चंदेल-काल में यह जनपद समृद्धि और संस्कृति की ऊँचाई पर प्रतिष्ठित रहा, इसलिए Chandel Kalin Lokachar की युगानुरूप गतिशीलता, दृढ़ता और परिवर्तनशीलता दिखाई पड़ती है। मुसलमानों के आक्रमणों और आक्रमणकारियों की संस्कृति के प्रभाव से लोकाचारों में काफी परिवर्तन हुए, जिससे उनकी गतिशीलता का पता चलता है।
समाज में कछुआ की तरह सिकुड़ने और कठोर पीठ को ढाल बना लेने की प्रवृत्ति ने लोकाचार की रक्षा के लिए रूढ़िवादिता को जन्म दिया, जो संरक्षण की प्रतीक बनी। इस तरह इस युग में संरक्षण और परिवर्तन, दोनों दिशाएँ महत्वपूर्ण सिद्ध हुईं।
पहली दिशा संरक्षण और सुरक्षा की है, जिसके लिए नये धार्मिक ग्रंथों ने धार्मिक लोकाचार का फैलाव किया और उनमें कट्टरता ला दी। संस्कार और कर्मकाण्ड बहुत बढ़ गये। व्रतों-उपवासों और नैमित्तिक संस्कारों एवं क्रियाओं की संख्या इतनी अधिक हो गयी कि आदमी की दिनचर्या ही धर्मोन्मुखी बन गयी। अलबेरूनी ने कश्मीर और पंजाब में प्रचलित उपवासों और उत्सव के दिनों की सूची दी है ।
(मध्ययुगीन भारत, भाग 3, चि.वि, वैद्य, सं. 1985, पृ. 682)। घर-गाँव और नगर में मूर्ति-पूजा बढ़ गयी थी, मंदिरों का निर्माण होने लगा था और हर वर्ग में निर्माण की होड़ लग गयी थी। मूर्ति एवं मंदिर बनवाने और दान देने वाले को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। दोनों प्रथाएँ रूढ़ हो गयीं थीं और दोनों में अनेक रीतियाँ जुड़ने लगी थीं। वर्जनाएँ तो उनसे चिपटी रहती हैं।
विविध धर्मों में विविध रीतियाँ थीं और कुछ विशिष्ट कार्य धर्म से जोड़ दिये गए थे। उदाहरण के लिए, कृषिकर्म से संबंधित पहले एक लोकोत्सव-“कृषिवर्ष” होता था, फिर वह ’अक्षय तृतीया‘ (अकती) के रूप में त्यौहार बन गया। इसी तरह उपयोगी तिथियाँ महत्वपूर्ण कार्यों से संबद्ध होकर त्यौहार बन गयी थीं। इस तरह हर कार्य धर्म से संबद्ध होने लग गया था, ताकि उसकी निरंतरता कायम रहे और उपयोगिता दुही जाती रहे।
आत्महत्या को पाप और सती होने को पुण्य की तरह समझा जाता था (प्रबोध चंद्रोदय, अंक 5, पृ. 185 एवं रूपकषटकम् (समुद्र.), पृ. 183)। एक शिलालेख के अनुसार चंदेलनरेश धंग ने गंगा-यमुना के संगम में अपना जीर्ण शरीर विसर्जित किया था (ई. आई., भाग 1, पु. 146, श्लोक 55)।
जीवित जल में डूबना या अग्नि में प्रवेश करना, दोनों रीतियाँ प्रचलन में थीं। लौकिक रीतियों में विवाह संस्कार-संबंधी रीतियों का अंकन वत्सराजकृत “रूपकषटकम्” में हुआ है। वधू पक्ष की ओर से प्रस्ताव, पूर्व मांगलिक कृत्य, वर एवं वधू पक्ष की ओर से अपने-अपने संबंधियों को बुलाने हेतु दूत भेजना, मुहूर्त देखकर वर-यात्रा, विवाह में आये व्यक्तियों को ठहराना और वधू पक्ष की ओर से स्वागत-सत्कार, वर के आने पर मंगलाचार, बरात की अगवानी, मंगल कौतुक कार्य, कन्यादान, दहेज सौंपना आदि रीतियों से विवाह की पूरी पद्धति और लोकाचार स्पष्ट हो जाते हैं।
रूपकषटकम्, वत्सराज, पृ. 190, 157, 51, 53, 49, 50, 63, 58, 64, 59, 62-65, 190)। नारी से संबंधित कुछ प्रथाओं और रीतियों में परिवर्तन और कुछ का नवोदय इस युग के लोकाचार की विशेषता है। पहले अपनी जाति से बाहर विवाह करने की प्रथा थी, जो इस युग में बंद हो गयी और विवाह अपनी जाति तक सीमित हो गया। दूसरे, बालविवाह की प्रथा विशेष रूप में शुरू हो गयी थी, ताकि कन्या की रक्षा का भार पुरुष उठा सके।
इतिहासकार अलबेरूनी ने लिखा है कि ’हिन्दुओं में विवाह छोटी उम्र में ही हो जाया करते हैं, इसलिए वधू-वरों का चुनाव उनके माता-पिता ही करते हैं (सचाऊ, भागर 2 अ. 19, पृ. 155)। ’आल्हा‘ की गाथाओं में किसी अल्पवयस्का के विवाह का संकेत नहीं मिलता, फिर भी आक्रमणकारियों के भय से उत्तर चंदेलकाल में इस प्रथा का प्रचलन असंभव नहीं है। ’रूपकषटकम्‘ में पर्दा प्रथा का संकेत मिलता है (पृ. 59)। नारियाँ उत्सवों और समारोहों को झरोखों से देखती थीं।
अंतःपुर में परपुरुष का प्रवेश वर्जित था (पृ.155-160)। कुलवधुएँ जेठों के समक्ष वार्तालाप नहीं करती थीं (पृ. 62)। इन वर्जनाओं से भी पर्दा प्रथा की पुष्टि होती है। रूपकषटकम्‘ में बहुविवाह और सती प्रथा के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। (पृ. 56, 183)। डा. ए.एस. अल्तेकर का कथन है कि सती प्रथा का प्रचार जनसाधारण में नहीं था, केवल राजवंशों तक सीमित था।
असल में, सती प्रथा का फैलाव युद्ध में विजयी आक्रमणकारी की संदिग्ध क्रियाओं की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। यही कारण है कि इस जनपद में भी 13 वीं शती के उत्तरार्द्ध में सती-स्तम्भों की प्रथा का प्रसार दिखाई पड़ता है। (दि अर्ली रूलर्स आफ खजुराहो, डा. एस.के. मित्र, 1977 ई., पृ. 138-140)। कन्या-वध की प्रथा शुरू होने का भी यही कारण था।
कुछ प्रमुख प्रथाओं और रीतिरिवाजों में चंदेलयुग के घरेलू लोकाचार के दर्शन होते हैं। उदाहरण के लिए, स्त्रियों के रजस्वला होने पर चार दिन अस्पृश्य रहना, शिशु का तीसरे वर्ष में मुण्डन और सातवें-आठवें वर्ष में कन्छेदन संस्कार करना, शव को जलाने और सूतक मनाने तथा श्राद्ध करने के संस्कार, बच्चे के जन्म पर भी सूतक मानना, अतिथि-सत्कार, खुशी के अवसरों पर बधाई देना, खेत में बिजूका बनाकर खड़ा करना, आश्रयदाता की प्रशस्ति करना, प्रस्थान करते समय मांगलिक होम करना, कन्या का अपहरण, भिक्षाटन आदि (मध्ययुगीन भारत, भाग 3, चि.वि.वैद्य, पृ. 611।
प्रबोध चंद्रोदय- श्री कृष्ण मिश्र, पृ. 57-59। रूपकषटकम्- वत्सराज, पृ. 128, 34, 18, 63, 50, 38)। इसी प्रकार कुछ वर्जनाएँ भी प्रचलित थीं, जैसे अनुलोम-असवर्ण विवाह एवं जाति के बाहर विवाह, अस्पृश्यों की छाया, दूसरा धर्म अपनाने पर अशुद्ध हुए लोगों की शुद्धि, पत्नी का अन्य से संबंध् रखना, मांस-भक्षण एवं मद्यपान आदि।
पुराणों में कथाओं के माध्यम से निषेधों का संकेत अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ था और उससे भ्रष्ट आचारों का अप्रत्यक्ष उपचार संभव बना था। पुराणों में वर्जित कर्म करने वालों के लिए प्रायश्चित्त करने का विधान भी है। अस्पृश्यों को छूने और उनका छुआ जल पीने या भोजन करने, गाय और ब्राह्मण की हत्या करने, श्राद्ध में मांस देने पर न खाने, म्लेच्छों द्वारा छीनी गयी स्त्रियों की शुद्धि न करने, गोमांस-भक्षण, शिखा काटने या कटवाने, व्यभिचार करने आदि पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्तों को समाज को समाज की आचारसंहिता में मान्य करवाकर इन ग्रंथों ने महत्कार्य किया था।