बुन्देलखंड में व्रतकथाओं के दो रूप हैं। पहला रूप है पौराणिक जो पुराणो से लिया गया है। दूसरा रूप है व्रतकथा का लोकरूप, जो लोककथा की तरह बुना हुआ है और लोक प्रचलित है। Bundeli Lok Vratkathaye जनमानस की भावनाओं से परंपराओं की तरह जुड़ी हुई हैं।
गणेश चतुर्थी में पार्वती का शरीर के मैल से पुतला बनाकर गणेश की उत्पत्ति, स्नान के समय गणेश का पहरा, शिवजी से युद्ध, गणेश के सिर का कटना, पार्वती का रुदन, हाथी के बच्चे का सिर गणेश में लगकर जीवित होना आदि प्रसंग पौराणिक आख्यान के अन्तर्गत आते हैं। लेकिन इस व्रत में लोककथाएँ भी कही जाती हैं। सन्तान सप्तमी, महालक्ष्मी आदि के व्रतों में पौराणिक व्रतकथाएँ कही-सुनी जाती हैं, पर हलछट, गोद्धादशी, कजरियन की नवमी जैसे व्रतों में Bundeli Lok Vratkathaye ही श्रोताओं के बीच कही जाना प्रचलित हैं।
ग्रीष्मकालीन लोक व्रतकथाएँ
ग्रीष्म में फागुन, चैत, वैशाख और जेठ माह माने जाते हैं। फागुन में वसन्त पंचमी, शिवरात्रि और होली के व्रत होते हैं। फाग के बाद चैत के कृष्णपक्ष की द्वितीया को भइया-दूज के व्रत में भाई-बहिन के प्रेम की कथा लोकप्रचलित है।
सात बैनन को बीर की लोक व्रतकथा में बड़ी बहिन भाई की सात अलफों (दुर्घटनाओं) से रक्षा करती है। जाँते में साँप पिस जाने से विषाक्त कलेवा, सेही के काँटे, नदी की बाढ़, मार्ग में काँटे ही काँटे, टीका में सामने का द्वार गिरना, मंडप का गिरना, पलकाचार में अधरात को नागिन का डँसने के लिए आना जैसी सात अलफें प्राणघातक थीं, जिनसे रक्षा करने के लिए बहिन को पागल तक होना पड़ा। कथा के अन्त में ‘पनमेसरी दोज महारानी जैसी इनकी राखी, सो सबकी राखियो।’ यह कथन सबके कल्याण की कामना करता है।
चैत्र कृष्ण दशमी को पिपरदसा या दसामाता का व्रत होता है। पिपरदसा के व्रत में पीपल के वृक्ष की पूजा होती है और कथा भी कही जाती है। एक सेठ के कोई पुत्र नहीं था, पर सेठानी की हठ से पुत्र के परदेश में रहने और कटार के साथ भाँवरें पड़ने से विवाह हो गया। बहू को पड़ोसिन ने सबकुछ बता दिया। इस बहू ने परीक्षा के लिए सभी कमरे देखने चाहे। सास ने एक कमरे में पीपल की पूजा करने की राय दी।
बहू पूजा करने लगी। पूजा के बाद पीपल से सुन्दर कुँवर निकलता और चैपड़ खेलकर पीपल में समा जाता। बहू गर्भवती हो गई। सेठ-सेठानी चिन्तित हुए। बहू ने पीपल के कुँवर से आगन्नो में प्रकट होने का वचन ले लिया और सास से आगन्नो के लिए कहा। सेठानी ने पहले आनाकानी की, पर बहू की हठ के बाद पुरा-पड़ोस में बुलौवा करवा दिया। ठीक समय पर पीपल से सुन्दर और गौर वर्ण के कुँवर प्रकट हो गए, जिससे सेठ-सेठानी खुशी में डूब गए। पीपल का यह वरदानी रूप चकित कर देनेवाला सिद्ध हुआ।
दसारानी की महत्ता की अनेक कथाएँ हैं, जिनमें राजा नल की कथा प्रमुख है। राजा नल की बहिन दसारानी का व्रत रख रही थीं। उन्होंने भौजी दमयन्ती से भी कहा, पर दमयन्ती ने व्रत को उपेक्षा की दृष्टि से देखा। फल यह हुआ कि राजा नल और रानी को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा।
राजपाट का हार जाना, भूँजी मछलियों का तालाब में गिरना, खेत के हरे चने लोहे के हो जाना, सुरभी गायों से खून निकलना, काजर से बनाई मोर का खूँटे में टँगे नौलखा हार को निगल जाना, छप्पन प्रकार के भोजन कूड़ा-कुरकुटा हो जाना, तरबूज की लकड़ी का गोला हो जाना और उसी के कारण जेल में बन्दी हो जाना जैसे कष्ट सहने पड़े।
जेल में दमयन्ती द्वारा दसारानी के गड़ा लेने से राजा-रानी का जेल से छूटना, लकड़ी का गोला तरबूज हो जाना, कूड़ा-कुरकुटा के छप्पन प्रकार के भोजन हो जाना, मोर का नौलखा हार उगल देना, सुरभी गायों से दूध निकलना, लोहे के चने हरे चने हो जाना, भूँजी मछलियों का तालाब से आना और राज-पाट का फिर सँभालना जैसे कार्य सफल हो जाते हैं। इसी प्रकार की दूसरी कथा में दसारानी व्रत की उपेक्षा से विवाह-उत्सव से दूल्हा गायब हो जाता है और व्रत रखने पर दसारानी दूल्हे की बरात लेकर विवाह सम्पन्न करा देती है।
चैत्रा शुक्ल तृतीया को गनगौर का व्रत होता है, जिसे सौभाग्यवती स्त्रिायाँ रखती हैं। इस व्रत में शिव-पार्वती की पूजा का विधान है। इस व्रत की कथा में सबसे पहले निम्नवर्ग की स्त्रिायों ने पार्वती की पूजा की, जिससे प्रसन्न होकर पार्वती ने उन्हें पूरा सुहाग दे दिया। उच्च वर्ग की नारियों को पार्वती ने अपनी छिंगुरी चीरकर अमृत छिड़क दिया, जिससे वे अखंड सुहागिनें हो गईं।
चैत के चार-पाँच सोमवारों को जगन्नाथ स्वामी की पूजा होती है, इस व्रत में भाट-भाटिन की कथा कही जाती है, जिसमे जगन्नाथ स्वामी की डड़ा (बेंत) तुमरिया (लूमी) के प्रभाव से स्वामी जू का महत्त्व स्थापित किया गया है। डड़ा-तुमरिया के ठोंकने से मनवांछित वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। इसी भरोसे से भाट-भाटिन नग-भोज दे पाते हैं। यदि राजा उसका अनादर करता है, तो उसे राज-पाट तक की हानि होती है।
वैशाख के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया कहते हैं। उस दिन के व्रत से अक्षय फल प्राप्त होता है। जेठ की अमावस्या को वटसावित्री का व्रत होता है, जिसमें वट या वट के चित्र की पूजा की जाती है और सावित्री-सत्यवान की लोक व्रतकथा कही जाती है। सावित्री जब सत्यवान को वर के रूप में चुनती है, तब नारद उसकी अल्पायु की भविष्यवाणी करते हैं।
सावित्री दृढ़ होकर उस दिन व्रत रखती है और जब लकड़ी काटते हुए सत्यवान मूर्छित हो जाते हैं, तब वह उसका सिर गोद में लेकर वहीं बैठ जाती है। सत्यवान के प्राणहर्ता यम के पीछे जाकर वह तीन वर प्राप्त करती है और अन्तिम वर मे सत्यवान से 100 सन्तानें होने की प्राप्ति के लिए सत्यवान को जीवित होना ही पड़ता है। इस तरह सावित्री के पातिव्रत्य का आदर्श भारतीय नारीत्व का लोकमूल्य बन जाता है।
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वर्षाकालीन लोक व्रतकथाएँ
वर्षाकाल में अषाढ़, सावन, भादों और क्वाँर माह आते हैं।
अषाढ़ कृष्ण अष्टमी को सोमवार अथवा शुक्रवार को शीतला माता को बसौंडा चढ़ता है। शीतला अष्टमी को बसौड़ा भी कहते हैं. यह एक हिंदू त्योहार है, जिसे चैत्र महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। इस दिन माता शीतला की पूजा की जाती है और उन्हें बासी भोजन का भोग लगाया जाता है। इस दिन व्रत भी रखा जाता है. मान्यता है कि इस दिन पूजा करने से बीमारियों से मुक्ति मिलती है और घर में सुख-शांति बनी रहती है।
अषाढ़ के तीसरे रविवार को आसमाई का व्रत रखा जाता है। इस व्रत में पटे पर चन्दन से भूखमाई, प्यासमाई, नींदमाई और आसमाई की पुतरियाँ बनाई जाती हैं। आसमाई की पूजा में लोकव्रत कथा कही जाती है, जिसमें एक राजा के जुआ खेलने वाले पुत्र पर आसमाई की कृपा से उसके दिन फिरते हैं। जुआरी होने के कारण राजा ने उसे देश निकाला दे दिया। रास्ते में चार स्त्रिायाँ चली आ रही थीं। उनके सामने जाते हुए उसे काँटा लग गया, जिसके कारण वह झुक गया। चारों स्त्रिायाँ समझीं कि वह प्रणाम कर रहा है।
चारों में विवाद होने के कारण उन्होंने पूछा कि किसे प्रणाम किया है। उसने आसमाई का नाम लिया, जिसे सुनकर आसमाई प्रसन्न हुईं और उसे विजय दिलाने वाली कौड़ियाँ दीं। उन कौड़ियों से उसने बहुतों को हराया और उनकी सम्पत्ति प्राप्त की। एक राजा को हराकर उसकी सम्पत्ति पाई और उसकी कन्या से विवाह किया। उसके बाद वह अपने पिता के राज्य में आकर सुख से रहने लगा। इस प्रकार इस कथा से जीवन में आशा का विशेष महत्त्व झलकता है।
श्रावण शुक्ल पंचमी को नागपंचमी में नागों की पूजा की जाती है। दीवाल पर गोबर से सर्प की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। एक कथा भी लोकप्रचलित है, जिसके अनुसार एक किसान के हल से साँप के बच्चे मर जाते हैं और नागिन किसान, उसकी पत्नी और बच्चों को काटकर बदला लेती है।
एक बची हुई कन्या को डसने जब नागिन गई, तब कन्या ने उसके सामने दूध का कटोरा रख दिया। दूध पीकर प्रसन्न होने से नागिन ने वर माँगने को कहा और कन्या ने अपने माँ-बाप और भाइयों का जीवन माँगा। नागिन की कृपा से सभी जीवित हो गए।
सावन के शुक्ल पक्ष की नवमी को कजरियाँ बोई जाती हैं, उसे कजरी नवमी कहते हैं। इस व्रत में कथा कही जाती है, जिसमें बारी बहू पति की अनुपस्थिति में खूब खाती-पीती है ओैर पति की उपेक्षा करती है। बारी बहू ने पड़ोसिनों से पूछकर जाना कि दीवाल पर नवमी बनाकर उसकी पूजा की जाती है और बेढ़ई का भोग लगता है।
पति ने बाहर जाने की कहकर कमरे में छिपने का उपाय सोचा, क्योंकि उसने पति के लिए भोजन नहीं बनाया था। पति को घर से गया जानकर उसने दो गन्ने चूसे, फिर सेंवई खाईं और बाद में खूब घी डालकर खिचड़ी खाई। दीवाल पर गोबर घोलकर पोत दिया। फिर बेढ़ई बनाकर उसकी पूजा की। उनसे पूछा ‘नवमी बाई, बेढ़ई खाओगी ?’ छिपे पति ने हुंकारी भरी। बारी बहू पड़ोसिन से कहने गई कि उसकी नवमी बोलती हैं।
तब तक उसके पति बाहर आ गए। बारी बहू ने पूछा कि दूसरे गाँव गए नहीं। पति ने कहा कि रास्ते में साँप मिला था। पत्नी ने पूछा कितना बड़ा था। पति ने कहा कि गन्ना के बराबर था। पत्नी ने पूछा कि कैसे सरकता था। पति बोले कि खिचड़ी में घी की तरह सरकता था। यह कहकर पत्नी की खूब पूजा की।
कुछ परिवार इस दिन नेवले की पूजा करते हैं और एक कथा भी कहते हैं, जिसमें ब्राह्मणी नेवले के मुँह में लगे खून को देखकर सोचती है कि उसने उसके बच्चे को मार डाला है और पानी से भरा घड़ा नेवले पर पटककर उसे मार डालती है। जब कमरे में जाकर देखती है, तो बच्चा खेल रहा है और एक काला सर्प टुकड़े-टुकड़े पड़ा है। यह देखकर उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ।
भादों के कृष्ण पक्ष की छठ को ‘हरछठ’ का व्रत पुत्रा की मंगल-कामना के लिए रखा जाता है और छः कथाएँ कही जाती हैं, जिनमें एक कथा प्रमुख है।
एक ग्वालिन को नवजात शिशु की चिन्ता रहती है और दूध-दही बेचने का लोभ भी रहता है। इसलिए वह घर से दूध-दही लेकर चल पड़ती है और बच्चे को छेवले के नीचे लेटाकर गाँव में दूध बेचने चली जाती है। उस दिन हरछठ थी, पर उसने मिश्रित दूध को भैंस का बताकर गाँव वालों को ठगा। छेवले के पास हल से जोतते हुए किसान से बैलों के भड़कने पर हल का फल उस शिशु से पेट में घुस गया। किसान ने दुखी होकर काँस से बच्चे का पेट सिल दिया।
ग्वालिन ने बच्चे की दशा को अपनी मिलावट के पाप का फल समझ गाँव वालों को बता आई कि दूध में मिलावट है, जिससे गाँव की स्त्रिायों ने उसे आशीष दिए। लौटने पर बच्चा उसे जीवित मिला। तभी से उसने मिलावट करना छोड़ दिया।
भादों कृष्ण द्वादशी को गोवत्स (गाय-बछड़े) की पूजा की जाती है और व्रत में एक कथा कही जाती है।कथा इस प्रकार है। एक सेठ ने तालाब खुदवाया, पर उसमें पानी नहीं आया। पंडित ने बताया कि बलि देने पर पानी आएगा। सेठ ने बहू को मायके भेज दिया और बड़े नाती की बलि देने के लिए तालाब में झूला डलवा दिया। नाती के झूलने पर तालाब में पानी भर गया और नाती उसी में डूब गया। इधर बहू के न रहने पर दासी भोजन बना रही थी। उसने सास से पूछा कि क्या बनाएँ। सेठानी ने कहा कि ‘धनियाँ राँध लो, गौउआँ पीस लो।’ धनियाँ गाय का नाम था, जो जंगल में चरने गई थी और गोउआँ बछड़ा का नाम था।
दासी ने बछड़े को काट-पौल कर सब्जी बना ली। उधर बहू गोवत्स द्वादशी के दिन के कारण व्रत रखे थी, इसलिए उसी तालाब के किनारे उसके मायके का गाँव होने से वह नहाने गई, तो उसके लड़के ने उसका पाँव पकड़ लिया। सेठानी-सेठ लौटे, तो गाय बछड़े को न पाकर और दासी से उसकी गलती जानकर बछड़े का मांस जमीन में गाड़ दिया। शाम को गाय के लौटने पर उसने अपने सींगों से जमीन को कुरेदा, तो बछड़ा जीवित निकल आया। यह सब बहू के व्रत का सुफल था। सेठ-सेठानी अपने नाती और गाय के बछड़े को पाकर प्रसन्न हुए।
भादों की शुक्ल पक्ष की द्वितीया को गाजबीज का व्रत होता है, जिसकी कथा में रानी का दासी बनना और दासी का रानी बन जाना गाजबीज के कारण होता है।
एक राजा एक बार जंगल में शिकार खेलने गए। वहाँ अचानक पानी बरसा और गाज गिरी, पर राजा के सिर पर रोटियों की छाया से वे बच गए। जंगल से लौटकर राजा ने रानी से पूछा कि ‘तुमने कौन-सा दान-पुण्य किया है, जिसने मेरी जान बचाई। ‘रानी उत्तर नहीं दे सकी। राजा ने यही प्रश्न दासी से किया। दासी ने कहा कि ‘महाराज, मुझे केवल एक किलो चना मिलता है। उसमें से एक रोटी या तो ब्राह्मण कन्या को या गाय को देती हूँ।’ राजा ने कहा कि उन्हीं रोटियों ने मेरी रक्षा की है, नहीं तो गाज से जान चली जाती। उन्होंने दासी को रानी बनाया और रानी को दासी।
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शीतकालीन लोक व्रतकथाएँ
शीत-काल में कार्तिक, अगहन, पूस और माघ महीने होते हैं। कार्तिक के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत किया जाता है। यह व्रत सौभाग्यवती स्त्रिायाँ अपने सुहाग की रक्षा के लिए करती हैं।
व्रत की कथा इस प्रकार है। एक साहूकार के सात बेटे और एक बेटी थी। करवा चैथ का दिन आया, तो बहिन ने व्रत रखा। भाइयों ने बहिन की भूख की शंका से दिन में ही नकली चाँद दिखा दिया, जिससे बहिन ने अघ्र्य देकर भोजन किया। तीसरे कौर देने पर ही ससुराल से सन्देश आ गया कि उसका पति बहुत बीमार है। माता ने पुत्री को समझा दिया कि मार्ग में जो भी आदरणीय मिले, उसके आशीष पाने के लिए चरण -स्पर्श कहना।
ससुराल में ननद ने आशीष दिया। वह पति की सेवा साल भर करती रही। जब करवा चौथ आई, तो उसने व्रत के खंडित होने की क्षमा माँगी और फिर व्रत रखा। फलस्वरूप उसका पति उठकर बैठ गया। चौथ माता ने दया करते हुए उसका सुहाग लौटा दिया। जिस प्रकार साहूकार की बेटी को सुहाग मिला, उसी प्रकार चौथ माता सबको सुहागिन रखे।
दिवारी के बाद की भैया-दोज की कथा वही है, जो होली की दोज की पर कही गई है। कार्तिक स्नान करने और कार्तिक के व्रत रखनेवाली स्त्रिायाँ कतकारीं कहलाती हैं। कार्तिक स्नान की कथाओं मे स्नान का महात्म्य और राधा कृष्ण की भक्ति की प्रधानता है।
एक कथा में गुरूजी ने सब शिष्यों को दूध लाने के लिए कहा। एक शिष्य बहुत गरीब था और उसका दोस्त था गोपाल, जो जंगल में उसके साथ खेला करता था। वह जंगल में जाकर रोने लगा। रोने की आवाज सुनकर गोपाल आ गया और उसने छोटी सी डबुलिया में दूध लाकर दिया। वह शिष्य दूध लेकर गुरूजी के पास गया। दूसरे शिष्य बड़े-से-बड़े पात्रों में दूध लाए, जिनके दूध लेने के कारण गुरूजी को उसकी डबुलिया देखने तक की फुर्सत नहीं थी।
सबसे अन्त में बहुत उपेक्षा से उन्होंने डबुलिया का दूध अपने पात्र में डाला, पर वह फिर भर गई। गुरूजी दूध डालते-डालते परेशान थे, पर वह डबुलिया खाली न होती थी। उन्होंने उस शिष्य को बुलाकर पूछा कि यह डबुलिया किसने दी। शिष्य ने गोपाल का नाम ले दिया। गुरुजी ने पूछा कि वे कहाँ मिले। उसने जंगल की जगह बताई। सब लोग वहाँ गए, पर गोपाल नहीं आए। वह शिष्य रोने लगा, क्योंकि लोग उसे झूठा समझ रहे थे। थोड़ी ही देर में वंशी लिए गोपाल आ गए। सबने उनके दर्शन किए।
इसी तरह की कथाएँ रोज कही जाती हैं। कार्तिक शुक्ल नवमी के लिए तीन नाम है। एक ‘इच्छा-नवमी’, जो सबकी इच्छा पूरी करती है, दूसरा आँवला-नवमी, जिसमें आँवले के बृक्ष की पूजा की जाती है तथा तीसरा तुलसी-नवमी, जिसमें तुलसी की पूजा की जाती है।
आँवला-नवमी की कथा में राजा के सोने के आँवला दान देने का विरोध उनकी बहुओं ने किया, जिससे राजा-रानी ने घर त्याग दिया और बालू का आँवला दान किया। भगवान की कृपा से वे धन-धान्य से पूर्ण हो गए और बेटे-बहुएँ दरिद्र। वे राजा-रानी के यहाँ मजदूरी करने आए, पर उन्होंने अपने महल में रख लिया।
तुलसी-नवमी की कथा में तुलसी की पूजा करने वाली बुढ़िया के हाथ के फफोला में नौ माह बाद एक मेढक उत्पन्न हुआ। बुढ़िया ने उसे पाला-पोसा और बड़ा दिया। वहाँ के राजा की पुत्री का स्वयंवर था, मेढ़क भी जाकर मंच के पास के टीले पर बैठ गया। राजकुमारी ने उसी के गले में माला डाल दी। सब चिल्ला उठे कि राजकुमारी चूक गई। लेकिन दुबारा भी मेढक के गले में माला डाल दी। सबने देखा कि वहाँ टीले पर एक मेढ़क बैठा है। उसी के साथ विवाह हो गया।
बहू बुढ़िया को चूनी-भूसी की रोटी खिलाती थी, जिसे खाकर वह बड़बड़ाती रही। मेढ़क रात को अपना खोल उतार देता, तो सुन्दर राजकुमार बन जाता था। बहू ने रात को उठकर खोल जला दिया, जिससे दिन को वह मेढ़क नहीं बन सका। बुढ़िया ने उसे देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुई। उसने बहू की करनी उसे बता दी, जिससे वह पत्नी पर क्रोधित हुआ। तब से वह माँ का पूरा ध्यान रखता था। बुढ़िया भी उसे पाकर तुलसी की पूजा और व्रत की जय मनाती।
माघ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी या संकट चतुर्थी भी कहते हैं। इस व्रत में कई कथाएँ कही जाती हैं।
एक कथा में राजा द्वारा लगवाया अवा नहीं पकता था। बलि देने के लिए एक बुढ़िया का लड़का जंगल से पशु चराकर लौटते हुए पकड़ा गया। बुढ़िया गणेश चतुर्थी का व्रत रखे हुए उसकी प्रतीक्षा करती रही और रातभर गणेश जू का भजन रटती रही। सेबेरे तक अवा पूरा पक गया। जब अवा को खोलने लगे, तो अन्दर से आवाज आई कि एक-एक ईंट निकालना। अवा खोलने पर सबने देखा कि गणेश जी अपनी टाँग पर बुढ़िया के लड़के को बैठाए हैं।
दूसरी कथा में भी एक बुढ़िया के एक ही पुत्र था, जो चार पैसे की कमाई में दो पैसे का गजरा गणेशजी को पहना देता था। पास-पड़ोस के लोगों ने सिखाकर उसे घर से निकलवा दिया, जिससे वह गणेशजी के मन्दिर में रहने लगा। गणेशजी के कहने पर उसने एक बार सूँड़ में हाथ डाला तो गजरा आ गया और दूसरी बार चार लड्डू। गजरा गणेशजी को पहनाकर उसने लड्डू खाए और लेटा रहा। गणेशजी के कहने पर वह धन-सम्पत्ति से लदी गाड़ी में बैठकर घर गया और माँ-बेटे प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।
तीसरी कथा में गरीब जेठानी के व्रत रहने और भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर गणेशजी उसके घर आकर भोजन करते हैं और वहीं चारों कोनों में मल विसर्जित करते हैं, जो सबेरे सोना बन जाता है। देवरानी सब कुछ जानकर कना के मोदकों का भोजन गणेशजी को कराती है और स्वयं पकवान बनाकर खाती है। गणेशजी उसका घर मलमूत्र से भर देते हैं। गणेशजी सदा दुखी और पीड़ित जनों पर कृपा करते हैं।
निष्कर्ष यह है कि लोकव्रत कथाओं का उद्देश्य देवियों और देवताओं के प्रति सही भक्ति-भावना उत्पन्न करना है। साथ ही दान और अन्य पुण्य कार्यों की सच्ची कसौटी पर कार्य यही कथाएँ करती हैं। उदाहरण के लिए दान देना पुन्य कार्य है, पर यश और प्रशंसा के लिए दिया दान सच्चा दान नहीं है। भाई-बहिन के प्रेम का आदर्श, जीवन में आशावादी दृष्टि रखना, सोच-समझकर कार्य करना आदि सीखें जीवन में बहुत उपयोगी हैं। मिलावट पाप है और उससे हानि होती है। आँवला, पीपल जैसे वृक्ष जीवन के लिए वरदान हैं। आशय यही है कि लोकव्रतकथाएँ जीवनोपयोगी अनुभवों की देन हैं और उनसे जीवन के अच्छे-बुरे कार्यों की पहचान होती है। वे जीवन के यथार्थ और आदर्श के उचित समन्वय हैं।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
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