भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के अनुसार कला के चार अंग माने गए हैं– 1-रस 2-अर्थ 3-छन्द 4-रूप ( काव्य के लिए रूप के स्थान पर शब्द का प्रयोग होता है।) भारतीय कला में इन सभी तत्वों का समावेश हुआ है। समस्त रसों के समावेश से Bhartiya Kala Ki Kalpana की गई है । रस कला की आत्मा है। यह वह अध्यात्म गुण है जिसमें रचना का स्थायी मूल्य निहित रहता है। मनुष्य के मन में जो अनेक प्रकार के भाव जन्म लेते हैं, उन्हें ही कला और काव्य द्वारा व्यक्त किया जाता है।
Imagination of indian art
मन में रस या तन्मयता की अनुभूति होने पर कवि या कलाकार उस अर्थ या विषय को चुनते हैं, जिसके द्वारा रस या भाव स्फुटित होते हैं। भारतीय कला की अर्थ संबन्धी विशेषता के अन्तर्गत विविध देव और देवियों का विस्तार है जो विश्व की दिव्य और भौतिक शक्तियों के प्रतीक हैं। इन देव-देवियों के विषय में वेदों और पुराणों में अनेक आख्यान आए हैं। उनका उद्देश्य ज्योति और तम, सत् और असत्, अमृत और मृत्यु के द्वन्द्व की व्याख्या करना है।
प्राचीन परिभाषा में इस द्वन्द्व को दैवासुरम कहा गया है अर्थात देवों और असुरों के शाश्वत संग्राम की परिकल्पना। बुद्ध, महावीर आदि महापुरुष और इन्द्र, शिव, विष्णु आदि देव प्रकाश और सत्य के प्रतीक हैं। इसके विपरीत वृत्र, मार, महिष, त्रिपुरासुर और तारकासुर असत् या अन्धकार के प्रतीक हैं।
भारतीय कला का सांस्कृतिक उद्देश्य जानने के लिए उसके अर्थ का परिचय आवश्यक है। अर्थ की जिज्ञासा हमें कला के प्रतीकात्मक स्वरूप के समक्ष ले जाती है, जैसे चक्र, पूर्णघट, स्वस्तिक, पद्म, श्रीलक्ष्मी, अष्टमंगल अथवा अष्टोत्तरशत मंगलचिन्ह एवं गरुड़, नाग, यक्ष आदि कला के प्रतीक द्वारा कलासंबन्धी अध्ययन में सहायक हैं।
भारतीय कला में अलंकरण
वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार ’’अलंकरण या साज-सज्जा के अभिप्राय तीन प्रकार के हैं- 1- रेखाकृति प्रधान 2- पत्रवल्लरी प्रधान और 3- ईहामृग या कल्पनाप्रसूत पशु-पक्षियों की आकृतियां। इन अभिप्रायों के मूल रूप प्राकृतिक जगत से लिए गए हैं, किन्तु कलाकारों ने अपनी कला के बल पर उन्हें अनेक रूपों में विकसित किया है। कहीं गौण आकृति के रूप में, कहीं प्रतिमा को चारों ओर से सुसज्जित करने के लिए, कहीं रिक्त स्थान को रूपाकृति से भर देने के लिए अलंकरणों का विधान किया गया है।
कलाकारों का उद्देश्य कला में सौन्दर्य की अभिवृद्धि है। किन्तु शोभा के अतिरिक्त अभिप्रायों के दो उद्देश्य और थे- एक तो मंगल के लिए, दूसरे विशेष अर्थों की अभिव्यक्ति के लिए। इन अलंकरणों को भारतीय परिभाषा में मांगल्य चिन्ह कहा गया है।
भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के अनुसार शून्य या रिक्त स्थान में असुरों का वास हो जाता है, किन्तु यदि आवास या देवगृह में मांगलिक चिन्ह लिखे जायँ तो देवी श्री उसकी रक्षा के लिए उस स्थान में अवतीर्ण होती हैं। स्वस्तिक, पूर्णघट या कमल के फूल को जब हम देखते हैं तो उनसे नाना प्रकार के मांगलिक अर्थ मन में भर जाते हैं।
उदाहरण के लिए एक गजचिन्ह इन्द्र के श्वेत ऐरावत का द्योतक है, अश्व उच्चैःश्रवा अश्व का प्रतीक है, जो समुद्रमंथन से उत्पन्न हुआ था और स्वर्गलोक का मांगलिक पशु है। सूर्य ही वह विराट अश्व है जो काल या संवत्सर के रूप में सबके जीवन में प्रविष्ट है। इस प्रकार भारतीय कला के सुन्दर अभिप्राय धर्म और संस्कृति की पृष्ठभूमि में सार्थक हैं।
गुप्त युग में पत्रलता की सरल और पेचीदा आकृतियां बनाने की बहुत प्रथा थी। उनके कई अच्छे नमूने धमेख स्तूप के आच्छादन शिलापट्टों पर सुरक्षित हैं। इसका मूल भाव यही था कि जो प्रकृति की विराट प्राणात्मक रचना पद्धति है, उसी के अंग-प्रत्यंग, पशु-पक्षी, वृक्ष और फल-फूल, यक्ष, वामन, कुब्जक, मनुष्य आदि हैं।
बाणभट्ट ने लिखा है कि रानी विलासवती के प्रसूतिगृह की भित्तियों को पत्रलता की मांगलिक आकृतियों से भर दिया गया था, जिन पर दृष्टि डालने से रानी के नेत्रों को सुख मिलता था और जिनके द्वारा आसुरी शून्यता से उसकी रक्षा होती थी।
गुप्तकालीन कला, शिल्प, चित्र और स्थापत्य इस प्रकार के अलंकरणों से बहुत भरे हुए हैं। कुषाणकाल की कला ईहामृग या विकट आकृति के पशुओं से भरी हुई है, क्योंकि इस प्रकार के ऐंठे गैंठे शरीर वाले पशुओं में शकों की स्वयं बहुत रुचि थी।