इस अशिष्ट शब्द को पढ़कर चौंकिए मत । अब तो पानी सर से गुज़र गया है। आज के यांत्रिक युग की घोर भौतिकतावादी मानसिकता Kambakht Basant ने सब कुछ निगल लिया है। जल – जंगल – जमीन और जन तक तबाह हो चुके हैं। प्रकृति के दोहन के कारण ऋतुओं का वैभवशाली साम्राज्य धरा का धरा रह गया है। ऋतु – पर्वों तथा लोकोत्सवों की आनंदगंधी परंपराएँ विलुप्ति के कगार पर हैं।
भाषाओं – बोलियों के ललित – लावण्या संसार रूखे हो चुके हैं..ऐसे में वसंत की चर्चा करना भले कुछ लोगों को निरापागलपन लगे …लेकिन इन ऋतु पर्वों की चर्चा करना उतनी ही आवश्यक है जितनी हम अपने प्राणों की करते हैं। प्रकृति प्राण संस्कृति है , रस संस्कृति है…। आइए इसे बचाने के लिए हर संभव प्रयास करें और विश्वप्रसिद्ध समोलक डा. रामविलास शर्मा की इन पंक्तियों पर भी ध्यान देते रहें –
वीरान हो चुके हैं सब बाग – बगीचे
और जिबह कर डाले गए हैं सारे के सारे दरख़्त !
विकास के नाम पर उग आया है शहर में सीमेंट का बियाबान जंगल अमलतास , आम और पलाश की तो बात ही क्या दिखाई नहीं देती दूर-दूर तक सरसों की झूमतीं कतारें तक भला बताओ , अब कैसे सोचे –समझें बेचारे लोग कि कब आकर गुजर गया चुपचाप इस शहर से कमबख्त वसंत !
बचाए रखना है बौराए हुए वसंत को
हम आज जिस भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के शिखर पर खड़े हैं उस शिखर का निर्माण करने वाले कण लोक परंपराओं की नदियों में बहकर आते हैं , ऋतु पर्वों की मकरंदी हवाओं में उड़कर आते हैं । इन्हीं से हमारी संस्कृति फूलती – फलती है।लोक – उत्सव , लोकपर्व लोक जीवन का प्राण है। लोक संस्कृति के इस प्राणतत्व का , इन का संवर्धन एवं संरक्षण आज के इस यांत्रिक युग में महती आवश्यकता है। जिससे हमारा लोकजीवन शुद्ध वैज्ञानिक महत्त्व से वंचित न रह सके ।
मनुष्य के इस जागरण में ही विश्व का कल्याण है। यह भाव ही संपूर्ण सृष्टि पर प्रेम की चादर डालता है । सृष्टि का जो प्राकृतिक वैभव उपलब्ध है , वह हमारी आत्मा का नित्य श्रंगार करता है । वन संपदाएँ , नदियाँ , पर्वत – झरने इत्यादि में हमें आत्म दर्शन होना चाहिए । सर्वविदित है कि विश्व आत्मरूप है । इतना ही नहीं बल्कि विश्वरूप भी है ।
जब यह स्थिति हमारे चिंतन की होती है , तब फागुन हमें चिरंतन बनाता है । अमरचेता बनाता है , जीवंत बनाता है। ऐसा होने पर फिर वसंत सदैव बौराया ही रहता है । ऐसे बौराए वसंत और गदराए फागुन की अशेष शुभाकाँक्षाओं के साथ इस आलेख को यहीं विराम देता हूँ।