा के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। इनमें राजशेखर की कर्पूरमंजरी, काव्य मिमांशा, बालरामायण, श्रीहर्ष का नैषधचरित, जयदेव का गीतगोविन्द, सोमदेव का कथासरितसागर तथा कल्हण की राजतरंगिणी आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। लोकभाषा के कवियों में चन्दवरदाई का नाम प्रसिद्ध है जो चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय का राजकवि था।
उसने प्रसिद्ध काव्य ’पृथ्वीराजरासो’ लिखा जिसे हिन्दी भाषा का प्रथम महाकाव्य कहा जा सकता है। पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वरकृत मानसोल्लास राजधर्म सम्बन्धी विविध विषयों का सार संग्रह हैं। विधिशास्त्र के ग्रंथों में विज्ञानेश्वर द्वारा याज्ञावल्क्य स्मृति पर लिखी गयी टीका मिताक्षर तथा बंगाल के जीमूतवाहन द्वारा रचित दायभाग का उल्लेख किया जा सकता है।
राजपूतकालीन कला एवं स्थापत्यकला
इस काल में कला एवं स्थापत्य कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। बड़े पैमाने पर देवालय, मंदिर, दुर्ग, भवन इत्यादि बनाए गये जो कलात्मक दृष्टि से अदभुत और बेमिसाल हैं। इसकाल में तीनों शैलियों नागर, द्रविड एवं वेसर शैली में मंदिरों, मूर्ति एवं भवनों का निर्माण किया गया।
मूर्तिकला
इस युग में मूर्तिकारों ने मूर्ति-निर्माण और तक्षणकला से अद्भुत चमत्कार प्रदर्शित किया है। उन्होंने अपनी कृतियों में गुप्तकाल जैसी कोमलता, अंगों का सौष्ठव, यौवन का उभार एवं लालित्य और भावनाओं का ज्वार प्रदर्शित किया तथा दुर्गा, लक्ष्मी, पार्वती, उमा, सरस्वती, चण्डी काली और सिंहवाहिनी आदि देवियों की मूर्तियाँ बनाई गई। शिव, विष्णु, ब्राह्मा, कार्तिकेय, गणेश आदि देवताओं, नर्तकी, विरहिणी, कामातुरा, पुजारिन, भिक्षुणी आदि साधारण स्त्रियों, व्यापारी, सामन्त, राजा, चर्मकार, कलाकार, कलाल आदि पुरूषों और पशु-पक्षियों की मूर्तियाँ बनाई गई।
इन मूर्तियों में से अनेक आज भी पूर्ण या खण्डित रूप में तत्कालीन मंदिरों, महलों, दुर्गों और स्मारकों आदि में विद्यमान हैं। इन मूर्तियों में शिल्प कौशल की प्रचुरता के साथ प्रदर्शन किया गया है। कलाकार इन मूर्तियों को मिट्टी, पत्थर और धातु तीनों ही प्रकार की बनाते थे। इस युग की सर्वोतम मूर्तियाँ उड़ीसा में पुरी भुवनेश्वर और कोणार्क के मंदिर में आज भी देखी जा सकती हैं। ये उस काल की तक्षण कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
मध्यम भारत में खुजराहों के मंदिरों तथा अजन्ता, एलीफेन्टा, एलोरा, बाघ आदि गुहा मंदिरों की मूर्तियाँ कमनीयता, कोमलता, भाव प्रदर्शन और सजीवता में अद्वितीय हैं। एलीफेन्टा गुफा में स्थित शिव की विशाल त्रिमूर्ति जो आठवीं शताब्दी में बनाई गई थी। इस युग की सर्वाधिक ख्याति प्राप्त मूर्ति है। दक्षिण भारत में तांबे की बनी हुई नटराज शिव की मूर्तियाँ यथेष्ट संख्या में पाई गई हैं। ये भी उस युग की मूर्तिकला की अति सुन्दर और प्रशंसनीय नमूने हैं।
गुहामंदिर
इस काल में साहित्य के भांति कला के क्षेत्र में भी प्रगति जारी रही। इस युग के शासकों को भवन-निर्माण का बहुत शौक था। मंदिर निर्माण कला तो इस युग में पराकाष्ठा पर पहुँच गई। चट्टानों को काटकर गुहामंदिर बनाने की कला भारत में बहुत लोकप्रिय थी और प्राचीनकाल से चली आ रही थी।
गुप्तकाल में उनकी विशेष उन्नति हुई थी और राजपूतकाल तक यह प्रक्रिया जारी रही। एलोरा के गुहामंदिर के निर्माण में कैलाशनाथ के मंदिर का भी श्रेष्ठ स्थान है। इसका निर्माण राष्ट्रकूटनरेश कृष्ण प्रथम (756-773) ने कराया था। मंदिर के कलात्मक वैभव का अनुभव उसे देखकर ही किया जा सकता है। सम्पूर्ण भारत में इतनी विशाल और सुन्दर कलाकृति अन्यत्र देखने को नहीं मिलती।
मंदिर कला
मंदिर निर्माण कला का इस युग में विशेष रूप से विकास हुआ। शिल्पशास्त्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये। प्रायः मंदिर उन ग्रंथों में प्रतिपादित सिद्धान्तों और शैली के अनुसार ही बनाये जाते थे। मंदिर का मुख्य भाग जिसमें देवमूर्ति प्रतिष्ठित होती थी, गर्भगृह कहलाता था। उसके सामने एक विशाल कक्ष होता था। जिसमें भक्त लोग एकत्र होते थे। उसे मण्डप कहते थे।
मण्डप और गर्भगृह को जोड़ने वाला भाग अन्तराल कहलाता था। मण्डप के आगे एक डयोढ़ी होती थी जिसे अर्द्ध-मण्डप कहते थे। गर्भगृह के ऊपर ऊँची मीनार बनी होती थी। मंदिर के अन्य भागों के ऊपर भी छोटी-छोटी मीनारें बनाई जाती थी। जोधपुर से 32 मील दूर ओसिया में सोलह ब्राह्म तथा जैन मंदिर हैं। चित्तौड़गढ़ में कालिका माता का मंदिर और उदयपुर से कुछ मील दूर एकलिंग मंदिर है।
आबू पर्वत के जैन मंदिरों में सफेद संगमरमर के हाल,ग्यारह संकेन्द्रिक चक्रों का केन्द्रीय गुम्बज और कढ़ाईदार, मेहराबदार छतें और स्तम्भ है। इन सब में उच्चकोटि की कला दिखाई देती है। प्रत्येक स्थान पर सुन्दर मूर्तियाँ हैं।
ग्वालियर में सास-बहु मंदिर सुनाक में नीलकण्ठ मंदिर और पाटन से कुछ मील दूर मोढेरा में सूर्य मंदिर है। स्तम्भों वाले और नोकदार मेहराबों वाले प्रवेश स्थानों, परिणाम की सुन्दरता और आध्यात्मिक शोभा के वातावरण के लिए मंदिर विशिष्ट है। मंदिर की सारी रचना ही प्रेरणा की ज्वलन्त शिखा से उद्दीप्त है।
छटीं शताब्दी से ग्यारहवीं शताब्दी तक दक्षिणी भारत में द्रविड़ शैली के मंदिर भारी संख्या में बनाये गये। इन मंदिरों में तीन विशिष्टता होती है। प्रथम इनके प्रवेश द्वार अति विशाल और भव्य बनाये जाते हैं जो ’गोपुरम’ कहलाते हैं, दूसरी विशिष्टता इनके मण्डपों में दृष्टिगोचर होती है। इनके विस्तार युक्त अलंकृत मण्डप अनेक विशाल स्तम्भों पर टिके होते हैं।
तीसरी विशिष्टता इनके विमानों मे पायी जाती है जो पिरामिडों जैसी आकृति के बने हैं। सरल रेखाओं द्वारा अनेक पट्टियों में विभक्त हैं। इन पट्टियों पर बेल, बूटे, हाथी, देवी-देवता तथा भक्त स्त्री-पुरूषों की आकृतियाँ इतने कलापूर्ण ढंग से उत्कीर्ण की हुई हैं कि वे राजमेमारों के बजाए हाथी दांत की कलात्मक, रूचिपूर्ण एवं आकर्षक बारीक काम की वस्तुएँ वाले कुशल कारीगरों के हाथ से तैयार की हुई प्रतीत होती हैं।
सम्पूर्ण विमान बेल, बूटों, प्रतिमाओं और मूर्तियों से इतना अधिक भरा होता है कि प्रयत्न करने पर भी सारी विमानों में एक छोटा सा भाग तक खाली नहीं दिखाई देता। इस युग में सहस्त्रों छोटे-बड़े मंदिर भारत के हर भाग में बनाए गये। अनेक राजपूत राजाओं ने शानदार महल, भव्य दुर्ग पक्के घाट, जलाशय, झील, बांध और नहरें तैयार कराई जिनमें अनेक अभी तक स्थापत्य कला के भव्य स्मारकों प्रतिवर्ष सहस्त्र ’देशी-विदेशी यात्रियों को आकृषित करते रहते हैं।
ग्वालियर, चित्तौड़, रणथम्भौर, कालिंजर और मांडू के विशाल दुर्ग आज भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे हैं। मथुरा के मंदिर की भव्यता और सोमनाथ के मंदिर की अभेद्य दृढ़ता देखकर महमूद गजनवी और उसके साथी आश्चर्यचकित और स्तम्भित रह गये थे।
मंदिरों के निर्माण में ईंट, पत्थर और शिलाखण्ड़ों का प्रयोग किया जाता था। पर्वतों को काटकर भी गुहा मंदिर बनवाये गये थे। जैन, बुद्ध और ब्राह्मणों के संरक्षण में ये मंदिर तैयार किये गये थे। मंदिरों के निचले भाग विमान और ऊपरी भाग शिखर कहलाते थे। इन्हें विमान इस भावना को लेकर कहा जाने लगा कि जिस प्रकार देवता विमानों में बैठकर आकाश में विचरण करते माने जाते हैं वैसे ही पृथ्वी पर बनाये गये इन विमान रूपी भव्य मंदिर में निवास करते हैं।
बौद्ध स्तूपों पर चैत्यों के शिखरों को देखकर ही मंदिरों में भी शिखर बनाए जाने लगे। दक्षिण के कुछ मंदिरों को रथ भी कहा जाता है। राजपूत शासकों ने मंदिर बनाने के लिए अपार धन दान दिया। कला समालोचकों ने उनकी खूब प्रशंसा की है।
राजपूत कला के कुछ महत्वपूर्ण स्थल राजस्थान के चित्तौड़गढ़, रणथम्भौर और कुम्भलगढ़ के किले, मध्यप्रदेश में माण्डु, ग्वालियर, चन्देरी और असीरगढ़ के किले हैं। राजपूत घरेलू शिल्पकला के उदाहरण, ग्वालियर में मान सिंह के महल, अम्बर (जयपुर) के स्मारक और उदयपुर में झील में महल है।
अनेक राजपूत नगर और प्रासाद किलों में, पहाड़ियों के बीच या सुन्दर कत्रिम झीलों के किनारे पर स्थित हैं। राजस्थान में जोधपुर दुर्ग एक ऊँची और अगम्य पहाड़ी पर बना हुआ है और उसके उठते हुए बुर्ज और मोर्चे है। बाबर ने भी उन्हें ’’चमकदार ताँबे की पट्टियों से ढंके गुम्बज’’ कहकर उनकी प्रशंसा की है। राजपूतकालीन कला एवं स्थापत्य कला से शासकों की अभिरूचि एवं इस युग की कलात्मक सफलताओं का आभास होता है।
सातवीं शताब्दी से सम्पूर्ण भारत में स्थापना कला में एक नया मोड़ मोड़ आया तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण दक्षिण की कला कृतियां अपनी निजी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत की गयी। अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों-मानसोल्लास मानसार, समरांगणसूत्रधार अपराजितपृच्छा, शिल्पकला, सुप्रभेवदागम, कमिनिकागम आदि की रचना हुई तथा इनमें मंदिर वास्तु के मानक निर्धारित किये गये। इनके अनुपालन में कलाकारों ने अपनी कृतियां प्रस्तुत की। शिल्पग्रन्थांे में स्थापत्य कला के क्षेत्र में तीन प्रकार के शिखरों का उल्लेख मिलता है, जिनके आधार पर मंदिर निर्माण की तीन शैलियों का विकास हुआ-
1-नागर शैली
2-द्रविड़ शैली
3-वेसर शैली
उपर्युक्त सभी नाम भौगोलिक आधार पर दिये गये प्रतीत होते हैं। नागर शैली उत्तर भारत की शैली थी जिसका विस्तार हिमालय से विन्ध्य पर्वत तक दिखाई पड़ता है। द्रविड़ शैली का प्रयोग कृष्णा नदी से कन्याकुमारी तक मिलता है। विन्ध्य तथा कृष्णा नदी के बीच के क्षेत्र में वेसर शैली प्रचलित हुई। चूँकि इस क्षेत्र में चालुक्य वंश का आधिपत्य रहा, अतः इस शैली को चालुक्य शैली भी कहा जाता है। वेसर का शाब्दिक अर्थ ‘खच्चर’ होता है जिसमें घोड़े तथा गधे दोनों का मिला-जुला रूप है।
इसी प्रकार वेसर शैली के तत्व नागर तथा द्रविड़ दोनों से लिए गये हैं। पी.के. आचार्य ’वेसर’ का अर्थ नाक में पहनने वाला आभूषण मानते हुए यह प्रतिपादित करते हैं कि चूँकि इसका आकार आधार से शिखर तक वृत्त के आकार का गोल होता था, अतः इसकी संज्ञा ’वेसर’ हुई। इसी प्रकार वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर मंदिर आधार से सर्वोच्च अंश तक, चतुरस (चौकोर) तथा द्रविड़ अष्ठकोण (अष्ठास) होने चाहिए।
नागर तथा द्रविड़ शैलियों का मुख्य अन्तर शिखर सम्बन्धी है, जिसे ’विमान’ कहा जाता है। शिल्पशास्त्र के ग्रन्थों में विमान को सात तलों वाला बताया गया है। नागर शैली में आयताकार गर्भगृह के ऊपर ऊँची मीनार के समान गोल या चौकोर शिखर बनाये जाते थे। जो त्रिकोण की भांति ऊपर पतले होते थे।
द्रविड़ शैली के शिखर वर्गाकार तथा अलंकृत गर्भगृह के ऊपर बनते हैं। ये कई मंजिलों से युक्त पिरामिड़ाकार हैं। बाद में द्रविड़ मंदिरों को घेरने वाली प्राचीर में चार दिशाओं में विशाल तोरण द्वार बनाये गये। इनके ऊपर बहुमंजिले भवन बनने लगे जिन्हें देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत किया गया। ये कभी-कभी विमान से भी ऊँचे होते थे। तोरण द्वार पर बनी इन अलंकृत एवं बहुमंजिली रचनाओं को ’गोपुरम’ नाम दिया गया है।
पूर्व मध्यकालीन उत्तर भारत में सर्वत्र नागर शैली के मंदिर बनाये गये हैं। इनमें दो प्रमुख लक्षण है। अनुप्रस्थिका (योजना) तथा उत्थापन (ऊपर की दिशा में उत्कर्ष या उँचाई) छटीं शताब्दी के मंदिरों में स्वस्तिकाकार योजना सर्वत्र दिखाई देती हैं। अपनी ऊँचाई के क्रम में शिखर उत्तरोत्तर ऊपर की ओर पतला होता गया है। दोनों पार्श्वों में क्रमिक रूप से निकला हुआ बाहरी भाग होता है जिसे ’अस्र’ कहते हैं। इनकी ऊँचाई शिखर तक जाती है। आयताकार मंदिर के प्रत्येक ओर रथिका पर आमलक स्थापित किया जाता है, वैसे सम्पूर्ण रचना को अत्यन्त आकर्षक बनाता है।
राजपूत शासक बड़े उत्साही निर्माता थे। अतः इस काल में अनेक भव्य मंदिर, मूर्तियाँ एवं सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया गया जो कलाकृति एवं सुन्दरता के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। 8 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के मध्य बड़े पैमाने पर मंदिरों का निर्माण हुआ। उड़ीसा राज्य में स्थित भुवनेश्वर, पुरी तथा कोणार्क के मंदिर इसी काल के निर्मित हैं। भुवनेश्वर के प्रमुख मंदिर हैं-परशुरामेश्वर मंदिर, मुक्तेश्वर तथा लिंगराज मंदिर इत्यादि।
लिंगराज मंदिर उड़ीसा शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है। इसका निर्माण दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ था। लिंगराज मंदिर के ही अनुकरण पर बना भुवनेश्वर का अनन्तवासुदेव मंदिर है जो यहाँ का एक मात्र वैष्णव मंदिर है। वर्तमान में भुवनेश्वर में लगभग पाँच सौ मंदिर है जो गौरव तथा विशिष्टता की दृष्टि से अनुपम हैं।
लिंगराज मंदिर के अतिरिक्त पुरी का जगन्नाथ मंदिर तथा कोणार्क स्थित सूर्यमंदिर भी उड़ीसा शैली के श्रेष्ठ उदाहरण है। जगन्नाथ मंदिर दोहरी दीवारों वाले प्रांगण में स्थित है चारों दिशाओं में चार विशाल द्वार बने हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर स्थित है तथा उसके सामने स्तम्भ हैं। मंदिर की 400×350 वर्गफुट की परिधि में छोटे-छोटे कई मंदिर बनाये गये हैं। पुरी का जगन्नाथ मंदिर हिन्दू धर्म के पवित्रतम तीर्थ स्थलों में गिना जाता है।
पुरी से लगभग बीस मील दूरी पर स्थित कोणार्क का सूर्य मंदिर वास्तुकला की एक अनुपम रचना है। इसका निर्माण गंगवंशी शासक नर सिंह प्रथम (1238-1264 ई.) ने करवाया था। एक आयताकार प्रांगण में यह मंदिर रथ के आकार पर बनाया गया है। गर्भगृह तथा मुखमण्डप को इस तरह नियोजित किया गया है कि वे सूर्य रथ प्रतीत होते हैं। नीचे एक बहुत ऊँची कुर्सी है जिस पर सुन्दर अलंकरण मिलता है। उसके नीचे चारों ओर गज पंक्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं।
प्रवेश द्वार पर जाने के लिए सीढ़ियां बनायी गयी हैं। इसके दोनों ओर उछलती हुई अश्व प्रतिमायें उस रथ का अभास करती हैं जिस पर चढ़कर भगवान सूर्य आकाश में विचरण करते हैं। मंदिर के बाहरी भाग पर विविध प्रकार की प्रतिमायें उत्कीर्ण की गयी हैं। प्रतिमा में रथ के पहियों पर भी उत्कीर्ण हैं। कुछ मूर्तियां अत्यन्त अश्लील हैं जिन पर तांत्रिक विचारधारा का प्रभाव माना जा सकता है। संभोग तथा सौन्दर्य मुक्त प्रदर्शन यहां दिखाई देता हैं। अनेक मूर्तियों के सुस्पष्ट श्रृंगारिक चित्रण के कारण इस मंदिर को ’काला पगोडा’ (इसंबा चंहवकं) कहा गया है।