भारत और पश्चिमी एशिया के पारस्परिक संबन्धों के साक्ष्य हड़प्पा सभ्यता के साथ ही मिलने लगते हैं। आरंभयुगीन संपर्कों से Bhartiya Kala Par Vividh Prabhav कला के रूपों में पाया जाता है, जो पश्चिमी एशिया से भारत तक फैले हुए थे और जिनकी कल्पना में दोनों संस्कृतियों ने भाग लिया । दोनों संस्कृतियों के सहयोग से उत्पन्न अभिप्राय थे।
दो सिर और चार सींगों वाला भैंसा (ऋग्वेद), एक सिर और दस शरीरों वाले वत्स (अथर्ववेद), पशु पक्षियों के मुख वाले रूप, कल्पनाजन्य पशु (ईहामृग) आदि। इनके समानान्तर या मिलते-जुलते बहुत से रूप सुमेर, खत्ती, असीरिया , मेसोपोटामिया, क्रीट, ट्राय, फीनिशिया, हखमनी और शक संस्कृतियों आदि की कलाओं में प्राप्त होते हैं।
भरहुत, सांची और मथुरा की कला में ईहामृग पशुओं की सजावट है। मथुरा में लम्बे खिंचे हुए टेढ़े- मेढ़े शरीरों वाले पशुओं का बहुतायत से चित्रण पाया जाता है। वास्तुकला के संस्कृत ग्रंथों और महाभारत तथा पुराणों में असुर मय की चर्चा आचार्य और असाधारण वास्तुकार के रूप में हुई है।
ई. बी.हेवेल ने कुछ पुराने असीरियन मन्दिरों के जो पुनर्निर्मित चित्र प्रस्तुत किये हैं, उनसे हमारे मन्दिर के शिखरों का सम्बन्ध सीधे उनसे स्थापित हो जाता है। इसी प्रकार उनके द्वारा स्तम्भ निर्माण में किए गए प्रयोगों से फारसियों और यूनानियों के खम्भों का विकास हुआ और आगे चलकर वे तक्षशिला पहुंचे।
वे महान कारीगर थे तथा ललित कलाओं मे प्रवीण थे। उनकी कलात्मक उपलब्धियां महलों के इर्द-गिर्द केन्द्रित थीं। फर्श बनाने की उनकी विशेषता उस चमक में थी, जिसके कारण जहां जल था वहां थल प्रतीत होता था और जहां थल था, वहां जल। असुर कलाकार मय ने महाभारत के युधिष्ठिर के महल में यही चमत्कार उत्पन्न किया था।
इसी प्रकार स्पूनर ने आधुनिक पटना के निकट एक गांव कुमरहार में चन्द्रगुप्त मौर्य के राजमहल के अवशेष खोजे, जिसमें ढाई फुट गोलाई वाले , दस फुट ऊँचे स्तंभों की दो पंक्तियों के ऊपर बनाया गया एक स्तंभ कक्ष था।
अशोक के काल से पहले भारत में शिलाओं और स्तंभों पर आलेख कभी अंकित नहीं किए गए थे। बुद्ध के अवशेषों वाले पात्रों पर कुछ इंच लम्बे आलेख, जैसा एक पिपरहवा के स्तूप में प्राप्त हुए हैं, बुद्ध काल के नहीं हैं, क्योंकि उनको अशोक काल की ब्राह्मी लिपि में अंकित किया गया है। अपनी विजय के आलेख चट्टानों और स्तंभों पर अंकित करना फारस के सम्राटों में आम प्रथा थी। उससे पहले असीरिया में , उससे पहले मिस्र, सुमेरिया और बेबीलोनिया में थी।
कुछ विद्वानों का मत है कि अशोक ने अपना मौलिक विचार स्तंभ शीर्षकों के रूप में प्रकट किया। स्तूप, वेदिका, छत्र, बोधिमंड, एकाश्मक स्तंभ शीर्षक, पर्वत में उत्कीर्ण गुफाएं और धौली में उत्कीर्ण गजतम- ये सब कला के रूप भारतीय भूमि की उपज थे।
इस बृहत सूची से केवल स्तंभों को अलग करके उन्हें विदेशी प्रभाव से प्रभावित मानना युक्तिसंगत नहीं है।’’वे आगे लिखते हैं ’’पर्सी ब्राउन ने लिखा है कि 3000 ई. पू. में ऊर नामक स्थान में चन्द्र मन्दिर के सामने ऐसे स्तम्भ थे।(चट्टान में उत्कीर्ण गुफाओं के सामने के कीर्ति स्तम्भ) उनका मानना है कि मिस्र के मन्दिरों के सामने भी ऐसी ही लाटें थीं और येरूसलम के सोलोमन के मन्दिर के सामने भी दो पीतल के स्तम्भ थे, जिनका प्रभाव कार्ले के कीर्तिस्तम्भों पर पड़ा। किन्तु ऐसे स्तम्भों की कल्पना के लिए भारत से बाहर जाने की आवश्यकता नहीं।
सांची के महाचैत्य में तोरण के सामने ऐसा ही स्तंभ है।भारतीय वास्तुकला में स्तूप एक विदेशी देन थी। स्तूप जैसे दोनों प्रकार के ढांचे पश्चिमी एशिया और मिस्र में कब के खड़े किए जा चुके थे। बेबीलोन तथा अन्य स्थानों पर एक प्रकार के मन्दिर बनाए गए थे, जिनमें से कुछ सात सात मंजिल के थे और जिनके ठोस बाहरी भाग के चारों ओर वर्तुलाकार सीढ़ियां ऊपर की ओर उठती चली गई थीं। इनको जग्गुरत कहा जाता था।
बिना कक्षों वाले मन्दिर के लिए संस्कृत शब्द है जरूक, जो जग्गुरत का बिगड़ा हुआ रूप है। महाभारत में इसे एदुक कहा गया है। अवशेष संचय के लिए निर्मित दूसरे प्रकार के स्तूप की तुलना और संबन्ध मिस्र के पिरामिडों से किया जा सकता है।
मूर्तिकला के क्षेत्र में यह प्रभाव और भी महत्वपूर्ण है। अशोक से पन्द्रह शताब्दी पहले की सुदूर सिन्धु सभ्यता की मूर्तियों और परखम यक्ष जैसे कुछ अन्य नमूनों को छोड़कर जो अशोक से थोड़े ही पहले के हैं, अशोक से पहले की कोई मूर्ति नहीं मिलती। अशोक के स्मारकों की चमत्कारी पॉलिश जिससे वे धातु के बने प्रतीत होते हैं और जिसका उन्हीं के साथ अन्त भी हो जाता है, परखम, पवाया और बड़ौदा में प्राप्त किस्म के स्थानीय नमूनों से भिन्न है।
भगवतशरण उपाध्याय का मानना है कि ’’वह पॉलिश भी और स्तंभों तथा उनके शिखरस्थ पशुओं की परिकल्पना वहीं से आई जहां से अरमई लिपि, अशोक के शिलालेखों के प्रारंभिक अंश आए थे। अशोक के स्मारकों के तात्कालिक पूर्ववर्तियों का भी हम्मूराबी के स्तंभों से असुरबनीपाल तथा उसके असीरियाई उत्तराधिकारियों के पाषाण स्तंभों तथा हखमनी सम्राट दारा तक और दारा से अशोक के सिंह स्तंभों तक एक अविच्छिन्न सातत्य था।
सांची और भरहुत के स्तंभों की शुंगकालीन रेलिंग उत्कृष्ट हैं। मौर्यकालीन स्तूपों के इर्द-गिर्द सांची और भरहुत की रेलिंगें, जिन पर बड़े सजीव पशु पक्षी अंकित हैं, परवर्ती शुंग युग की उपलब्धियां हैं। शुंगकालीन कला में बौद्ध प्रतीकों के ऊपर भी छत्र लगाए जाने लगे थे। मस्तक के पीछे तेजोचक्र या प्रभामण्डल आरंभ से ही बुद्ध मूर्ति का लक्षण माना गया। इस लक्षण को ईरान के धार्मिक देवताओं से अपनाया गया, जहां सिक्कों पर उन देवों की मूर्तियों में मस्तक के पीछे प्रभामण्डल पाया जाता है।
इसी प्रकार यूनानी मूर्तिकारों ने भारतीय जीवन और गाथाओं को , विशेषकर बुद्ध के जीवन को छोटे.बड़े कई रूपों में अंकित किया। मथुरा के लाल चकत्तेदार पत्थर पर बनी कुछ मूर्तियों में गांधार शैली की बुद्ध मूर्तियों के कई लक्षण हैं, जैसे- कुछ मूर्तियों के चेहरे पर मूंछें हैं। छाती पर जनेऊ की तरह रक्षासूत्र या ताबीजी गण्डे हैं और जो बेंत के ऊँचे मूढ़े पर बैठी हैं। वे पैरों में यूनानी ढंग की चप्पल पहने हैं।
भारतीय परम्परा के अनुसार बुद्ध के चेहरे पर मूंछें कभी नहीं दिखाई जाती। यह लक्षण ईरान की मूर्तियों से लिया गया। ताबीजी माला भी ईरानी या पश्चिमी परंपरा से ली गई। कालान्तर में पंजाब और काबुल घाटी में गांधार, भारतीय- यूनानी, भारतीय-हेलेनी या यूनानी-रोमन कलाके रूप हम देखते हैं। गांधार की प्राचीन राजधानी तक्षशिला में आयोनियाई खम्भों वाले अनेक भवन और मन्दिर मिले हैं। यूनानी कारीगरों और वास्तुशिल्पियों ने अनेक मन्दिर बनाए और कश्मीर के मन्दिरों पर हेलेनी वास्तुशिल्प की अनेक छाप छोडीं। ।
हिन्द यूनानियों के बाद ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के लगभग भारत में प्रवेश करने वाले शक, पह्लव, कुषाण, आभीर और गुर्जरों ने भारतीय संस्कृति को प्रभावित किया, जिनमें मध्य एशिया से आई खानाबदोश शक जाति ने भारत में बड़ी संख्या में पूजा की स्थानीय रीतियों व देवी-देवताओं को अपनाया। मथुरा के संग्रहालय में लाल पत्थर की अनेक ऐसी प्रतिमाएं रखी हैं, जो पहली से तीसरी शताब्दी तक की हैं, जिनमें कुछ चार अश्वों के रथ में बैठी दिखाई गई हैं।
सूर्य की उपासना के लिए तैयार इस प्रकार की प्रतिमाएं भारत में इस काल से पहले नहीं दिखाई देतीं। ऋग्वेद में भी सूर्य को प्राकृतिक रूप में पूज्य माना गया कुषाणों से पहले सूर्य की कोई प्रतिमा नहीं मिली है। धोती पहने, उत्तरीय ओढ़े, मुकुट धारी खड़े सूर्य की प्रतिमाएं, (जिनमें उन्हें कमलदल धारण किए हुए अथवा कुहनियों पर से बाहुएं मोड़े दोनो हाथ ऊपर उठाए हुए कमलदलों का स्पर्श करते हुए दिखाया गया है), बाद के मध्यकाल में आईं।
भविष्य, शाम्ब तथा अन्य पुराणों में सूर्य की उपासना तथा सूर्य के प्रथम मन्दिर की स्थापना शकद्वीप अर्थात सिंध के मुल्तान स्थान में बताई गई है, जहां शकों ने भारत में प्रवेश करके अपनी बस्तियां बसाई थीं। शक और कुषाण सूर्य पूजक थे। कनिष्क के सिक्कों पर सूर्य और चन्द्र की आकृतियां मिलती हैं। भारत में उन्होंने ही सूर्य की उपासना का चलन आरंभ किया और अपने अनुरूप वेशभूषा भी दी। भारत में पहले कुछ एक ही थे। कश्मीर में मार्तण्ड मन्दिर, उड़ीसा में कोणार्क, उत्तर प्रदेश में बहराइच में सूर्य मन्दिर आदि।
प्रसिद्ध ग्रीको भारतीय शैली गांधार शैली का आरंभ यूनानियों ने किया था, परंतु उसको विकसित करके प्रचलित करने का कार्य शकों और कुषाणों ने किया। फलतः सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियां पहली से तीसरी सदी के दौरान बनी। स्तूपों के स्तंभ, रेलिंग, बुद्ध की मूर्तियों में सिलवटों की लकीरें और सूक्ष्म हुईं।
कुषाणों की उपलब्धियों में गांधार कला ने एक स्पष्ट समान शैली को जन्म दिया और महायान के दार्शनिक सिद्धांतों द्वारा समर्थित बुद्ध की मूर्ति के प्रकट होने से बौद्ध मत पश्चिम और पूर्व में समान रूप से विचारकों तथा आम जनता के स्वीकार योग्य बन गया। कला को आम रूप में एक विशिष्ट कुषाण शैली प्राप्त हुई और नाग-नागिनियों, अप्सराओं और यक्षिणियों, सप्तमातृकाओं, मगरमच्छ और कछुए पर सवार गंगा और यमुना, बोधिसत्वों की मूर्तियों ने मथुरा कला को समृद्ध किया।