Homeलोक नाट्यMayurbhanj Chhau मयूरभंज छऊ

Mayurbhanj Chhau मयूरभंज छऊ

सरायकेला छऊ के समानांतर ही मयूरभंज छऊ Mayurbhanj Chhau का विकास हुआ है। नृत्य नाटक की किस श्रेणी में इसकी गणना की जाये, इस प्रश्न को लेकर यहां भी अनेक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। निस्संदेह इससे भारत की प्रदर्शनकारी कलाओं की जटिल स्थिति का पता चलता है । एक स्तर पर तो नृत्य नाटक को जनजातीय कलारूप कहा जाता है । दूसरे स्तर पर, हमें इसके भीतर भारत की महाकाव्यात्मक परंपरा के अनेक तत्व मिल जाते हैं और इस प्रकार यह विधा ऐसे अनेक तत्वों से संपत्र दिखाई देती है जो भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा का अंग हैं और जहां तक नृत्य शिल्प का संबंध है इसमें अंग संचालन की ऐसी शैलीकृत योजना है जो परिष्कृत और अमूर्त है।

मयूरभंज छऊ ओड़िसा के दक्षिण-पूर्वी भाग का नृत्य है। मयूरभंज राज्य से मिले हुए सरायकेला और पुरुलिया के राज्य हैं जो अब क्रमशः बिहार और बंगाल का भाग हैं। इस क्षेत्र में भिन्न भिन्न प्रकार की जनजातियां हैं। बिहार और मध्यप्रदेश की अनेक जनजातियों और इनके बीच अनेक समानताएं हैं।

इस क्षेत्र की अनेक जनजातियां स्थान बदल बदल कर खेती करती हैं और कुछ जनजातियां खेती में कृषि उपकरणों का उपयोग करती हैं। अनेक अनुनय संस्कार इन जनजातियों में समान रूप से दृष्टिगत होते हैं और विशेषतः कृषकों में ऐसे संस्कार प्रचलित हैं जो उर्वरता के प्रतीक के रूप में एक खंभे के प्रतिष्ठापन के इर्दगिर्द घूमते हैं। हो और उरांव जनजातियों के अनेक नृत्य उनके वास्तविक आवास क्षेत्र से दूर के किसी स्थल पर होते हैं। यहां ‘झूम’ (स्थान बदलकर खेती करना) के संस्कार आरंभ करने से पहले ही खंभा प्रतिष्ठापित कर दिया जाता है।

मयूरभंज छऊ का नृत्य जो जनसमुदाय करता है उस पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से प्रकट होगा कि यद्यपि यह नृत्य एक ग्राम संस्कृति की अभिव्यक्ति है, तथापि इसमें ऐसे अनेक तत्व आ गये हैं जो विशुद्ध रूप से जनजातीय हैं। हम ऐसे एक दो तत्वों

को पहचान सकते हैं । जिन वर्गों के लोग यह नृत्य करते हैं वे प्रायः वे वर्ग हैं जिन्हें भारत में पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। उनमें नट, भांड, भूमिया, पाइक आदि वर्ग सम्मिलित हैं।

मयूरभंज छऊ की प्रस्तुति उपर्युक्त वर्गों से आने वाले पुरोहितों द्वारा की जाती है। इस तथ्य से भारतीय समाज के विभिन्न स्तरों की पारस्परिक क्रिया और प्रभाव का संकेत मिल जाता है । इन स्तरों में जनजातियों से लेकर ग्रामीण जातियों और उच्च जातियों तक सम्मिलित हैं ।

मयूरभंज छऊ नृत्य के लिए दो अवसर उपयुक्त माने जाते हैं – एक दशहरा के आसपास का समय (इसका प्रचलन पिछले कुछ वर्षों हुआ है और दूसरा चैत्र पर्व — हमारे प्रयोजन के लिए यह दूसरा अवसर ही महत्वपूर्ण है। हम जानते हैं कि फसल की कटाई के उत्सव के रूप में चैत्र पर्व भारत भर में मनाया जाता है। यहां क्रिया के दो स्तर हमें दिखाई देते हैं जो साथ साथ चलते हैं । एक जनजातीय वर्गों के संस्कारों से संबद्ध है जो स्थान बदलकर की जाने वाली खेती के अवसर पर संपन्न किये जाते हैं और दूसरा खेत की फसल की कटाई के अवसर पर सम्पन्न  किये जाने वाले संस्कारों और उत्सवों से जुड़ा हुआ है ।

इन दो स्तरों के साथ साथ एक तीसरा स्तर ऊपर से जुड़ गया है, क्योंकि संप्रति संस्कार में शिव पूजा सम्मिलित हो गयी है । यह बात ध्यान देने योग्य है कि उत्सव काल में किसी भी प्रकार का प्रतिमा पूजन नहीं होता। खंभे को ही शिव मान लिया जाता है। शिव के उपासक भक्त कहे जाते हैं। इन्हें भगत भी कह दिया जाता है जो ‘भक्त’ शब्द का ही विकृत रूप है । सरायकेला की तरह ही यहां भी भगत के रूप में नामित व्यक्ति उत्सव काल के लिए अपना गोत्र बदल लेते हैं। वे शिव- गोत्र में आ जाते हैं।

चैत्र पर्व के उत्सव से 15 दिन पूर्व संस्कार संबंधी तपश्चर्या के अभ्यास के लिए उपयुक्त व्यक्ति चुन लिये जाते हैं । वे व्रत रखते हैं, अंबिका देवी के मंदिर जाते हैं और तब पवित्रीकृत स्थान पर शिव पूजा के लिए जाते हैं। क्या ये सब दक्षिण भारत के कावादी और कर्गम नृत्यों का स्मरण नहीं कराते है ? संस्कार का समापन ‘पट’ रीतियों होता है जो चैत्र संक्राति से पूर्व के अंतिम चार दिनों में आयोजित की जाती हैं। भक्त कोई साधारण व्यक्ति नहीं होते । दीक्षा के उपरांत उन्हें आग पर चलने के कृत्य का प्रदर्शन करना पड़ता है। जिसे ‘निओ पट’ कहते हैं।

वे एक और कृत्य का प्रदर्शन भी करते हैं जिसमें भक्त का पैर खंभे से बांध कर उसे उलटा लटका देते हैं और उसके नीचे दहकती हुई आग जलती रहती है। इसे ‘झूला पट’ कहते हैं। अंत में वह बाहुओं के सहारे लटका रहता है जबकि खंभा अंग्रेजी अक्षर ‘टी’ के आकार की एक संरचना पर घूमकर एक चक्कर पूरा कर लेता है। कांटों पर चलने का भी प्रदर्शन किया जाता है। ये तथा अन्य आयोजन चैत्र मास के 26वें दिन ही होते हैं जब जल का घड़ा लाया जाता है और उत्सव के समारंभ की घोषणा कर दी जाती है ।

मिट्टी का घड़ा सिंदूर से रंगा हुआ और मंत्रों द्वारा पवित्रीकृत होता है । घट या घड़ा महाशक्ति का प्रतीक होता है और उसे ‘जात्रा घट’ कहते हैं।

नृत्य उत्सव से पहले संपन्न किये जाने वाले इन संस्कारों के महत्व और अर्थवत्ता के विषय में चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता । यहां प्राचीन संस्कारों, उर्वरता संस्कार और देवी देवताओं की पूजा का सम्मिश्रण दृष्टिगत होता है । जिस नृत्य रूप के उद्भव की यह पृष्ठभूमि हो उसे शास्त्रीय नहीं कहा जा सकता। परंतु क्या इस पृष्ठभूमि के आधार पर उसे लोक नृत्य की संज्ञा दी जा सकती है ?

इस स्तर पर इस प्रश्न का उत्तर देना शायद संभव नहीं है। पहले हम स्वयं नृत्य पर ही विचार करें। स्थूल रूप से चैत्र मास के अंतिम तीन दिनों में आयोजित उत्सव के प्रथम दिन छऊ नर्तक उस क्षेत्र की ओर नहीं जाते जहां संस्कार संपन्न किया जाता है अपितु वे भैरव के मंदिर में पहुंचते हैं। नर्तकों के शिक्षक गुरु नहीं कहे जाते, अपितु उन्हें ‘उस्ताद’ कहा जाता है । स्पष्ट है कि यहां कुछ समन्वय हुआ है । उस्ताद और संगीतकार भैरव के उपासक हैं और उस तिथि को वे नये नर्तकों की दीक्षा भी आरंभ करते हैं।

प्रत्येक नर्तक की दाहिनी कलाई में एक लाल धागा बांध कर दीक्षा आरंभ की जाती है । उस्तादों और संगीतकारों को पारंपरिक भारतीय रंगमंच पहनने के लिए नयी धोतियां दी जाती हैं। प्रारंभिक कार्यवाही के समाप्त होने पर एकत्रित सभी लोग प्रणाम नृत्य करते हैं। इस नृत्य का एक विशेष पहलू यह है कि इस अवसर पर जंगली सेब की पत्तियां और फूल नर्तकों के अभ्यास स्थल की मिट्टी के साथ मिलाकर अर्पित किये जाते हैं। ये सब वस्तुएं एक लाल कपड़े में बांधकर 19वीं शताब्दी के बने हुए एक रंगपीठ के भीतर रख दी जाती हैं। प्रत्येक नर्तक इन वस्तुओं को जो सबसे पहले भगवान भैरव को अर्पित की गयी थीं, प्रणाम करता है ।

उत्सव के अंत में आधी रात के समय एक और घड़ा लाकर रखा जाता है जिसे ‘निशा घट’ या कभी कभी ‘कामना घट’ भी कहते हैं । अनेक रूप से यह घड़ा भी शक्ति का प्रतीक है। नृत्य से संबद्ध एक और संस्कार सूर्य देव को समर्पित एक नृत्य है जिसका आयोजन विशेष रूप से इस उद्देश्य से किया जाता है। इसकी प्रस्तुति उत्सव काल में ही किसी समय होती है । इस प्रकार की पूजा का प्रचलन अनेक जनजातियों और गांवों में और साथ ही ओड़िसा के ऊंची जाति के सुसंस्कृत ब्राह्मणों में भी समान रूप से है।

यह कलारूप विशुद्ध रूप से देशी है जो कथित परंपराओं पर आश्रित है। परंतु कलिंग राज्य और उसके अधीन अन्य प्रदेशों के इतिहास पर सूक्ष्म दृष्टि डालने से पता लगेगा कि इस क्षेत्र में एक विकसित सैनिक परंपरा थी और यहां बहुत बड़ी संख्या में पाइक कहे जाने वाले योद्धा रखे जाते थे। हमें ऐसे नृत्य प्रदर्शनों की जानकारी है जिनका आयोजन इस क्षेत्र में होता था और इन्हें ही संभवतया मानसिंह की बंगाल और ओड़िसा की यात्रा के समय छऊ कहा जाता था।

मूर्तिकला की परंपरा से भी इसकी पुष्टि होती है। क्योंकि कलाकृतियों में युद्ध, ढाल और तलवार के खेल तथा करतब के असंख्य दृश्य अंकित हुए हैं। इनमें खंडगिरि और उदयगिरि की गुफाओं के उभारदार चित्रों से लेकर भुवनेश्वर और कोणार्क तक के मध्ययुगीन स्मारक सम्मिलित हैं। बहुत आगे चलकर 17वीं, 18वीं और 19वीं शताब्दी में हमें ओड़िसा की मरगोल या पटचित्र परंपरा विकसित होती दिखाई देती है। इन चित्रों का मुख्य विषय कृष्ण से संबंधित है, किंतु रामायण और महाभारत प्रसंग भी दृष्टिगत होते हैं।

मयूरभंज छऊ की अनेक विशिष्ट भंगिमाओं और मुद्राओं का इन उभारदार चित्रों तथा पटचित्रों में प्रदर्शित मुद्राओं और भंगिमाओं से बहुत अधिक साम्य है। मूर्तिकला और चित्रकला के इस साक्ष्य से प्रकट होगा कि मयूरभंज के छऊ नर्तक मानव आकृति को कला के सांचे में ढालने के उन सिद्धांतों से अनभिज्ञ नहीं थे जिनकी जानकारी इस महान परंपरा के मूर्तिकारों को थी।

विषयवस्तु की दृष्टि से भी मयूरभंज में महाभारत और रामायण के प्रसंग तथा शिव और कृष्ण से संबंधित नृत्य सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त ऐसे नृत्य भी हैं जिनका संबंध केवल सैनिक अभ्यास से है । इनमें अस्त्रदंड जैसे स्वर समूह सम्मिलित हैं। उक्त विषयों के अतिरिक्त अन्य विषय भी है जो दैनंदिन जीवन से संबंधित हैं जैसे शिकारी के नृत्य और खंभे, रस्सी तथा हंडिया की सहायता से किये जाने वाले करतब नृत्य ।

नृत्य के अवसर, विषय और उसकी भंगिमाएं और मुद्राएं यह सिद्ध करती हैं कि मयूरभंज छऊ का सरायकेला और पुरुलिया के क्षेत्रों में प्रचलित नृत्यों से अवश्य संबंध रहा है। इनसे यह भी प्रकट होता है कि मयूरभंज छऊ पर विकास के अनेक क्षणों की छाप है। इनसे भारत के अन्य नृत्य नाटक रूपों, विशेषकर ओड़िसा और बंगाल के यात्रा से भी मयूरभंज छउ का संबंध प्रमाणित हो जाता है।

नृत्य का समारंभ ‘रंगबाजा’ के साथ होता है । यह परदे के पीछे होता है। यह मूलत: संगीत के माध्यम से संपन्न की जाने वाली आह्वान क्रिया है जो कथकलि के पूर्वपाद तथा पूर्वरंग का स्मरण कराता है। इसके पश्चात वाद्य वृंद द्वारा एक धुन बजायी जाती है जिसके उपरांत विभिन्न पात्र रंगमंच पर प्रकट होते हैं। इस अवस्था को ‘चालि’ कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है चलना ।

पात्र अपने विभिन्न चरणों अर्थात् मुद्राओं में प्रकट होते हैं। सेराएकला और पुरुलिया छऊ के विपरीत यहां मुखौटों के बिना ही पात्र अपनी विशेष मुद्राओं और चालों से पहचान लिये जाते हैं। रंगबाजा के बाद और नाटक के आरंभ से पूर्व दो पात्र प्रवेश करते हैं जिन्हें ‘काजि – पाजि’ कहते हैं। दोनों के बीच होने वाला संवाद जो कथोपकथन, स्वांग और अंग चालन का सम्मिश्रण होता है ‘विदूषक प्रणालिका’ कहा जाता है। यह प्रसंग भी हमें संस्कृत रंगमंच के नट-नटी, सूत्रधार और नटी तथा अन्य नाट्य रूपों के विदूषक का स्मरण कराता है।

अपने विशिष्ट चरणों में पात्रों के प्रवेश करने के बाद ‘नाच’ आरंभ होता है। ‘नाच’ शब्द नृत्य से बना है । इस अंश में विषय प्रवेश होता है, किंतु अधिक नाटकीय व्यापार नहीं होता और न ही कथा का अधिक विकास होता है। नृत्य शैली की नृत्य वस्तु अधिकांशतः नृत्य के इसी खंड में मिलती है । ‘नाटकी’ चरम अवस्था है, जिसकी प्रस्तुति त्वरित गति से की जाती है और इसी स्तर पर नाटकीय क्रिया – कलाप उच्च बिंदु पर पहुंचता है।

यद्यपि कुछ शाब्दिक अंश भी रहता है, तथा साहित्य का अंश अत्यल्प और न्यूनतम है। नृत्य नाटक की प्रस्तुति मुख्यतः ‘महूरि’ (एक प्रकार की शहनाई) और तेउल (तांत वाला एक वाद्य) तथा अनेक प्रकार के वाद्यों जैसे ढोल, चाडितिअडि (एक छोटा गोल ढोल जो दो पतली छड़ियों से बजाया जाता है), नगाड़े और घुमसा (कटोरे के आकार का एक छोटा ढोल जो दो भोतरी और भारी छड़ियों से बजाया जाता है) की संगति के सहारे की जाती है । ढोल अन्य आघात वाद्यों का नेतृत्व करता है।

स्वर माधुर्य की सृष्टि महूरि और तेडल द्वारा तथा कभी कभी बांसुरी द्वारा भी की जाती है। इन वाद्यों द्वारा बजायी गयी धुनों का लोक गीतों और ओडिसी गीतों की धुनों के साथ बहुत साम्य है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की कुछ राग रागिनियां भी इनमें मिल जायेंगी। मयूरभंज कलाकारों के अनुसार इनमें 36 रागिनियां है। परंतु इनमें शब्द, स्वर या मूल ताल के साथ समकालिक होने की बात नहीं है जैसा कि शास्त्रीय संगीत में होता है ।

यहां गाई या बजायी गयी धुनों, ताल और नर्तक की चेष्टाओं के बीच एक सामान्य प्रकार का संबंध ही होता है । फिर भी आघात वाद्यों के वादन में बहुत जटिलता दृष्टिगत होती है। तालों और बोलों की एक निश्चित योजना रहती है जिनकी व्याख्या और प्रस्तुति नर्तक द्वारा की जाती है। ढोल और चडचडि की लययुक्त ध्वनियों के बीच सुर संगति भी होती है ।

सरायकेला छऊ की भांति ही स्वयं नृत्य को तोड़कर टोपका, उफली और भंगी में अलग अलग किया जा सकता है। भारतीय नृत्य की अन्य शास्त्रीय शैलियों की भांति ही मयूरभंज छऊ का आरंभ दो मूलभूत मुद्राओं या भंगिमाओं से होता है । इन भंगिमाओं का अत्यधिक विशिष्ट स्वरूप है, किंतु परिष्कृत ओडिसी नृत्य की मुद्राओं से बहुत मिलती जुलती  है।

अनेक उफलियों के नाम ओड़िआ गृहिणी के कार्यों पर आधारित हैं – वह किस प्रकार मिट्टी के घर के फर्श को लीपती और अलंकृत करती है। इसमें ‘गोबर- कूड़ा’ (फर्श से गोबर उठाना), ‘गोबलगोला’ (पानी में गोबर मिलाना), ‘चददिय’ (गोबर के मिश्रण को आंगन में फैलाना), ‘चिंचरा’ (जमीन को खुरचना), ‘खर्का’ (फर्श को बुहारना) और ‘झंटिदिआ’ (चावल की लेई से फर्श को अलंकृत करना जैसे अल्पना से) शामिल हैं।

अन्य उफलियों के नाम घर के कामकाज पर आधारित हैं, जैसे- ‘बासन माजा’ (बरतन साफ करना), ‘हलदि बटा’ (पत्थर की सिल पर हल्दी पीसना), ‘धान कुटन’ (धान कूटना) और ‘धान पाछुडा’ (भूसी-मिले चावल को फटकना) । कुछ का संबंध श्रृंगार से है जैसे- ‘गाधुआ’ (शरीर पर पानी डालना), ‘माथाझडा’ (स्नान के बाद तौलिए से झटके दे देकर लंबे केश सुखाना), ‘मुंहपोंछा’ (तौलिए से मुंह पोंछना), ‘सिंताफदा’ (कंघी से मांग निकालना), ‘सिंदूर पिंधा’ (माथे पर सिंदूर की बिंदी लगाना), ‘भूतिया मजा’ (अंगूठा साफ करना), ‘उधुनी छता’ (ओढ़नी या दुपट्टे के दोनों छोरों को कंधों पर रखना), ‘चल्क’ (मुग्ध होकर चलना) और ‘थमका’ (मस्ती में चलना)। कुछ ‘कंटक’ (कांटेदार झाड़ियों को साफ करना) और ‘बाउंसचिरा’ (बांस के दो भाग करना) जैसी क्रियाओं से संबद्ध हैं।

कुछ सैनिक क्रिया के भी सूचक हैं, जैसे- ‘अंतेमोदा’ (पेट को रौंदकर हत्या करना),‘खंडाहण’ (इसे कभी कभी जिताहण भी कहते हैं; अर्थ है तलवार से हत्या करना), ‘हाब्स’ (किसी भारी औजार से मार डालना) और ‘उसकाजंका’ (ऊपर उठाना और फिर कठोरता से दबाना) ।

उफलियां का एक वर्ग पशुओं की गति से संबद्ध है, जैसे- ‘हरिण दिआं’ (हिरण की छलांग भरी चाल), ‘शौल दिआं’ (मछली का पानी में से उछलना), ‘बग टोपका’ (बगुले का लुक छिप कर पीछा करना), ‘बग माछ खोजा’ (बगुले का मछली की तलाश करना), ‘मंकड चिति’ (बंदर का कलाबाजी खाना), ‘हनुमान पाणि खिआ’ (बंदर का पानी पीना), बाघ पाणि खिआ’ (बाघ का पानी पीना), ‘चिंगडि चितिक’ (पानी के बाहर निकाले जाने पर झींगा मछली का फड़कना) तथा ‘छेलि दिआं’ (बकरी का उछलना) ।

इन उफलियों के वर्गीकरण से स्पष्ट होगा कि इनमें कृषि संबंधी क्रियाओं, नित्य चर्या, सैनिक अभ्यास और पशुओं की गति आदि का समावेश किया जा सकता है । इनके अतिरिक्त एक वर्ग का संबंध मनुष्य की चाल और कुछ भावों से भी है। कलात्मकता की दृष्टि से इनमें मात्र चित्रण से लेकर अमूर्तन तक के विभिन्न स्तर दिखाई देते हैं। अंग संचालन की दृष्टि से इनका विश्लेषण किया जाये तो पता चलेगा कि ये उफलियां नाट्यशास्त्र में वर्णित चारि, बौमि और अकाषकि, कुछ स्थानों (जैसे, मंडल स्थान) और करणों की शुंडाकार श्रेणी (जिनका उल्लेख नाट्यशास्त्र में वृश्चिककरण के रूप में हुआ है) का स्मरण कराती है। अंतिम दो बहुत महत्वपूर्ण और मयूरभंज छऊ की विशिष्टता हैं ।

मयूरभंज छऊ में भारत की किसी भी अन्य नृत्य शैली की अपेक्षा अंग संचालन के इस स्वरूप को अधिक महत्व दिया गया है और इसमें उसने एक ऐसी शास्त्रीय निपुणता प्राप्त कर ली है जो उसकी अपनी ही विशिष्टता है। शास्त्रीय शब्दावली का प्रयोग किये बिना ही इस नृत्य शैली ने उच्च स्तर की शास्त्रीयता के अनेक तत्व आत्मसात कर लिये हैं ।

इस नृत्य शैली का विषय भंडार भी अद्भुत है। इसमें शिकार खेलने और मछली पकड़ने के साधारण विषयों जैसे ‘शबर टोका’ (शिकारी) नृत्यों में से लेकर पशु संबंधी नृत्य जैसे जम्बुवन नृत्य या प्रकृति संबंधी नृत्य जैसे ‘मलिफुल’ या देवता संबंधी नृत्य जैसे पवनपुत्र हनुमान, नटराज और परशुराम सम्मिलित हैं। हिंदू मिथक और पौराणिक प्रसंग भी नृत्य नाटकों में समान रूप से अभिव्यक्त हुए हैं, जैसे- ‘तामुडिय कृष्ण’, ‘गरुड़ वाहन’, ‘कैलाश’, ‘समुद्रमंथन’, ‘अहल्या उद्धार’ और ‘गीता उपदेश’ । प्रस्तुति सदा ही दो वर्गों द्वारा की जाती है, अर्थात् उत्तर साही और दक्षिण साही द्वारा ।

इस परंपरा को उस्तादों ने जीवित रखा है। उस्तादों की वंश परंपरा 200 वर्ष या और अधिक पुरानी मानी जा सकती | कलाओं के प्रश्रयदाता राजाओं की वंश परंपरा का भी कई पीढ़ियों तक निर्देश किया जा सकता है।

इस प्रकार मयूरभंज छऊ में हमें एक जटिल प्रक्रिया के दर्शन होते हैं जिसमें जनजातीय ग्रामीण और नगरीय संस्कृति, मार्गी और देशी, नाट्यधर्मी और लोकधर्मी सबने मिलकर एक नयी विधा का निर्माण किया है। बीते हुए इतिहास के कितने ही क्षण और संस्कृति के संक्रमण तथा स्वांगीकरण के कितने ही उदाहरण इसमें मिल जायेंगे। इस संक्षिप्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जायेगा कि यद्यपि सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से यह एक शास्त्रीय रूप है । साहित्य को छोड़कर शास्त्रीयता के सभी मानदंडों की अपेक्षाएं यह पूरी करता है ।

बुंदेलखंड का रहस 

admin
adminhttps://bundeliijhalak.com
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!