अकबर से लेकर शाहजहां तक अनेक मुगलों की आंख की किरकिरी बना रहा बुंदेलखंड। अनेक बार मुगलों ने आक्रमण किया पर कभी बुंदेलों ने हार नही मानी। Veer Singh Dev Aur Champat Rai बुंदेलों के ऐसे नायक थे उसकी विल्क्षण बुद्धि और शौर्य ने ही बुंदेलों को विजय दिलाई। बादशाह शाहजहाँ अपनी साठ हजार की सेना समेत हारकर, दिल्ली वापस चला गया और बुंदेले अपनी स्वतंत्रता तथा विजय का डंका बजाते हुए बुंदेलखंड का राज्य करते रहे।
राजा मधुकरशाह के पश्चात् रामशाह गद्दी पर बैठा। शेष भाइयों को जागीरें दी गई थीं। रामशाह राजा तो हो गया, पर यह अपने अधीनस्थ जागीरदारों को अपने वश मे न रख सका । इससे इसके राज्य की दशा बहुत ही बिगड़ गई और केवल इसी रियासत की छोटी-बड़ी 22 जागीरें हो गई। महाराज मधुकरशाह ने वीर सिंह देव को बड़ोन (बड़ौनी) की जागीर दी थी।
वीर सिंह देव ने पवायां सेना भेजी और इसे अपने अधीन कर लिया। इसके बाद तोमरु ( तोमरुढ़ ) भी इनके हाथ लग गया। अब इनकी धाक चारों ओर जमने लगी। लोग इनसे भय खाने लगे । नरबर (नलपुरा) और कोलारस के निवासियों ने भी इनसे भय खाय खाने लगे।
इसके पश्चात् वीर सिंह देव ने मैना (मीणा) और जाटों को हराया, फिर वेरछा और करहरा ले हथनौरा पर आक्रमण किया भर यहाँ के अधिकारी बाघजंग जॉगड़ा को रणक्षेत्र मे मार डाला । यह सब देख भांडेर का मुगल सरदार हसन खां भाग गया और भांडेर बिना प्रयास ही इनके हाथ लग गया । पीछे से इन्होंने ईचीखां से एरच भी छीन लिया। इस प्रकार थोड़े ही दिनों मे इन्होंने सूबा ग्वालियर को हिला दिया।
यह देख अकबर ने, ओरछे के राजा रामशाह और ग्वालियर के आसकरन के साथ सेना देकर, वीरसिंहदेव पर चढ़ाई कर दी । ये चंतुरंगिणी सेना लेकर चाँदपुर आए। यहाँ पर जगमन भी शाही सेना के साथ मिल गया। इनके सिवाय हसनखाँ पठान, हरदौण पंवार और राजाराम पँवार भी साथ में थे।
असकरन मुगल सेना के पूर्व में राजाराम पँवार और हसनखाँ को रखा। उत्तर की ओर आसकरन और जगमन रहे। इस समय महाराज वीरसिंहदेव के पास इतनी सेना न थी कि वे खुले मैदान मे युद्ध करते। इससे वे आरंभ मे इंद्रजीत और प्रतापराव का साथ ले दोनो ओर की सेनाओं पर छापे मार मारकर उसे तंग करने लगे । अंत में युद्ध ठन गया। इसमें रामशाह के पुरोहित मयाराम और उसका भाई मारे गये । इससे रामशाह और असकरन वापस आ गए।
वि० सं० 1651 में असकरन के वापस आने पर अकवर ने बहरामखाँ के पुत्र अबुफजल को दक्षिण से वापस बुलाया था और इसके साथ मे पंडित जगन्नाथ और दुर्गादास को भेजा। रामशाह भी शाही सेना के साथ आया। इनके सिवाय अकबर ने अब्दुल्ला खां को भी साथ भेजा । अबुलफजल ने इन सब सरदारों के साथ एक बडी फौज लेकर वीर सिंह देव पर चढ़ाई की।
अबुफजल ने पवायां मे डेरा डाला। यहां से रामशाह ने पंडित गोविंददास को वीर सिंह देव के पास भेजा । इसने महाराज वीर सिंह देव को बड़ौनी छोड़ देने की सलाह दी । परंतु महाराज ने नगर निवासियों को ते। अलग कर दिया और स्वयं युद्ध करने को तैयार हो गये तब इन सभी ने मिलकर बड़ौनी घेर ली, पर ये निकल गए और शाही फौज पर छापा मारने लगे । इनसे तंग आकर खानखाना ने इन्हें बुलवाया । ये अब्दुल्लाखाँ से मिले ।
इसने इन्हें बादशाही मनसब दिखलाया और अपने साथ दक्षिण ले गया । उनके जाने पर बड़ोनी में शाही शासन व्यवस्था बैठ गई। इस बात से वीरसिंहदेव को बहुत दुःख हुआ। इससे इन्होंने बरार के नजदीक पहुँचने पर अब्दुल्लाखाँ से बड़ोनी की जागीर वापस माँगी परंतु अब्दुल्ला खां ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए दक्षिण में जागीर देने का वचन दिया ।
इस समय यह दक्षिण में सूबेदारी पर जा रहा था। महाराज वीर सिंह देव रामशाह के लड़के संग्रामशाह की सलाह से आखेट का बहाना कर वापस चले आए। इनके आते ही शाही थाने के लोग बड़ोनी से भाग गए। इधर संग्राम शाह ने भी मौका पाकर अब्दुल्ला खाँ से बड़ोनी मॉग ली। यह घटना वि० सं० 1651 की है।
वि० सं० १६४६ में अकबर के पुत्र शाह मुराद का दक्षिण मे देहांत हो गया। इस पर अकबर को बढ़ा ही दुःख हुआ। इससे इसने दक्षिण जाने की तैयारी की । यह आगरा से धौलपुर होता हुआ ग्वालियर आया। यहाँ से इसने राजाराम कछवाहे को महाराज वीरसिंहदेव के पास बढ़ौनी भेजा। इन्होंने इसका अच्छा आतिथ्य किया और उनसे सलाह भी ली। अकबर भी राज़ारास के जाने के पश्चात् माँड़ो जाने के लिये नरवर ( नलपुरा ) चला आया।
यहाँ पर इसे राजाराम (रामशाह) बुंदेला मिला और राजाराम कछवाहा भी बड़ौनी से वापस आ गया। वि० सं० 1657 में रामशाह के पुत्र संग्रामशाह को अब्दुल्ला खाँ ने बढ़ौनी जागीर दे दी थी, पर उस पर अधिकार करना ते दूर रहा, ये लोग उस ओर देख भी न सके । इससे इन्हांने यह मौका हाथ से न जाने दिया और बड़ोनी पर चढ़ाई करने के लिये अकबर से सहायता मांगी । अकबर तो यह चाहता ही था। इसने रामशाह के साथ राजसिंह को भी एक बड़ी सेना के साथ भेज दिया।
यह सुन महाराज वीर सिंह देव की सहायता के लिये राव प्रताप तो स्वयं आए और रतनशाह (रतनसेन ) के लड़के इंद्रजीत ने सेना भेजी । इस समय महाराज वीर सिंह देव की भी अच्छी तैयारी हो गई थी । इससे राजसिंह ने संधि करने की सलाह दी , पर महाराज ने संधि करना स्वीकार नही किया । अंत मे भाई हरवंश, अनंदी पुरोहित, देवा पायक इत्यादि के समझाने पर संधि कर ली और बडौनी छोड़ दी। परंतु राजसिंह ने अपनी प्रतिज्ञा नही निबाही और इनके आते ही उस गाँव में आग लगवा दी । यह बात वीर सिंह देव को बहुत बुरी लगी।
उन्होंने अपने कुछ चुने हुए सामंत बकसराय प्रधान, केशोराय, चंपतराय, मुकुटगौड़, कृपाराम और बलवंत यादव को ले रातों-रात धावा कर दिया । इधर एक सेना ने इनके आने की खबर राजसिंह को दे दी। राजसिंह ने अपने लड़के के साथ एक बड़ी फौज भेजी और दामोदर को भी उसके साथ कर दिया। दोनें मे घमासान युद्ध हुआ। महाराज के चुने हुए सिपाहियों और सामंतों ने इनकी खूब खबर ली । यदिं राजसिंह ग्वालियर न भाग आता दो मारा जाता ।
अकबर के सलीम, मुराद और दानियाल ये तीन लड़के थे। इनमें से मुराद की मृत्यु हो गई थी और सलीम को यह चाहता भी नही था। इससे दोनों में वैमनस्य हो गया । इस पर सलीम वि० सं० 1656 सें आगरा से निकल भागा और इसने अवध और कड़ा मानिकपुर अपने अधिकार में कर लिए । इधर महाराज वीर सिंह देव भी अकबर से लड़ते लड़ते तंग आ गए थे, इससे इन्होंने यादव गौड़ सेनापति की सलाह से भावी बादशाह से भेंट करने का विचार किया। ये प्रयाग को रवाना हुए। पहला मुकाम शहजादपुर मे किया। दूसरे दिन यहाँ से रवाना हो प्रयाग पहुँचे ।
महाराज वीर सिंह देव जैसे शूर-बीर थे वैसे ही धार्मिक भी थे । इन्होंने पहले गंगा-स्नान किया फिर शाहजादा सलीम से भेंट की । सलीम तो यह चाहता ही था। महाराज का यथोचित सत्कार कर उसने उन्हें अपने पक्ष मे कर लिया । महाराज ने भी अपनी भावी उन्नति के विचार से अबुलफजल को मारने का वचन दे दिया। सलीम के राजबिद्रोह करने पर अकबर ने इसे परास्त करने की इच्छा से अबुलफजल को बि० सं० 1659 में दक्षिण से बुला भेजा।
महाराज वीर सिंह देव भी सैयद सुजफ्फर के साथ प्रयाग से बड़ोनी आ गए। यहाँ आने पर इन्हें अबुलफजल के आने और नरवर पहुँचने के बारे मे मालूस हुआ। अबुलफजल ने सिंधु पार कर आाँतरी के पास पराइछे नामक गांव में डेरा डाल लिया। दूसरे दिन प्राता:काल कूच करते ही महाराज वीर सिंह देव ने इसे आ घेरा। दोनो में धमासान युद्ध हुआ । महाराज की बहुत सी सेना हताहत हुई, पर महाराज ने अबुलफजल का सिर काट लिया और उसे वे अपने साथ बडौनी ले आए।
यहाँ से उसे चंपतराय की संरक्षकता में शाहजादा सलीम के पास प्रयाग भेज दिया | इसे देख वह फूला न समाया। इसके बाद उसने महाराज वीर सिंह देव का राजतिलक करने के लिये चंपतराय के साथ अपना ब्राम्हण भेजा और साथ में एक रत्नजडित तलवार, छत्र, चँवर तथा डंका निशान भी भेजे । यह राजतिलक बड़ौनी में हुआ। वि० सं० 1659 मे राजा वीर सिंह देव ने अबुलफजल को मार डाला।
जब इसकी खबर अकबर को मिली तब उसे इस बात का बहुत ही दुःख हुआ। उसने दो दिन तक भोजन नही किया। उसे सांत्वना देने और सहानुभूति दिखाने के लिये खानआजम, राजा राम कछवाहा, शेख फरीद, राजा भोजराय, दुर्गादास, जगन्नाथ इत्यादि दरबारी और उमराव गए। इन सब लोगों ने बहुत धीरज बँघाया पर अकबर को धैर्य न हुआ।
अंत मे उसने वीर सिंह देव का पकड़ने के लिये सेना भेजी । इसके साथ राजसिंह, राजाराम और रामशाह भी साथ आए। ग्वालियर में इन्हें बेरछा के सुजानराय पंवार, प्रतापराय और सुजानशाह भी अपनी अपनी सेना के साथ आ मिले । यहाँ से ये सब आँतरी आए। यह देख शाहजादा सलीम ने राजा वीरसिंहदेव को युद्ध न करने की सलाह दी। इससे ये बड़ौनी छोड़ दतिया चले आए।
यहाँ पर राजाराम, रामशाह और राजसिंह एक हो गए। इससे वीरसिंह देव दतिया छोड़कर एरच चले आए। पर शाही फौज ने उनका पीछा न छोड़ा और एरच आते ही उन्हें घेर लिया। यहाँ पर महाराज वीरसिंह देव के छोटे भाई हरसिंहदेव से भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में कई बड़े बड़े योद्धा मारे गये और जमानखाँ का पुत्र जमाल खां भी मारा गया ।
इसी बीच महाराज दूनी नाम के गाँव में चले गए। जब इस बात की खबर शाही फौज को लगी तब वह भी उनको पकड़ने के लिये दूनी पहुँची । इस तरह शाही फौज को चकमा देते हुए ये दतिया चले आए। यहाँ पर सलीम शाहजादे से भेंट हुईं। महाराज वीर सिंह देव को देख यह बहुत ही खुश हुआ।। इसके पश्चात तरड़ी बेग इंद्रजीत को एरच का किला दे कछोवा चला गया। अंत में अकबर हैरान हो गया और उसने शाहजादे सलीम को आगरा बुला भेजा। सलीम महाराज वीर सिंह देव का दतिया में छोड़कर आगरा चला गया ।
महाराज वीर सिंह देव के इधर-उधर भागते रहने पर उन सब स्थानों पर शाही झंडा फहराने लगा था, पर शाहजादा सलीम के जाते ही शाही सेना वापस चली गई। फिर क्या था, महाराज वीर सिंह देव ने इन्हे भेड़-बकरी की तरह काट डाला और उन सब स्थानों पर अपना अधिकार जमा लिया। सबसे पहले संग्रामशाह ने भॉड़ेर पर अपना अधिकार जमाया, पीछे से हरिसिंहदेव ने भसनेह को अधीन करना चाहा ।
यहाँ खड़गराय से युद्ध हुआ और हरि सिंह देव वीरतापूर्वक लडते हुये मारे गये । इसका वीर सिंह देव को बढ़ा दुःख हुआ। इसी समय संग्रामशाह और वीर सिंह देव से मेल हो गया। इससे संग्रामशाह ने वीर सिंह देव को भॉड़ेर दे दिया। इन्होंने इसके बदले में गढ़ देने का वादा किया । इसके पीछे बी रसिंह देव इमलोटा गए। यहाँ पर खड़गराय से युद्ध हुआ । यह सपरिवार मारा गया । फिर लहचुरा ले उन्होंने संग्रामशाह को दे दिया । इसके पश्चात वीर सिंह देव ने खड़गराय का सिर शाहजादा सलीम के पास आगरा भेज दिया ।
इससे शाहजादा तो खुश हुआ, पर अकबर को बहुत गुस्सा आया यथपि अकबर ने अपना क्रोध प्रकट नही होने दिया। पीछे से उसने रामदास कछवाहे को बुलवाकर शाहजादा सलीम के पास भेजा, परंतु उसने वीर सिंह देव का साथ छोड़ना स्वीकार नही किया। इससे दोनों में फिर वैमनस्य बढ़ गया और शाहजादा सलीम आगरा छोड़ प्रयाग चला आया। खॉडेराय के मरने पर इनके छोटे भाई इंद्रजीव ने बादशाह से फरियाद की। रामदास कछवाहे के समझाने पर बादशाह ने कुछ शर्तों पर इन्हें ओरछा देना मंजूर किया, पर इन्होंने ओरछा लेना स्वीकार न किया।
वि० सं० 1661 में सलीम की मां का स्वर्गवास हो गया । इस समय अकबर ने इसे बुलवाया। शाहजादा सलीम को अपनी माँ के मरने का बहुत दुःख हुआ । यह इसी रंज से कई दिन तक बाहर नही निकला | अंत मे लोगों के समझाने पर महाराज वीर सिंह देव के आग्रह करने पर आगरा गया । पर वहों पहुँचने पर अकबर ने उसे बहुत कष्ट दिया । इससे वह फिर वहाँ से निकला। अकबर को खॉडेराय के मारे जाने का दुख बना ही था।
इससे उसने फिर भी वीर सिंह देव को पकड़ने के लिये अब्दुल्ला खाँ के सेनापतित्व में सेना भेजी । परंतु महाराज वीर सिंह देव सलीम से सिलने के लिये प्रयाग आ गए थे। यहाँ से जाने के बाद उन्होंने ओरछा पर अधिकार कर लिया। इस समय संग्रामशाह ने इनका साथ दिया था। उधर अब्दुल्लाखाँ भी अपनी सेना के साथ खम्हरौली में आ पहुँचा ।
फिर क्या था, महाराज वीर सिंह देव भी इंद्रजीत, संग्रामशाह, राव प्रताप, उग्रसेन, केशवदास इत्यादि सामंत्तों को साथ लिए हुए युद्ध के लिये निकले । दोनों सेनाओं का ओरछा से आधा कोस पर सामना हो गया और बात ही बात मे घमासान युद्ध छिड़ गया। इस समय राजा राजसिंह और अब्दुल्ला खाँ को प्राण बचाना कठिन हो गया। मुगल सेना ने पीठ दिखाई और वीर सिंह देव ने विजय पाई।
इस युद्ध की हार से अकबर को बढ़ा दुःख हुआ। अत: उसने फिर सेना भेजने का प्रबंध किया किंतु काफी उम्र के कारण वह कमजोर हो गया था। इस पर भी दानियाल की मृत्यु हो गई। मुराद पहले ही मर चुका था। इन सब कारणों से वह बीमार हो गया और वि० सं० 1662 मे मे अकबर की मृत्यु हो गयी । अब सलीम जहॉगीर के नाम से गद्दी पर बैठा ।
शाहजादे सलीम ने तख्त पर बैठते ही महाराज वीर सिंह देव को बुला भेजा । ये बढ़ी खुशी से आगरा गए और अपने साथ संग्रामशाह के पुत्र भारतशाह के भी लेते गए। एरच में रामशाह से भी भेंट हो गई । यहाँ से इंद्रजीत को भी इन्होंने साथ ले लिया । आगरा पहुँचते ही सलीम ने महाराज को बड़े आदर से लिया और उत्साहपूर्वक भेंट की । पीछे से महाराज ने शाही दरबार में भारत शाह और इंद्रजीत से भी भेंट करवाई । | इसके पश्चात् उसने महाराज को सारे बुंदेलखंड का राज्य दे दिया और बहुमूल्य पारितेषिक देकर बिदा किया।
इस समय महाराज ने जतारा लेने से इनकार किया। पर जतारा में मुगलों का रहना अच्छा न होगा, यह समझाकर उसने जतारा भी दे दिया। आगरा से बिदा हो महाराज एरच आए। यहाँ पर सभी कुटुंबियों के साथ रामशाह भी मिलने आए, पर बातें ही बातें में बिगाड़ हो गया। महाराज ने इन्हें बहुत समझाया, पर ये पठारी वापस चले गए, घर महाराज वीरसिंहदेव भी पिपरहट आ गए। यहाँ पर अब्दुल्लाखाँ और दरियाखाँ भी मिलने के लिये आए। पीछे से रामशाह ने पठारी को छोड़ दिया और वे बनगवाँ में रहने लगे। इससे पठारी में वीर सिंह देव का अधिकार हो गया। इस तरह दोनों राजाओं के बीच में केवल आध कोस का अंतर रह गया।
वि० सं० 1680 मे शाहजादा खुसरो और जहाँगीर में मनमोटाव हो गया। इससे वह आगरा से निकल भागा। बाद शाह ने उसका पीछा किया, पर वह न मिला । इसी समय महाराज वीर सिंह देव ने इंद्रजीत के साथ अपने पुत्र को राजा रामशाह के पास मिलने के लिये भेजा । इससे दोनों में फिर मेल हो गया। पीछे से राजा रामशाह ने अपने नाती संग्रामशाह के पुत्र भारतशाह को बरेठी भेजा । इस व्यवहार से दोनों मे संधि हो गई। इससे रामशाह के मंत्रियों ने भारतशाह को महाराज के पास ही रहने दिया। महाराज वीर सिंह देव और रामशाह से समझौता गया था।
भारतशाह सहाराज के पास था ही। तब इंद्रजीत के आने पर रामशाह ओरछा चला आया । यहाँ से इसने अंगद, प्रेमा और केशवदास मिश्र को चिरस्थायी संधि करने के लिये भेजा, किंतु प्रेमा और अंगद ने संधि के बदले झगडा करा दिया। इन दोनों ने राजा रामशाह और रानी कल्याणदेवी के कान भर दिए जिससे इन्होंने भारतशाह को बरेठी से बुला लिया।
वीर सिंह देव भारतशाह के चले आने पर वि० सं० 1663 में बरेठी से वीरगढ़ चले गए और उन्होंने बवीना पर अधिकार कर लिया। इधर भारतशाह के आ जाने पर रामशाह भी युद्ध की तैयारी करने लगा। यद्यपि केशवदास ने फिर भी समझाया, पर इसके मन में एक भी न भाया । महाराज वीर सिंह देव भी अपनी सेना तैयार कर ओरछा पर आक्रमण करने का विचार करने लगे। इतने में जहंगीर बादशाह ने कालपी के सूबेदार अब्दुल्ला खाँ को ओरछा पर आक्रमण करने को भेज ही दिया। मुगल सेना के आते ही रामशाह ने इंद्रजीत और राव भूपाल को युद्धस्थल पर भेजा।
दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ। मुगल सेना भागने पर ही थी कि महाराज वीर सिह देव आ पहुँचे । इनके डंकों की आवाज सुनते ही राव भूपाल शंकित हो उठे और इंद्रजीत, जो पहले से ही घायल हो गए थे, बेहोश गए। इससे इनके साथी इन्हें रणभूमि से उठा ले गए। फिर क्या था, मुगल सेना दुगने उत्साह से लड़ने लगी जिससे राव भूपाल के भी पैर उखड़ गए।
जब महाराज वीर सिंह देव ने देखा कि कुल नाश हुआ ही चाहता है तब इन्होंने अपने सामंत सुंदर प्रधान को संधि करने के लिये राजा रामशाह के पास भेजा। पर ये वीरसिहदेव से न मिले, वरन् अब्दुल्लाखां के पास चले गए। उससे इन्हें आते ही कैद कर लिया और दिल्ली ले गया । इस बात का महाराज को बढ़ा दु:ख हुआ ।
महाराज वीर सिंह देव ने हरि को तो ओरछा के प्रबंध का भार दिया और राव भूपाल को बीहट, इंद्रजीत को गढ़ कुंडार और प्रतापराव को बंधा की जागीर देकर रामशाह को छुडाने के लिये आप आगरा चले गए। इनके जाते ही देवराय ने भारतशाह को साथ लेकर पठारी पर अधिकार कर लिया और बेतवा किनारे के कई गाँव जला डाले।
इनके जाते ही जहाँगीर ने वीर सिंह देव को मधुकरशाह का सारा राज्य दे दिया और रामशाह को चेंदेरी और बानपुर का राज्य दे दोनों में मेल करा दिया । पीछे से महाराज का जब यहाँ की सब घटनाओं का हाल मालूम हुआ तब वे आगरा से चले आए। यहाँ आते ही शांति हो गई ।
वि० सं० 1682 में महाराज वीर सिंह देव ने अपने पुत्र भगवंतराय को महावत खां की कैद से जहॉगीर को छुड़ाने के लिये भेजा । यह कुछ विलम्ब से पहुँचा तो भी बादशाह इन पर खुश हुआ। महाराज ने अपने बाहुबल से अपनी रियासत की आमदनी 2 करोड़ रुपए कर ली थी। इसमें 81 परगने और 125000 गांव थे। इन्होंने ओरछा को फिर से बसाया और इसका नाम जहाँगीरपुर रखा। पीछे से एक महल भी बनवाया। इसका नाम जहाँगीर महल रखा।
इसके सिवाय एक फूल बाग बनवाया और चतुर्भुज जी का मंदिर बनवाया। इन्होंने वीरपुर गाँव बसाया था और वहाँ पर वीरसागर नाम का तालाब भी खुदवाया। ये जैसे शूर और प्रतापी थे वैसे ही दानी भी थे। कहते हैं कि इन्होंने मथुरा में 81 मन सोने का तुलादान किया था, जिसकी तुला आज तक विश्रामघाट में सुरक्षित है। इनके दान की ऐसी अनेक कथाएँ है। तुलादान वि० सं० 1681 में किया गया था ।
महाराज वीर सिंह देव के तीन विवाह हुए थे। पहली शादी शाहाबाद के दीवान श्यामसिंह धंधेरे की कन्या अमृत कुँवरि से हुई थी । इससे इनके जुझारसिंह, पहाड़सिंह, नरहरिदास, तुलसीदास और बेनी दास ये पॉच पुत्र हुए। इनमे से जुझारसिंह और पहाडसिंह तो राजा हुए और नरहरदास को धामानी, तुलसीदास को गढू तथा बेनीदास को पहारी की जागीर दी गई थी ।
दूसरा विवाह खैरवान के प्रमारसिंह की कन्या गुमान कुंवरि के साथ हुआ था । इससे उनके चार पुत्र और एक कन्या हुई। इनमे से दीवान दरदौल को बड़गॉव, भगवंवराय को दतिया, चंद्रभान को जैतपुर और कोंच आदि परगने तथा किसुनसिंह को देवराहा मिला, तथा लड़की कुंज कुँवरि का विवाह वेरछा में हुआ।
इनकी तीसरी रानी शहर शाहाबाद के धंधेरे की कन्या थी। इसका नाम पंचम कुंवरि था। इसके तीन लड़के हुए। बाघराज को रारौली, माधवससिंह को खरगापुर जागीर में दिया गया और परमानंद ओरछा ही में रहे । किसी भी राजा की कीर्ति उसके सलाहकारों से ही बढ़ती है। इस समय महाराज के सेनापति यादवराय गौड़ के सुयोग्य पुत्र कृपारामसिंह और कन्हरदास ब्राह्मण मंत्री थे |
चंपतराय
चंपतराय को महोबा की जागीर मिली थी। यह जागीर भी ओरछा के राज्य मे थी। परंतु चंपतराय अपनी शूर-बीरता के कारण बहुत विख्यात हो गए। इन्हें वीर सिंह देव का मुगलों के अधीन रहना अच्छा नही लगता था। इससे वीर सिंह देव मे जहाँ गीर के मरते ही शाहजहां को इनकी सलाह से कर देना बंद कर दिया और ओरछा को स्वतंत्र कर लिया। यह बात शाहनजहां को अच्छी नही लगी । इससे उसने बाकीखां नामक सरदार को एक बड़ी सेना साथ में देकर बुंदेलों को वश में करने के लिये भेजा । इस समय चंपतराय, वीर सिंह देव तथा अन्य बुंदेले एक हो गए। इससे बाकीखां की इस बड़ी सेना को हार खानी पड़ी । बाकीखां हार मानकर वापस चला गया भर बुंदेलों की स्वतंत्रता कायम रही।
सारबाहन
इसी युद्ध के समय, जब कि बाकीखाँ अपनी फौज लेकर हारकर वापस जा रहा था, चंपतराय का बड़ा लड़का सारबाहन उसे मिला। एक इतिहासकार का कहना है कि वह वहाँ शिकार खेलने गया था। बाकीखाँ ने उस अकेले लड़के को, जिसके पास थोड़ी सी सेना थी, घेर,लिया और उसे युद्ध में मार डाला । सारबाहन था ते छोटा, पर उसने समरभूमि मे मुगलों के छक्के छुड़ा दिए थे ।
शाहजहां को जब बाकीखां की हार के बारे मे मालूम हुआ तब उसे बहुत फिक्र हो गई। मुगल लोग भारत में अपने बराबर बलवान किसी को नही समझते थे और कोई ऐसा राज्य भारत मे न था जो मुगलों की सेना को हरा सके। परंतु बुंदेलखंड के राजा ने छोटे छोटे जागीरदारों की सहायता से बड़ी मुगल सेना को हरा दिया ।
इसका कारण बुंदेलों की स्वातंत्रप्रियता और आत्म- विश्वास था। बुंदेले उस समय भी मुगलों का सामना करने से नही चूके जिस समय कि वे (बुंदेले) बहुत ही बलहीन थे। बुंदेलों की यह जीत देख शाहजहाँ से विलकुल न रहा गया और वह स्वयं अपने बड़े सेनानायकों को साथ वि० सं० 1685 में ओरछा पर आक्रमण करने आया।
ओरछा को बचाने के लिये वही पुराने बुंदेले थे। उनमे आत्मविश्वास पूरा था। बादशाह की सेना ने भरपूर प्रयत्न किया, परंतु वह ओरछा को न ले सके । इस समय बुंदेलों का नायक चंपतराय था। उसकी विल्क्षण बुद्धि और शौर्य ने ही बुंदेलों को विजय दिलाई। बादशाह शाहजहाँ, अपनी साठ हजार की सेना समेत हारकर, दिल्ली वापस चला गया।
बुंदेले अपनी स्वतंत्रता तथा विजय का ढंका बजाते हुए बुंदेलखंड का राज्य करते रहे। बादशाह शाहजहाँ ने बुंदेलखंड को अपने साम्राज्य में फिर से ले लेने का प्रयन्न न छोड़ा वह चारो ओर से सेना इकट्ठी करने के प्रयत्न में लग गया ।
बादशाह शाहजहाँ ने अब भिन्न-भिन्न स्थानों के सेनापति बुलाये। आगरा से मुहब्बतखां, दक्षिण से खानजहान और इलाहाबाद से अब्दुल्ताखाँ आए। सब लोगों ने बुंदेलखंड पर आक्रमण करने का विचार कर लिया। सारे मुगल साम्राज्य की शक्ति फिर से बुंदेलखंड पर आकर्षित हो गई । वीर बुंदेलों ने न तो वादशाह की इस असंख्य सेवा का सामना एक खुले मैदान में करना ठीक समझा, न उन्होंने उससे संधि ही की। वरन् वे अपने शौर्य से स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के प्रण पर अड़े रहे ।
मुसलमान अपनी असंख्य सेना लेकर बुंदेलखंड के बड़े बड़े मैदानों मे पड़े पड़े बुंदेलों की बाट देखते रहे और बुंदेले अपनी थोड़ी सेना में से कुछ तो गढ़ों के भीतर और कुछ मुगलों के मार्ग की घाटियों में रखकर लड़ाई की बाट देखने लगे। कुछ दिन बिना युद्ध के ही बीत गए। मुगल लोग सीमा के प्रदेशों की सेना भी बुंदेलखंड में लाए थे।
इस सेना को बहुत दिन तक मुगल लोग यहाँ पर न रख सके । मुगलों ने इस बड़ी सेना को बुंदेलों से युद्ध के लिये रखना अनावश्यक समझ अधिकांश सेना को अपने अपने स्थान को वापस भेजने का हुक्म दे दिया। बुंदेलों से युद्ध के लिये जितनी सेना मुगलों ने काफी समझी उतनी रख ली ।
इस समय बुंदेलों का सेनापति वही वीर और बुद्धिमान चंपतराय था। जब मुगल सेना थोड़ी रह गई तब बेतवा के किनारों की दरारों और विंध्य पर्वत के दुर्गम भागों में छिपी हुई बुंदेलों की सेना, चंपतराय के आदेशानुसार, धीरे धीरे बाहर निकली और अचानक चारों ओर से मुगल सेना पर आक्रमण करके उसे तितर-बितर करने लगी।
इस युद्ध में मुगलों के प्रसिद्ध सेना नायक शहबाजखां, बाकीखाँ और फतेहखाँ मारे गये । इस प्रकार फिर से यवनों की हार हुई और बुंदेलों की विजय हुई । इसी समय बुंदेलों ने सिरेंज के राजा को अपने अधिकार सें कर लिया और भिलसा तथा उज्जैन लूटकर वे बहुत सा माल ले आाए।
बादशाह शाहजहाँ ने यह सुनकर फिर बुंदेलों पर वि० सं० 1684 में चढ़ाई करने का निश्चय किया । अब की बार मुहम्मद सुभान, वली बहादुरखाँ, अब्दुल्लाखां और नोरोजखां सेनापतियों को यह कार्य सौंपा गया। इन लोगों ने फिर से खूब तैयारी कर बुंदेलखंड पर आक्रमण किया। बुंदेलों ने फिर बीरता से सामना किया। शाहजहाँ ने अब बुंदेलों से लड़ना ठीक नही समझता और संधि की बातचीत आरंभ कर दी।
इस समय बुंदेलखंड की भी हालत खराब हो गई थी । बुंदेलों के पास इतना धन नहीं था कि वे बहुत दिनों तक लड़ सकते । इसी समय बुंदेलखंड में एक बड़ा अकाल पड़ा और लोगों को अन्न का कष्ट होने लगा । इस कारण बुंदेलों ने भी सोचा कि संधि कर लेना अच्छा होगा। राजा वीर सिह देव का भी इसी समय देहांत हो गया।
इस कारण शाहजहां ने वीरसिहदेब के पुत्र जुझारसिंह को ओरछा का राजा स्वीकार किया । वरन् अपने पक्ष में करने के लिये इसने चेंदेरी के राजा भारतशाह, ओरछा के राजा जुझारसिंह और इसके भाई पहाड़सिंह तथा धामौनी के राजा नरहरदास को चार हजारी ममसब दिए और जुझारसिह के पुत्र विक्रमाजीत को एक हजारी मनसब दिया। ऐसे ही बुंदेलों की सेना के नेता चंपवराय की वीरता की प्रशंसा कर उसे कों च का परगना दिया और उसकी गणना शाही दरबार के अमीरों मे करना स्वीकार किया। इस प्रकार दिल्ली दरबार ने ओरछा को स्वतंत्र राज्य माना और चंपतराय के शौर्य की प्रशंसा की ।
बुन्देलखण्ड में अंग्रेजों से संधियाँ
संदर्भ -आधार
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी