Isuri Ke Kataksh ईसुरी के कटाक्ष

Bundelkhand के महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri ने फागों के माध्यम से समाज की कुप्रथाओं और उनके कुपरिणामों पर प्रकाश डालते हुए चिंतक की भूमिका निभाई है। Isuri Ke Kataksh जनमानस के लिये हमेशा प्रेरणा रहे हैं।

बुन्देलखंड के महाकवि ईसुरी के कटाक्ष

सैयां ऐंगर तनक ना आवैं, बाहर भग-भग जावैं।
हम अपनी सूनी सिजिया पै, जोबन मीड़त रावें।
पारे कौन यार कौं संग में, की खों गरे लगावैं।
भर गओ मदन बदन के ऊपर,किसविधि तपन बुझावैं।
ईसुर इन बारे बालम की, कालों दसा बतावें।

हम धन कबै मायके जायें, जे बालम मर जाएं।
खेलत रात रोज लरकन में, परे रात मौ बायें।
दिन बूडे़ से करत बिछौना, फिर ना जगत जगाएं।
देखी कांछ खोलकर मैंने, पौनी सी चिपुकाएं।
ईसुर कात भली थी क्वांरी, का भओ ब्याव कराएं।

लड़की अपने पति के बारे में कहती है कि ससुराल का जाना तो बेकार ही रहा है। मेरा पति तो बच्चा है, उसे शादी-विवाह, पति-पत्नी, रति प्रसंग आदि का ज्ञान ही नहीं है। वह तो लड़कों के साथ खेलता फिरता है और घर आकर थका-मांदा सो जाता है। मैंने कई बार जगाने की कोशिश की तो वह जगता ही नहीं है, उठता ही नहीं है।

उलाहना देती है कि उसका शारीरिक विकास हुआ ही नहीं है और न ही वह वैवाहिक जीवन का मतलब जानता है। ऐसे विवाह से तो मैं क्वांरी ही भली थी। जब लड़की ससुराल जाती है और उसका पति उससे समुचित प्यार नहीं करता तो उसे ससुराल में रहना एक दिन के लिए भी अच्छा नहीं लगता है। वह चाहती है कि कैसे और कब उसे मायके जाने को मिल जाय। वह अपनी सहेली से कहती है।

सुख ना कछू सासरे गए कौ, सैंयां नैयां कये कौ।
रस ना लयो रसीले प्यारे,तन सुन्दर जी नये कौ।
स्वाद कछू है नइयां गुइयां, नर देही के लए कौ।
अब पछतावो होत ईसुरी, का करिए जर गए कौ।

महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri ने बाल विवाह की कुप्रथा के कुपरिणामों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि ऐसे रिश्ते निभाने पर भी नहीं निभ पाते हैं। शादी सम्बन्ध विखण्डित हो जाते हैं। इस तरह की शादियाँ टूट जाती हैं। लड़कियाँ पति को छोड़कर भाग आती है। कई बार तो आत्महत्या जैसी घटनाएँ घट जाती हैं। या परिवार के बदचलन लोग उसकी मजबूरी का नाजायज उपयोग कर दुष्चरित्र पर उतर जाते हैं। इन परिस्थितियों को उकेर कर ईसुरी ने सच्चे सचेतक की भूमिका निभाई है।

जौ जी ऐसे खां दओ जैहै, जी घर सुख में रैहै।
बीस बिसे बिसराए नाईं, खबर बखत पै लैहै।
सुने बात मोरे जियरा की, अपने जी की कैहै।
इतनउ भौत होत है ईसुर, मरे जिऐ पछतैहै।

पुरुष प्रधान समाज में पुरुष द्वारा बहुविवाह किए जाने की कुप्रथा प्राचीन काल से प्रचलन में रही है। यह एक ऐसी बुराई है जो मानव समाज की अस्मिता पर कलंक का धब्बा है। पुरुष समाज स्त्री को पतिव्रता होने की इच्छा रखता है और स्वयं बहुपत्नियों से रमण। यह पुरुष वर्ग की बर्बरता का प्रतीक है।

प्राचीन काल में राजा-महाराजा, दीवान, जम़ीदार कई पत्नियाँ रखते थे, किन्तु उनकी उन पत्नियों को पर्दे में कैद रहना पड़ता था। मनुष्य का यह दोहरा चरित्र समाज द्वारा कैसे स्वीकार्य रहा। सौतिया डाह के किस्से और दुष्परिणामों के अनेक दास्तान सभी के जाने-माने हैं। नारी की सबसे बड़ी पीड़ा यही होती है कि उसका पति उसे छोड़कर किसी दूसरी नारी से प्यार करे, उसे तड़पती छोड़कर किसी अन्य नारी से रति बिहार करे।

सैंया बिसा सौत के लाने-अंगिया ल्याए उमाने।
ऐसे और बनक के रेजा, अब ई हाट बिकाने।
उनने करी दूसरी दुलहिन, जौ जी कैसे माने।
उठै पैर दौरे हो कड़ने, प्रान हमारे खाने।
मयके से ना निगते ईसुर, जो हम ऐसी जाने।

ओई घर जाओ मुरलिया वाले, जहां रात रए प्यारे।
अब आबे को काम तुमारो, का है भवन हमारे?
हेरे बाट मुनइयां हुइए, करैं नैन कजरारे।
खासी सेज लगा महलन में, दियला धर उजियारे।
भोर भए आ गए ईसुरी, जरे पै फोरा पारे।

पुरुष समाज की बर्बरता का वह दृश्य तब सबसे भयातीत एवं निन्दनीय हो जाता है, जब अधेड़ से भी अधिक उम्र पार किया पुरुष अपनी बेटी से भी कम उम्र की लड़की से विवाह कर लेता है। वह अबोध बालिका जिसके शरीर का विकास भी नहीं हुआ होता है और कामी पुरुष उससे रति विहार करने पर अमांदा होता है।

जुबना छुऔ न मोरे कसकें, भरे नहीं रंग रसकें।
छाती के छाती से लगतन, और बैठ जैं गसकें।
छूतन रोम-रोम भए ठांडे़, प्राण छूट जै मसके।
कछुक दिनन की मानों ईसुर, फिर मस्कवाले कसके।

चरित्रहीन कामी पुरुष को ये सीखें कहाँ अच्छी लगती हैं। वे अंधे रहते हैं। महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri तो सामाजिक चेतना के कवि हैं, उन्होंने जो देखा-सोचा-समझा और कह दिया। वे दुष्कर्मी पति की पत्नी की पीड़ा की अपनी फाग के माध्यम से व्यक्त करते हुए कहते हैं।

रातै परदेशी संग सोई, छोड़ गओ निरमोई।
अँसुआ ढरक परे गालन पै, जुबन भींज गए दोई।
गोरे तन की चोली भींजी, दो-दो बार निचोई।
ईसुर परी सेज के ऊपर, हिलक-हिलक कैं रोई।

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महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  की फागों में नारी की पीड़ा का सजीव चित्रण देखने को मिलता है। वे पुरुष की बेहयाई को दर्शाते हुए कहते हैं।
बेला आदी रात को फूला, घर नई है दिल दूला।
अपनी छोड़ और की कलियन, भलौ भंवर ला भूला।
जो गजरा की खां पैराऊं, उठत करेजे सूला।
छूटन लागी पुहुप परागें, दृगन कन्हैया झूला।
ईसुर सुनत डगर घर आवें, नगर देत रमतूला ।

हर औरत की इच्छा रहती है कि उसका पति उसका हो कर रहे, उससे प्यार करे, उसके सुख-दुःख में साथ निभाए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। नारी की पीड़ा का चित्रण कर महाकवि ईसुरी ने कहा है।

कऔ जू किए लगै ना प्यारे, सखि अपने घरवारे।
ज्वान होंय चाय बूडे़ बैसे, चाय होंय गबवारे।
बडे़ सपूत खेत के जीते, चाय होंय रन हारे।
ईसुर करे गरे कौ कठला, हम खां बालम प्यारे।

किन्तु जब पति उसे छोड़कर दूसरी औरत के मोहपाश में हो तो फिर नारी को सहन नहीं होता। महाकवि ईसुरी  ने इस पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा है।
भौंरा जात पराये बागैं तनक लाज ना लागै।
घर की कली कौन कम फूली, काये न लेत परागै।
कैसे जात लगाउत हुइयै, और आंग से आंगै।
जूठी-जाठी पातर ईसुर, भावै कूकर कागै।

बेमेल शादियों के कई दुष्परिणाम सामने आते हैं। जब पुरुष जवान या अधेड़ होता है, तब छोटी उम्र की अबोध बालिका से विवाह करने से उस बालिका के साथ अन्याय होता है और जब तक वह अपने यौवन पर आती है, तब पुरुष बुढ़ापे की ओर बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में नारी के साथ दोनो स्थितियों में अन्याय होता है।

जब वह रति विहार योग्य नहीं होती है तो उसके साथ ज्यादती होती है और जब उसे काम सुख की जरूरत होती है, तब पुरूष उसे वह सुख देने में समर्थ नहीं रह जाता है। ईसुरी ने समाज की इन दशाओं-दिशाओं का बड़ी गइराई में जाकर अध्ययन किया और फिर इन कुरीतियों के विरोध में जनजागृति लाने के लिए महाकवि ईसुरी  ने अपनी फागों के माध्यम से जनमानस को सचेत किया।

अपने बालम के संग सोवे, भाग्यवान जो होवे।

लेत जात गालन को चूमा, जुबना जरब टटोवे।
लगी रात छतियों से छतियां, पाव से पांव विदोवो।
पकरे हाथ उंगरियां ठांड़ी, परे मजे मा घोवे ।
परे खुलासा घर में ईसुर, दिये नगारे चोवे।

बेमेल शादियों के दुष्परिणामों की व्यथा युवती किससे कहे। सारी-सारी रात बिस्तर पर करवटें बदलते गुजरती है और पति खाँस-खाँस कर। महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  ने ऐसी युवतियों की पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा है…।

की से कहे पीति की रीति, कये सें होत अनीति।
मरम ना जाने ई बातन को, को मानत परतीती।
सही ना जात मिलन को हारी, बिछुरन जात न जीती।
साजी बुरी लई सिर ऊपर, भई जो भाग बदी ती।
पर बीती नहिं कहत ईसुरी, कात जो हम पै बीती।

जुबना जिय पर हरन जमुरिया, भये ज्वानी की बिरिया।
अब इनके भीतर से लागी, झिरन दूध की झिरिया।
फौरन चले पताल तरैया, फोरन लगे पसुरिया।
छैल छबीलो छुअन ना देती, वे छाती की तिरिया।
जै कोरे मिड़वा कें ईसुर, तनक गम्म खा हिरिया।

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पुरुष जवानी के नशे में दो-दो विवाह कर लेता है। कई बार पहली पत्नी के संतान नहीं होती है तो दूसरी धर लेता है। कभी-कभी चरित्रहीनता भी मजबूरी बन जाती है। किसी दूसरी अनब्याही या विधवा औरत से काम पूर्ति के चक्कर में पड़ने से उसके पेट में बच्चा आ जाने से भी शादी करनी पड़ जाती है। इन परिस्थितियों में आदमी बड़ी उलझन में फँस जाता है। दोनों औरतें कलह करतीं है और आदमी बीच में पिसता है। महाकवि ईसुरी  ने ऐसे लोगों को चेतावनी देने के लिए ये फाग कही…।

जो घर सौत-सौत के मारें, सौंज बने ना न्यारें।
गारी गुप्ता भीतर करतीं, लगो तमासौ द्वारें।
अपनी-अपनी कोद खां झीकें, खसम कौ फारें डारें।
सके न देख दोउ लड़ती हैं, किये संग लै पारें।
एक म्यान में कैसे पटतीं, ईसुर दो तलवारें।

इन परिस्थितियों में आदमी के हाथ केवल पश्चाताप लगता है। वह सिर धुनता है, रोता-चिल्लाता है, किन्तु ‘अब पछताए होत का जब चिडिया चुग गई खेत।’ इन्हीं विपरीत स्थितियों को देखकर महाकवि ईसुरी  ने लोगों को सचेत करते हुए कहते हैं।

जिदना तुम से कीनी यारी, गई मत भूल हमारी।
भये बरबाद अफाज कहाए, स्यान बिगार अनारी।
मो गओ लौट जान के खाई, खांड़ के धोखे खारी।
पीछू-पीछू हाथ बजाकें, हँसी करत संसारी।
अपने हातन अपने ईसुर, पांव कुलरिया मारी।

महाकवि ईसुरी की जिन फागों में अश्लीलता का लांछन लगाया जाता है, जबकि ये सभी शाश्वत सत्यता का उदघोष हैं, संचेतना का आगाज हैं। ईसुरी ग्रामीण जनता के प्रतिनिधि कवि हैं। वे ग्रामीण जीवन में जो विरोधाभाश देखते रहे उसे बतौर समझाइस लोगों को फागों के माध्यम से सचेत करते रहे हैं।

भौहों को नचाना, आँखों को मटकाना, रस भरी बातें करना, लाज से शरमाकर अपने आप में सिमट जाना और हँस देना, बांकी अदा से मटक-मटक कर चलना, ये सब स्त्रियोचित गुण है। जिस पुरुष पर ये हथियार चल जाते हैं, वह अपने होशो-हवास गवां देता है। ईसुरी ने स्त्रियों के इन्हीं गुणों को अपनी फागों में लेकर लोगों को इन हथियारों से बचने की सीख दी है।

रजऊ हँसती नजर परे सें, नेहा बिना करे सें।
हम तौ मन खौं मारें बैठे, बरके रात अरे सें।
सांसऊं जिदना जिद आ जैहै, बचै न एक धरे सें।
ईसुर मिलौ प्रान मिल जैहैं, कै बन आय मरे सें।

रजऊ नज़र मिलते ही हँसती है, भले ही हमसे प्रेम न करती हो। हम तो अब तक अपना मन मारे बैठे हैं। परन्तु जिस दिन जिद आ गई तो वह कैसे बचेगी? वह मिले तो प्राण मिल जाय या फिर अब मरकर ही बात बने।

कईयक हो गए छैल दिवाने, रजऊ तुमारे लाने।
भोर-भोर नौं डरे खोर में, घर के जान सियाने।
दोउ जोर कुआं पै ठांड़े, जब तुम जाती पाने।
गुनकर करके गुनिया हारे, का बैरिन से कानें।
ईसुर कात खोल दो प्यारी,मंत्र तुमारे लाने।

सुन्दरता की तारीफ सुनकर प्रसन्न होना नारी की कमजोरी है। पुरुष उसकी इस कमजोरी का फायदा उठाकर उसको बहकाने का प्रयास करता है। वे बड़े भाग्यशाली लोग हैं, जिनकी नारियाँ संयमी हैं और पर पुरुषों के द्वारा प्रशंसा करने से लुभाती नहीं है, लेकिन बिरली हीं होती हैं ।

जुबना दए राम ने तोरें, सब कोउ आवत दोरें।
आए नहीं खाण्ड के घुल्ला, पिए लेत ना घोरें।
का भओ जात हाथ के फेरें, लए लेत न टोरें।
पंछी पिए घटीं नहिं जातीं, ईसुर समुद हिलौरें।

भगवान ने तुझे ऐसा यौवन दिया है कि सब कोई तेरे दरवाजे के चक्कर काटते हैं। पर ये जुबना शक्कर के घोड़े जैसे बने खिलौने नहीं है कि कोई घोलकर पी जायेगा। इन पर हाथ फेर लेने से तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा। जिस तरह पंछियों के पानी पीने से समुद्र खाली नहीं हो जाता है, उसी तरह यदि तुम अपने जुबनों पर हाथ फेर लेने दोगी, तो इनका कुछ भी नहीं बिगड़ जायेगा।

राती बातन में बरकाएं, दबती नइयां छाएं।
आउन कातीं आईं नइयां, कातीं थी हम आएं।
किरिया करीं सामने परकंे, कौल हजारन खायं।
इतनी नन्नी रजऊ ईसुरी, बूढ़न कौं भरमाएं।

इस फाग के माध्यम से पुरुषों द्वारा नारियों को बहकाने वाली चेष्ठाओं का वर्णन कर ईसुरी ने सचेत करने की बात कही है, तो वह अशलील कहाँ से हो गई। पुरुष नारी की सहृदयता, उसकी सहजता को अपनी रसीली बातों से कुरेदकर आकर्षित करने का प्रयास करता है बहुत कम ऐसी नारियाँ होती हैं, जो उनकी प्रशंसा पूर्ण बातों के जाल से अपने आपको बचाए रख पाती हैं।

दिन भर दैबू करे दिखाई, जामें मन भरजाई।
लागी रहो पौर की चैखट, समझें रहो अवाई।
इन नैनन भर तुम्हें ना देखे, हमें न आवे राई।
प्रीति की रीति सहज ना ईसुर, आखन नहीं निवाई ।

तुम हमें दिन-रात दिखाई देती रहा करो, जिससे हमारा मन भरा रहे। तुम पौर की चैखट से लगकर खड़ी रहा करो, ताकि हमारा आना तुम्हें मालूम हो जाए। क्योंकि जब तक इन नयनों से हम तुम्हें देख नहीं लेते, हमें चैन नहीं पड़ता है। यह प्रीति बड़ी कठिन होती है, इसे करना तो आसान है, लेकिन निर्वाह करना बड़ा कठिन है। जब पुरुष द्वारा किसी नारी से ऐसा कहा जाता है तो उसका आकर्षित होना स्वाभविक है। महाकवि ईसुरी ने इन बातों से सतर्क रहने की चेतावनी दी है।

महाकवि ईसुरी की फागों को लोगों ने अन्यथा लिया है। इसी कारण से वे सब उनके प्रति दुराभाव पाल बैठे, जिनकी बेटियों-बहुओं और पत्नियों के नाम रज्जो, रजऊ या इन्हीं जैसे थे। वस्तुतः ईसुरी तो अपनी काल्पनिक नायिका रजऊ को संबोधित कर फागें कहते थे और उनमें सदैव सीख रहती थी कि लोग तरह-तरह की लुभावनी बातें कर- करके बहलाने का प्रयास करते हैं, तुम्हें उनसे बचकर रहना है। किन्तु लोगों कि ऐसी सोच है कि वे उन्हें बतौर नायक और उनकी काल्पनिक नायिका रजऊ को अपनी बेटी- बहू-पत्नी को समझ बैठे और ईसुरी पर आलोचनाओं के तीर छोड़ने लगे। उनकी ऐसी कुछ फागें उल्लेखनीय हैं, जिनसे ये भ्रामक स्थितियाँ उत्पन्न हुई है।

दिल की राम हमारी जाने, मित्र झूठ ना माने।
हम तुम लाल बतात जात ते, आज रात बर्राने।
सा परतीत आज भई बातें, सपनन काए दिखाने।
ना हो-हो तो देख लेत हैं, फूले नई समाने।
भौत दिनन से मोरो ईसुर, तुमें लगो दिल चानें।

तुम खां छोड़न नाहि बिचारें, मरवो लौ अख्त्यारें।
जब न हती कछू कर धर कीं, रए गरे में डारें।
अब को छोडे़ देत प्रान से, प्यारी भई हमारें।
लगियो ना भरमाय काउ के, रइओ सुरत समारें।
ईसुर चाय तूमारे पाछूं, घलें सीस तरवारें।

सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation

संदर्भ-
ईसुरी की फागें- घनश्याम कश्यप
बुंदेली के महाकवि- डॉ मोहन आनंद
ईसुरी का फाग साहित्य – डॉक्टर लोकेंद्र नगर
ईसुरी की फागें- कृष्णा नन्द गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

admin
adminhttps://bundeliijhalak.com
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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