सरायकेला छऊ Saraykela Chhau का कलात्मक इतिहास रहस्य में डूबा हुआ है। अब तक ऐसे कोई भी पाठ, पांडुलिपि या उत्कीर्ण लेख नहीं मिल सके हैं जो इस के इतिहास पर प्रकाश डाल सकें। केवल थोड़े से पुरावशेष और कुछ लघु चित्र हैं जिनसे इस क्षेत्र की कविता, नृत्य नाटक या स्थापत्य की परंपरा की जानकारी मिलती है।
सरायकेला सिंहभूम जिले में है जो पहले ओड़िसा का एक भाग था। अब यह बिहार का एक भाग है। यह एक छोटी सी देसी रियासत थी जो सरंद और बंगरी पहाड़ों से घिरी हुई है। खटकेई नदी इससे होकर बहती है। इसके कारण इस क्षेत्र की भूमि उपजाऊ है और यहां पूरे वर्ष खेती हो सकती है । पुरुलिया की स्थिति इसके विपरीत है। यह एक बंजर और पथरीला प्रदेश है।
सरायकेला में छऊ महाकाव्यात्मक विषयवस्तु या मिथक, दंतकथा और कल्पनाशीलता का पूर्ण अभाव है । इसके विपरीत, सरायकेला छऊ का भंडार मिथकों और देव कथाओं, पौराणिक कथाओं, महाकाव्यात्मक विषयवस्तु और प्रतीकात्मकता से भरा हुआ है।
मयूरभंज, सरायकेला और पुरुलिया के तीनों रूपों के लिए प्रयुक्त ‘छऊ’ शब्द को लेकर कुछ वाद-विवाद भी होता रहा है । कुछ विद्वानों का मत है कि ‘छऊ’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘छाया’ शब्द से है । अनेक कलाकारों की यही धारणा थी जिनमें कला के राजा भी सम्मिलित हैं। अन्य विद्वानों ने इससे घोर असहमति प्रकट की है और उन्होंने अन्य उपाख्याएं प्रस्तुत की हैं।
एक व्याख्या के अनुसार ‘छऊ’ का संबंध संस्कृत शब्द ‘छद्म’ से जोड़ा गया है। एक और व्याख्या में बोलचाल की ओड़िआ भाषा के एक शब्द की ओर संकेत किया गया है जिसके अनुसार ‘छऊ’ शब्द का अर्थ कोई हथियार या छिपकर शिकार खेलना है। तीसरी व्याख्या के अनुसार ‘छऊ’ शब्द का संबंध ‘छावनी’ से जोड़ा गया है।
इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि तीनों प्रकार के छऊ नृत्यों में समाज के अनेक वर्गों की सहभागिता होती है यह स्वीकार करना युक्तियुक्त होगा कि छिपकर शिकार खेलना या आक्रमण करना ही ‘छऊ’ शब्द का सबसे अधिक उपयुक्त अर्थ है, यद्यपि ‘छद्म’ का अर्थ भी इसमें निहित है क्योंकि कम से कम दो छऊ रूपों में मुखौटे का उपयोग किया जाता है ।
छऊ में कर्मकांड की स्थिति नृत्य के पूर्वरंग की नहीं है, अपितु यह स्वयं में एक संपूर्ण उत्सव है। जिसे नृत्य कहा जाता है वह चैत्र मास में आयोजित 26 दिवसीय उत्सव के अंतिम तीन दिनों तक ही सीमित रहता है । मयूरभंज और सेराएकला दोनों पूरा समाज चैत्र पर्व के 26 दिन पूर्व इस उत्सव के आयोजन के लिए एकत्र होता है। इसका समापन वैशाखी के दिन होता है जिसका आयोजन 13 अप्रैल को किया जाता है । सेराएकला छऊ में तेली तमिली, खंद्र, कंसारी, पात्र, गुदिया, बनिया और बादिया आदि जातियां प्रारंभिक कर्मकांड में भाग लेती हैं ।
खंभा गाड़ने और जुलूस निकालने के चलन से किसी जनजातीय संस्कार विधि की विस्तृति का पता चलता है। किसान के लिए इस विधि संस्कार के कार्यात्मक पहलू का कृषि चंद्र से एक संबंध है। अन्यथा चैत्र मास में इस उत्सव का आयोजन क्यों किया जाता ? खंभा शिव अर्थात् शिवलिंग का प्रतीक बन जाता है । मयूरभंज और सरायकेला दोनों में कर्मकांड संबंधी मुख्य घटनाएं स्नानघाटों के इर्दगिर्द घूमती हैं।
पहले दिन एक जुलूस शिव मंदिर की ओर जाता है जहां एक प्रारंभिक आकृति कालिंगम होता है। जुलूस में उपर्युक्त सभी संप्रदायों के लोग सम्मिलित होते हैं। उत्सव काल के लिए उन्हें दीक्षित किया जाता है जिसमें परिणामस्वरूप वे ब्राह्मण या भगत (भक्त) हो जाते हैं। कुछ समय के लिए उनके जातिगत नाम भी बदल जाते हैं और वे शिव गोत्र के सदस्य बन जाते हैं।
भगतों का जुलूस राजकीय स्नानघाट, यज्ञघाट से आरंभ होता है। जुलूस का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति के हाथ में एक खंभा होता है जिसे ‘जर्जरा’ कहते है। मंदिर के बाद जुलूस महल में पहुंचता है और अंत में जुलूस एक पवित्रीकृत नृत्य स्थल पर पहुंचता है जिसे ‘आखडा’ कहते हैं।
अगली रात्रि को ‘यात्राघट’ का पहला कृत्य संपत्र किया जाता है । सर्वप्रथम भरा गया घड़ा जिसे मंगल या मंगलघट भी कहते हैं, शुभ घड़ा होता है जो उर्वरता और निरंतरता का प्रतीक होता है। यह बात स्मरण रखने योग्य है कि जो व्यक्ति इस शुभ घड़े को लेकर चलता है वह जाति से तेली होता है । घड़े की पूजा की जाती है और तब तेली घड़े को इस अवसर के लिए विशेष रूप से चुने गये एक अन्य व्यक्ति के सिर पर रख देता है । इसे ‘घटवालि’ कहते हैं। इसका शरीर पूरी तरह से सिंदूर में रंगा होता है। यह शरीर के निचले आ भाग में धोती पहने होता है । यह भी एक ऐसा अंतरण और ऐसी प्रतीकात्मक क्रिया है जिसमें अनेक अर्थ छिपे हुए हैं ।
उर्वरता और पूर्णता का प्रतीक ‘मंगल-घट’ ऐसे व्यक्ति के सिर पर रखा जाता है जो उस निश्चित समय में शक्ति का और इस नाते गति और क्रिया का प्रतीक होता है। ‘यात्राघट’ में भरे जल को शक्ति ही कहा जाता है। इस घड़े का वाहक स्वभावतया पवित्रीकृत हो जाता है और उसे शिव की आकृति में लीन हो जाना चाहिए ।
धीरे धीरे, ढोल और गति की आवाजों के बीच ‘घटवालि’ समाधि अवस्था में चला जाता है। प्रतीकात्मक रूप यह संयुक्ति का द्योतक है । ‘घटवालि’ इसी अवस्था में घड़े को मंदिर में शिवलिंग के ठीक पार्श्व में रख देता है । यह शिव और शक्ति का प्रतीकात्मक सम्मिलन है। इसके बाद जुलूस महल में लौटने लगता है। इस समय तक भगतगण उत्साह से भर जाते हैं और वे नाचने या जमीन पर लोटने लगते हैं। विधि संस्कार का यह अंश मयूरभंज के विधि संस्कार से बहुत भिन्न है जिसमें खंभे वाला विधि संस्कार बहुत व्यापक होता है और जिसमें पवित्रीकृत व्यक्ति खंभे पर लटका रहता है और नीचे आग जलती रहती है । सरायकेला का विधि संस्कार सीधा सादा है।
दूसरा संस्कार अगले दिनों में संपन्न किया जाता है और यह कृष्ण के चारों ओर घूमता है जिसे ‘वृंदावनी’ कहते हैं । लगता है कि यह संस्कार पहले ही अनेक प्रकार के सम्मिश्रण और संश्लेषण से गुजर चुका है क्योंकि वृंदावनी के अंतर्गत जो कुछ प्रदर्शित किया जाता है उसका वृंदावन से कुछ संबंध है । वास्तव में इसमें हनुमान की लंका विनाश की कहानी कही जाती है ।
एक और संस्कार जिसे ‘कालिकाघट’ कहते हैं, चौथे दिन संपन्न होता है। इसे ‘कामनाघट’ भी कहा जाता है और इसका संबंध सृष्टि के तीसरे पक्ष अर्थात् कामना और उसके अंततः विनाश से है । इस बार शिवलिंग के पास घड़ा ले जाने वाला व्यक्ति लाल वस्त्र के स्थान पर काले वस्त्र पहने रहता है । घड़ा भी यात्राघट या मंगलघट की तरह अलंकृत नहीं होता। इसके अतिरिक्त इस घड़े को शिवलिंग के पास ही गाड़ देने की रीति भी है और इसे अगले वर्ष ही इसी समय पर निकाला जा सकता है ।
प्रतीकात्मक रूप से यह घटना एक और चक्र के समापन की सूचक है क्योंकि बाहर एक भगत प्रकटतया मरा पड़ा दिखाई देता है जो राजा या किसी अन्य व्यक्ति के स्पर्श करने से ही पुनः जीवित हो सकता है । उस रात्रि को और ‘कामनाघट’ की रात्रि को कोई प्रस्तुति नहीं होती । इन सब संस्कारों के संपन्न हो जाने और प्रस्तुति के लिए नृत्य स्थल का पवित्रीकरण होने के पश्चात् ही नृत्य आरंभ होता है ।
अन्य छऊ रूपों की भांति सरायकेला छऊ को प्रस्तुति भी व्यायाम की एक समुन्नत और सुविकसित पद्धति पर आधारित है । इसे ‘परिखंडा’ कहा जाता है और इसका अभ्यास योद्धा वर्गों द्वारा नदी तल पर इस कार्य के लिए नियत स्थल पर तड़के ही किया जाता है। संपूर्ण गति स्वरूप तलवार और ढाल के खेल (परिखंडा) से उद्भूत हुआ है। इसके फलस्वरूप अंग चालन की ऐसी पद्धति विकसित हुई है जिसमें अन्य नृत्य शैलियों की भांति मुख और हाथ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बनते, अपितु शरीर के अंग अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं ।
अन्य दो छऊ की भांति सरायकेला छऊ में भी ऐसी शारीरिक स्थितियों और भंगिमाओं, चाल और नृत्य गति की निश्चित पद्धति का अनुसरण किया जाता है जो अनेक मूल क्रियाओं और भंगिमाओं के योग से उत्पन्न होती हैं । यद्यपि प्रथम दृष्टि में गति स्वरूप का नियंत्रण करने वाली आधारभूत भंगिमाओं को देख पाना कठिन है, किंतु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर प्रकट होगा कि नर्तक त्रिभंग के हेरफेर से गति का निर्माण कर रहा है।
मयूरभंज छऊ और पुरुलिया छऊ दोनों में ‘चौक’ अर्थात् मंडल स्थान की स्थिति का अनेक प्रकार से उपयोग किया जाता है । सरायकेला छऊ में इसका अस्तित्व नहीं है। कूल्हों और निम्न अंगों की गति की तुलना में धड़ की गति प्रायः सर्पिल होती है । अग्र चित्र का स्थान तीन चौथाई भाग या पार्श्व भाग ग्रहण कर लेता है। यह एक विकर्ण गति द्वारा संभव होता है जिसमें शरीर बल-सा खा जाता है।
अतः कंधे सदा ही एक तिरछी रेखा बनाते हैं, बहुधा विकर्णत: आगे पीछे या ऊपर नीचे । ये मूलभूत मुद्राएं और बाहुओं की एक निश्चित स्थिति, जिसमें एक हाथ तलवार पकड़ने के अंदाज में ऊपर उठा होता और दूसरा हाथ ढाल पकड़ने के अंदाज में कमर पर टिका होता है, नृत्य शैली को उसकी गत्यात्मक अभिव्यंजकता प्रदान करती है।
प्रथम तीन चालियों के लिए आगे पीछे, आ रही या अदली (विकर्ण) जैसे सरल शब्द हैं। इसके बाद की तीन चालियां अंग संचालन के स्वरूप और पद्धति की द्योतक हैं अर्थात् अंग संचालन सीधा है या वक्र है अथवा सर्पिल है। इस प्रकार गोमूत्र चालि वक्र गति की द्योतक है, जो एक पुष्प विन्यास है। इसी प्रकार सुर चालि तरंग श्रृंग और समुद्र की तरंगों के स्थूल विन्यास की सूचक है।
ये प्राथमिक चालियां तब इकाइयों में विकसित हो जाती हैं जिन्हें ‘टोपका’ कहा जाता है। इनकी तुलना भारतनाट्यम और अन्य शास्त्रीय नृत्य शैलियों की प्राथमिक लय इकाइयों से की जा सकती है। टोपका वर्णनात्मक या अनुकरणात्मक होने के साथ साथ गतिपथ या गतिस्वरूप का भी सूचक है।
बहुत अंशों में सरायकेला छऊ के टोपका को नाट्यशास्त्र और अभिनयदर्पण की ‘गति’ के समतुल्य माना जा सकता है। नौ टोपकों में से पांच पशुओं और पक्षियों की चाल या गति के सूचक हैं – (क) बाघ घुमका (बाघ की छलांग), (ख) बाघ गति (बाघ की चाल), (ग) हस्ति गति, (घ) मयूर गति, (ङ) हंस गति । दो टोपकों का संबंध सुर, असुर से है — (च) सुर गति, (छ) कंस गति । अंतिम दो टोपकों का संबंध गति की प्रकृति से है । ये सागर गति और झुमक (झूलने की गति ) ।
टोपका की इन प्राथमिक गतियों से दूसरी आधारभूत इकाई विकसित हुई है जिसे ‘उफली’ कहते हैं और जो संस्कृत उपल का पर्याय है । मयूरभंज छऊ की भांति उफली का उद्भव दैनिक जीवन की क्रियाओं से हुआ है। यह एक रोचक तथ्य है कि दोनों शैलियों में गोबर सानने और फैलाने तथा उससे मिट्टी का फर्श तैयार करने की क्रियाओं पर अधिक ध्यान दिया गया है। इन दैनिक क्रियाओं का संकेत देने तथा जटिल विन्यास निष्पन्न करने के लिए पूरी टांग का उपयोग किया जाता है। इस श्रेणी के उफली समूह हैं गोबरगोला, गुटिकुड, चदचिओं और झूटी दिआ । अन्य श्रेणी की उफलियां कृषि संबंधी क्रियाओं और अनाज इकट्ठा करने की क्रिया से संबंधित हैं।
इनमें से धान के इर्दगिर्द घूमने वाली गतियां सबसे, अधिक महत्वपूर्ण हैं । दो उफलियों का नामकरण और गति विन्यास इन पर ही आधारित है। ये हैं- धानकटु तथा कुला पाछुडा (फटकना)। अन्य का संबंध झाड़ी काटने और बांस को चीरकर दो भाग करने की क्रियाओं का संकेत देने से है । घरेलू कामकाज और अपना साज संवार अन्य श्रेणी की उफलियों का विषय है।
यह स्मरण रखना चाहिए कि ये विन्यास निचले अंगों के संचालन से विकसित होते हैं और पूरी टांग या केवल पिंडली की सहायता से इन्हें आगे बढ़ाया जाता है । इन क्रियाओं या विचारों का संकेत देने के लिए हस्ताभिनय से काम नहीं लिया जाता जब कि हस्ताभिनय अन्य नृत्य शैलियों की प्रमुख विशेषता है। गोबर, उसे सानने आदि से संबंधित उफलियों में पंजे को सदा ही आगे विस्तृत किया जाता है और घुटनों को कमर तक उठाया जाता है। यह स्थिति नाट्यशास्त्र की ‘चारि’ गति का स्मरण कराती है, विशेषकर अपक्रांत, अतिक्रांत और स्वास्तिक का ।
टांग की विस्तृति भी सुस्पष्ट है और इनमें से अनेक उफलियों की अंतिम परिणति जिस स्थिति में होती है उसे ‘आलिढ’ या ‘प्रत्यालिढ’ के रूप में पहचाना जा सकता है। ये दोनों मुद्राएं रंगमंच पर लड़ाई या तलवार-ढाल के खेल का अभिनय करने वालों के लिए सुझाई गयी हैं। इनके अतिरिक्त टांग का विस्तारण भी होता है और विस्तारित टांग को ऊपर भी उठाया जाता है जैसा कि ‘हरिण दिन’ में या बाघ को पानी पीते दिखाते समय (बाघ पाणिखिआ) किया जाता है।
सरायकेला और मयूरभंज छऊ में टांग का यह विस्तारण नाट्यशास्त्र वृश्चिककरण का परिवर्तित रूप है । टोपका, उफली तथा मूल चालि परस्पर मिलकर गति की लय की सृष्टि करते हैं जिसे ‘भंगी’ कहते हैं। छऊ के संदर्भ में भंगी का जो अर्थ है यह ओडिसी में प्रयुक्त भंगी शब्द के अर्थ से भिन्न है । इस अंतर को हमें ध्यानपूर्वक समझ लेना चाहिए। छऊ में भंगी एक गति की लय है जबकि शास्त्रीय नृत्य में, विशेषकर ओडिसी में यह एक आधारभूत मुद्रा है। ऐसा लगता है कि किसी बिंदु पर चालि और भंगी शब्दों के अर्थ एक-दूसरे से बदल गये हैं ।
अंग संचालन की यह व्यवस्था तब एक निश्चित लय या तालक्रम या संगीत के साथ जोड़ दी जाती है। सरायकेला छऊ में जिन तालों का व्यवहार होता है वे सामान्य तीन ताल से लेकर मात्राओं वाली धमार पद्धति तक के हो सकते हैं। ढोल पर बोल वादन होता है और प्रत्येक चोट तक विशेष बोल की सूचक होती है। एक साथ चार प्रकार के ढोल बजाये जाते हैं जिन्हें ढोल, धुम्सा और टिका या नगाड़ा कहा जाता है। मयूरभंज छऊ की भांति ही यहां भी एक प्रकार की शहनाई का प्रयोग होता है। जिसे ‘महुर’ कहते हैं। अब कभी कभी हारमोनियम का उपयोग भी किया जाता है। वृंद वाद्य को बढ़ाया भी जा सकता है और घंटा तथा करताल उसमें सम्मिलित किये जा सकते हैं। रणसिंह और नरसिंह जैसे सुषिर वाद्य भी बहुधा इसमें जोड़ लिये जाते हैं ।
सरायकेला छऊ के विषय भंडार में महाकाव्यात्मक विषयों से लेकर विशुद्ध गीतात्मक स्वर समूह तक सम्मिलित हैं । इन स्वर समूहों में किसी न किसी स्तर पर काव्य वस्तु भी रही होगी। पुरुलिया और मयूरभंज दोनों छऊ नाटकीय तत्व के लिए महाकाव्यों पर आश्रित हैं। सरायकेला छऊ भी इन स्रोतों का उपयोग करता है, किंतु उसने अपने विषय क्षेत्र का विस्तार कर लिया है और प्रकृति तथा पशु पक्षियों से संबंधित विषय तथा भारतीय मिथकों और किंवदंतियों पर आधारित विशुद्ध निर्वचनात्मक और प्रतीकात्मक विषय उसमें आ गये हैं ।
महाकाव्यों और पुराणों से लिये गये विषयों से संबंधित स्वर समूहों में महिषमर्दिनी, दुर्योधन उरु भंग, हर पार्वती, ऋष्य भृंग, चंद्रभागा आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें से प्रत्येक यथार्थ चित्रण से अधिक सांकेतिक अभिव्यक्ति का द्योतक है। निष्पादन में जिस संयम का परिचय दिया जाता है और विषय विकास जिस मंद और क्रमिक गति से होता है वह पुरुलिया छऊ की नाटकीय शक्ति के एकदम विपरीत है। प्रकृति और पशु पक्षियों से संबंधित स्वर समूहों में मयूर नृत्य, सर्प नृत्य, प्रजापति नृत्य, सागर नृत्य आदि उल्लेखनीय हैं।