Rajput Kalin Arthik Sthiti कृषि पर आधारित थी । इस काल में कृषि जनता की जीविका का प्रमुख साधन थी। इस समय तक कृषि का पूर्ण विकास हो चुका था। विभिन्न प्रकार के अन्न पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न किए जा रहे थे। हेम चन्द्र कृत प्रबन्ध चिन्तामणि में सत्रह प्रकार के धान्यों का उल्लेख मिलता है। शून्य पुराण से पता चलता है कि बंगाल में पचास से भी अधिक प्रकार के चावल का उत्पादन किया जाता था।
इसके अतिरिक्त गेहूँ, जौं, मक्का, कोदो, मसूर, तिल, विविध प्रकार की दालें, गन्ना आदि के प्रचूर उत्पादन का उल्लेख भी साहित्य तथा लेखों में मिलता है। अरब लेखक भी भूमि की उर्वरता का उल्लेख करते हैं।
कृषकों को नाना प्रकार के कर देने पड़ते थे। पूर्वमध्यकाल के लेखों में भाग, बलि, धान्य, हिरण्य उपरिकर, उद्रंग उदकभाग आदि करों का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें भाग, कृषकों से उपज के अंश के रूप में लिया जाता था।
भोग, राज के उपभोग के लिए समय-समय पर प्रजा द्वारा दिया जाता था। बलि, राजा के उपहार के रूप में मिलता था। हिरण्य, नकद वसूल किया जाने वाला कर था। कृषकों से राज्य जलकर भी वसूलता था जिसे उदक भाग कहा जाता था।
कृषि के साथ-साथ वाणिज्य व्यापार भी उन्नत अवस्था में था। यातायात की सुविधा के लिए देश के प्रमुख नगरों को सड़कों के द्वारा जोड़ दिया गया था। तत्कालीन साहित्य तथा लेखों में विभिन्न प्रकार के उद्यमियों एवं दस्तकारों का उल्लेख है।
अलबरूनी जूते बनाने, टोकरी बनाने, ढाल तैयार करने, मत्स्य-पालन, कताई-बुनाई आदि का उल्लेख करता है। व्यावसायियों के अलग-अलग संगठन एवं श्रेणियाँ भी होती थी। जिसका मुख्य कार्य उत्पादन में वृद्धि करना एवं वितरण पर पर्याप्त ध्यान देना था।
इस युग में आतंरिक एवं बाह्य व्यापार उन्नत अवस्था में था। भारतीय मालवाहक जहाज अरब, फारस, मिश्र, चीन पूर्वी द्वीपसमूह आदि को जाया करते थे। भारतीय समानों का विश्व बाजार में काफी मांग थी। राजपूत युग में देश की अधिकांश सम्पत्ति मंदिरों में जमा थी।
इसके कारण मुस्लिम विजेताओं ने मंदिरों को लूटा तथा अपने साथ बहुत अधिक सम्पत्ति एवं बहुमूल्य सामग्रियाँ ले गये। कहा जाता है कि महमूद गजनवीं अकेले सोमनाथ मंदिर से ही बीस लाख दीनार मूल्य का माल ले गया था। इसी प्रकार मथुरा की लूट में भी उसे अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई थी। नगरकोट की लूट में प्राप्त सिक्कों का मूल्य सत्तर हजार दिरहम (दीनार) था।