चंदेल काल बुंदेलखंड में वसंतोत्सव राजकीय और सामाजिक दोनों रूपों में मनाया जाता था। कुमारपाल प्रबंध में Chandel Kalin Vasantotsav धूलिपर्वोत्सव से स्पष्ट है कि वसंतोत्सव बड़े बिस्तार के साथ चलता था। बसंत पंचमी से होली तक लगभग सवा महीने तक यह उत्सव मनाया जाता है। आज भी इस बुंदेलखंड में माघ कृष्ण चौथ को तिल गणेश यानि बड़े गणेश पर्व से फाग गीतों गायन प्रारम्भ हो जाता है और रंगपंचमी तक चलता रहता है।
बुंदेलखंड में फाग गीतों का गायन लगभग दो माह तक बराबर होता रहता है। दोहे के आधार पर बनी साखी उस नाथपंथी, सिद्ध और योगी की देन है, जिसने साक्ष्य के लिए दोहे को साखी बना दिया। वह साखी इतनी प्रचलित हुई कि लोक ने अपनी फागों, गाथाओं आदि में उस विधा को प्रमुख स्थान दिया। दोहे की साखी को सबसे अधिक अहीरों, गड़रियों जैसे पशुपालक, चारागाही जातियों ने अपनाया ।
उन्हें चरागाही टेर के लिए साखी उपयोगी लगी। दिवारी गीत में-साखी के बाद वाद्यों की ध्वनि एक पंक्ति बनाती है। फागकारों ने शब्दों की एक पंक्ति खड़ी कर दी और उसे सखयाऊ फाग बना दिया। इस प्रकार सखयाऊ फाग का उद्भव हुआ है। कहीं-कहीं उसे होरी की साख कहा जाता है।
दोहे को साखी बनाने से छंद का बंधन उतना नहीं होता और दुम या तीसरी कड़ी में मात्राओं का कोई नियम नहीं है। कुछ सखयाऊ फागों में दुम गीत की टेक बन गयी है और उसमें दो या दो से अधिक साखियों को स्थान मिला है। दुम और टेक में कौन पहले आया, यह खोज का विषय है।
वर्तमान में सखयाऊ फागों का प्रचलन समाप्त सा है, लेकिन सखयाऊ फाग से ही कई लोकगीतों का विकास हुआ है। पहले सखयाऊ फाग का वह रूप बना, जिसमें एक साक्षी और एक दुम या लटकनिया थी। उसका यह स्वरूप भी दोहे और एक कड़ी के लोकगीत के संयोग से बना है।
बाद में दोहे की अर्द्धालियों में मनमोहाना और पिया अड़ घोलाना की तुकें जोड़कर डफ या डहका की फागें बनायी गयीं, जिन्हें एक विशिष्ट गायन-शैली में ढाल दिया गया। ये फागें डफ लोकवाद्य के साथ गायी जाने के कारण उसी के नाम पर उनका प्रचलन हो गया। दोहे के आधार पर ही राई गीत विकसित हुआ है।
सखयाऊ फाग की दुम या लटकन को जब टेक की तरह प्रयुक्त किया गया और दोहे को अन्तरा की तरह संयोजित किया गया तब राई का जन्म हुआ। कहीं-कहीं केवल टेक के प्रथम अर्द्धांश को दुहरा कर शेषांक दूसरे चरण में गाने का रिवाज है और उसी को राई कहा जाता है। इसी गीत के साथ बेड़िनी नृत्य करती है।
राई संस्कृत के रागी (रागिन्) शब्द से उत्पन्न हुआ हैं प्राकृतकोश में राई की उत्पत्ति रागिन् से की गई है। रागी का अर्थ है रागयुक्त अथवा रंजन करने वाला और राई में दोनों अर्थ निहित हैं। बुंदेलखण्ड में राई-दामोदर से राधा-कृष्ण का बोध होता है, इस रूप में वह राधिका से आया जान पड़ता है।