भारतीय संस्कृति में वास्तुकला का दूसरा नमूना थे Gufa Mandir Aur Chaitya । सौराष्ट्र से लेकर कलिंग तक और अजन्ता से बराबर पहाड़ी तक की गुफाओं के रूप में इसका प्रसार देखा जाता है। इस विशाल क्षेत्र में चट्टान काटकर गुफाओं के बनाने की एक जैसी प्रक्रिया सर्वत्र प्रााप्त हुई है। केवल शैली के स्थानीय भेद अवश्य हैं, जो उनके मुखपट्ट,अलंकरण, स्तम्भ, मूर्तियों, भीतरी मण्डप की आकृति और परिमाण, छत एवं गर्भगृहों के क्रम में दिखाई देते हैं।
भारतीय संस्कृति में गुफा मन्दिर और चैत्य
Cave Temples and Chaityas in Indian Culture
लगभग तीसरी शती ई. पू. में अशोक कालीन हीनयान युग से लेकर महायान युग की सातवीं शताब्दी तक पर्वत में गुफाओं का तक्षण होता रहा और इस दीर्घकाल में लगभग 1200 गुफाएं निर्मित की गईं। स्तूपों, उनके चारों ओर के प्रवेश द्वारों एवं चहारदीवारी के अतिरिक्त गुप्त वंश से शताब्दियों पूर्व के वास्तु विद्या के मुख्य अवशेष कृत्रिम गुफाएं हैं, जो धार्मिक कार्यों के लिए खोदी गईं थीं।
इनमें अशोक द्वारा आजीविक भिक्षुओं को समर्पित गया के समीप बराबर की पहाड़ी की गुफाएं तथा नागार्जुनी पहाड़ियों की गुफाएं प्रमुख हैं।गुफाओं की भित्तियों पर भली-भांति पॉलिश की गई है। बराबर की सुदामा गुफा का अशोक के राज्यकाल के बारहवें वर्ष में तथा कर्णचौपड़ गुफा 19वें राज्य वर्ष में निर्माण किया गया था।
तीसरी लोमस ऋषि गुफा तथा चौथी विश्वझोपड़ी गुफा कहलाती है। नागार्जुनी समूह में गोपी गुफा और एक अन्य गुफा का निर्माण अशोक के पौत्र दशरथ ने करवाया। इनमें अशोक कालीन गुहाशिल्प परम्परा की पूर्णतः रक्षा की गई है। उत्तरकालीन गुफा मन्दिरों में सातवाहन राज्य और उसके उत्तराधिकारियों के समय में सबसे अधिक और प्रसिद्ध कृत्रिम गुफाएं खोदी गई हैं।
इनमें पूना के निकट भाजा की प्राचीनतम दक्षिण की गुफा में ठोस चट्टान से कटा हुआ एक गहरा अर्धवृत्ताकार विशाल कक्ष है, जिसमें भित्तियों के समीप सादे अष्टभुजी स्तंभों की पंक्ति है, जो एक काष्ठ भवन की ढोलाकार छत को प्रदर्शित करने के लिए खुदी हुई वक्राकार पटरियों को संभाले हुए है। विशाल कक्ष के सिरे पर ठोस चट्टान से कटा एक छोटा स्तूप है।
शुंग काल में निर्मित उड़ीसा के उदयगिरि की पहाड़ी में 19 (रानी गुम्फा, हाथी गुम्फा आदि) और खंडगिरि में 16 (नवमुनि गुम्फा, देवसभा आदि) गुफाएं हैं। ये गुम्फाएं जैन भिक्षुओं के लिए बनाई गई थीं। इनके संरक्षक कलिंग के सम्राट खारवेल थे। इन गुम्फाओं में सुन्दर आकृति की और वास्तु सम्बन्धी कई विशेषताओं से युक्त स्तंभों पर आश्रित सामने की ओर निकली हुई ऊँची खुली छतें हैं।
महाराष्ट्र में चट्टान में काट कर निर्मित कार्ले का चैत्य, अजन्ता की प्रसिद्ध 27 गुफाएं, एलोरा के उत्तरकालीन गुफा मन्दिर, जिसमें पांचवीं से आठवीं शताब्दी तक निर्मित कम से कम 64 गुफाए (अधिकांश हिन्दुओं की तथा कुछ बौद्धों की और कुछ जैनियों की हैं) आदि प्रमुख गुफाएं हैं। सभी गुफाओं का निर्माण चट्टानों को काटकर किया गया है।
अजन्ता में उत्कीर्ण चैत्यगृह और विहार वास्तु सम्बन्धी कला के उत्कृष्ट रूप हैं। इनमें चित्र, शिल्प और वास्तु विद्या सम्बन्धी दीर्घकालीन प्रयत्न व्यक्त हुआ है , जिसकी अवधि दूसरी शती ई. पू. से लगभग एक सहस्र वर्षों की है। अजंता में कुल 29 गुफाएं हैं, जिनमें चार चैत्यगृह और शेष 25 विहार गुफाएं हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र में नासिक, बेडसा, जुन्नार व कार्ले के चैत्य तथा कन्हेरी की गुफाएं विशेष उल्लेखनीय हैं।
कार्ले के चैत्यगृह के भीतर और बाहर कई लेख उत्कीर्ण हैं। दो लम्बे प्रदक्षिणापथ तथा दो ऊँचे चतुर्मुख दर्शन वाले स्तंभ या लाट, जिनके सिरे पर सिंह शीर्षक हैं, प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त पल्लवकालीन मामल्लपुरम के मन्दिर तथा मुंबई के समीप एलीफेंटा के गुफा मन्दिर प्रमुख हैं। इन गुफा मन्दिरों में प्रायः सभी निर्मितियां चट्टानों को काटकर उत्कीर्ण की गई हैं, यद्यपि प्रारंभिक नमूनों में काष्ठकला का प्रयोग हुआ है। इनमें उत्कृष्ट मूर्तिकला, सुन्दर चित्रकारी एवं अलंकरण हैं।
मन्दिर भारतीय स्थापत्य कला के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्मारक हैं। मन्दिरों के वास्तुशिल्प में परिवर्धन, मूर्ति पूजा तथा संबन्धित पूजार्चन कर्मकाण्ड के संस्थापन के बाद ही संभव हुआ। प्राचीनतम स्वतंत्र रूप से स्थित धार्मिक भवन, जिसके चिन्ह मिलते हैं, तीसरी शताब्दी ई.पू. में ईंटों व काष्ठ से निर्मित जयपुर के निकट बैराट में एक छोटा वृत्ताकार कक्ष है।
गुप्तकाल से पूर्व स्वतंत्ररूप से निर्मित हिन्दू मन्दिरों के कोई अवशेष नहीं हैं, यद्यपि इस काल तक उनका काष्ठ, मिट्टी तथा ईंटों से अवश्य ही निर्माण हुआ होगा। गुप्तकाल से मन्दिरों के अनेक उदाहरण विद्यमान हैं, विशेष रूप से पश्चिमी भारत में, जिनमें सबमें एक सी सामान्य शैली है। सामान्यतः स्तंभ अलंकृत होते थे जिनके शीर्ष भारी घण्टी के आकार के होते थे, जिनके ऊपर पशुओं की आकृतियां बनी रहती थीं और प्रवेशद्वारों पर पौराणिक दृश्य एवं आकृतियां खुदी रहती थीं।
समस्त गुप्कालीन मन्दिर छोटे थे और उनमें से अधिकतर की छतें समतल थीं। उनके ईंट और पत्थर के भवन बिना गारे के रुके हुए थे और उनमें प्रयुक्त ईंट पत्थर अपेक्षाकृत छोटे भवनों के लिए आवश्यक सामग्री से कहीं अधिक और मोटे थे। संभवतः छठी शताब्दी में निर्मित झांसी के निकट देवगढ़ का मन्दिर गुप्तकाल का सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है।
छठी शताब्दी से आज तक प्रचलित हिन्दू मन्दिर का आदर्श रूप प्राचीन यूनानी मन्दिरों के रूप से सिद्धांततः भिन्न न था। मन्दिर का मध्य भाग एक छोटा अंधकारपूर्ण पूजागृह या गर्भगृह होता था, जिसमें मुख्य मूर्ति स्थित रहती थी। यह एक विशाल कक्ष अथवा मण्डप में खुलता था।
विशाल कक्ष तक पहुंचने के लिए एक अर्धमण्डप से होकर जाना होता था। गर्भगृह के ऊर एक मीनार होती थी तथा भवन के अन्य भागों से छोटी छोटी मीनारें उठी रहती थीं। पूरा मन्दिर एक आयताकार आंगन में स्थित रहता था , जिसमें छोटे मन्दिर भी होते थे और प्रायः वह एक उठे हुए चबूतरे पर बना रहता था।
कश्मीर में यूनानी वास्तु से प्रभावित स्तंभ तथा विशिष्ट पिरामिड आकार की नुकीली वलभी छतों और मेहराबों का मध्ययुग में निरंतर उपयोग होता था। कश्मीर शैली लगभग गोथिक शैली सी प्रतीत होती है। कश्मीर के प्रारंभिक मन्दिरों में आठवीं शताब्दी का मार्तण्ड स्थित सूर्य मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
भूमि के आकार की दृष्टि से भारतीय मन्दिर की वास्तुकला विशेष रूप से एक समान है। मन्दिर स्थापत्य के क्षेत्र में उत्तर भारत में नागर शैली तथा दक्षिण भारत द्रविड़ शैली का विकास हुआ औरइन दोनों के मेल से बेसर शैली विकसित हुई। नागर शैली के मन्दिरों की पहचान आधार से लेकर सर्वोच्च अंश तक इसका चतुष्कोण होना है। विकसित नागर मन्दिर में गर्भगृह, उसके समक्ष क्रमशः अन्तराल, मण्डप तथा अर्द्धमण्डप प्राप्त होते हैं।
द्रविड़ शैली में मन्दिर का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह के ऊपर का भाग पिरामिडनुमा सीधा होता है, जिसमें अनेक मंजिलें होती हैं। इस शैली के मन्दिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये काफी ऊँचे तथा विशाल प्रांगण से घिरे होते हैं। बेसर शैली विन्यास में द्रविड़ शैली तथा रूप में नागर जैसी होती है। इस शैली के मन्दिर विन्ध्य पर्वतमाला से कृष्णा नदी के बीच निर्मित हैं।
छठी से आठवीं शताब्दी के बीच मन्दिर निर्माण को पल्लव तथा चालुक्य वंश के राजाओं का पर्याप्त संरक्षण प्राप्त हुआ। दोनों शैलियों से काष्ठकला तथा गुफा वास्तुकला से क्रमशः मुक्ति स्पष्ट दिखाई देती है। पल्लव शैली आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में निर्मित मामल्लपुरम के शोर मन्दिर तथा कांची के कैलाशनाथ मन्दिर में सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गई। 10 वीं से 12वीं शताब्दी के बीच चोल राजाओं के समय पल्लवों की शैली का और अधिक विकास हुआ।
10 वीं से 13 वीं शताब्दी तक उड़ीसा शैली प्रस्फुटित हुई, जिसमें पुरी का जगन्नाथ मन्दिर तथा कोणार्क का सूर्य मन्दिर प्रमुख हैं। इसी प्रकार 10वीं 12वीं शताब्दियों में बुन्देलखण्ड के चन्देल राजाओं के समय में निर्मित खजुराहो मन्दिर समूह है, जिसमें कण्डरिया महादेव मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है। कोणार्क व खजुराहो में मन्दिर वास्तु की अन्य विशेषताओं के साथसाथ अत्यधिक स्पष्ट श्रृगारिक चित्रण भी हुआ है।