हमारा देश गांवों का देश है गावों का लोक है उस गांव/लोक की रक्षा का उत्तरदायित्व लोक देवता के उपर होता है। लोक देवता लोक द्वारा मान्य और प्रतिष्ठित होता है । उस लोक देवता के संबंध में कोई-न-कोई ऐसी घटना प्रचलित रहती है, जो रहस्य या चमत्कार से परिपूर्ण होती है।प्राचीन समय में कुछ महापुरुषों ने जन्म लियाहै , उनमे देवताओं के अंश प्रतीत होता था Bundelkhand Ke Lok Devta भी देवताओं के अंश से प्रभावित लगते हैं वह भी किसी न किसी लोक भावना से जुडे हुये हैं।
सम्पूर्ण विश्व में लोक देवताओं की परंपरा बहुत ही प्राचीन है सभ्यता के विकास के साथ साथ लोगों के मन में मन में भय जैसे विकार का जन्म हुआ और उस भय को दूर करने के लिए आस्था का जन्म हुआ । आस्था ही एक ऐसा साधन है जिससे मनोविकारों psychotic disorders को दूर किया जा सकता है। इन मानोविकारों को दूर करने के लिए मनोविज्ञान की प्राचीन पद्धति लोक विज्ञान सहारा लेना पड़ा। आस्था और लोक विज्ञान को मिलाकर लोक देवत्व का निर्माण हुआ।
लोक देवता लोक की रक्षा एवं उनके कल्याणकारी जीवन के लिए हमेशा तत्पर रहते थे इसी कारण भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में लोक देवताओं का प्रचलन है भारत में अनेक ऐसे लोक देवता है। कुछ लोकदेवता संपूर्ण समाज का नेतृत्व करते हैं, कुछ लोक देवता पूरे गांव का नेतृत्व करते हैं, कुछ देवता पूरे परिवार एवं खानदान का नेतृत्व करते हैं और कुछ देवता जो की जाति विशेष लोक देवता होते हैं वह सम्पूर्ण जाति विशेष का नेतृत्व करते हैं।
आदिकाल से ईश्वर के बाद लोक देवताओं का समाज में वशिष्ठ योगदान है। समाज विशेष के लोक देवताओं के कारण संपूर्ण समाज में एकता, भाईचारा एवं सौहार्द बनाए रखने में विशेष योगदान है इसी प्रकार जाति विशेष के लोक देवताओं द्वारा संपूर्ण संपूर्ण जाति विशेष को एक सूत्र में बांधने का काम लोकदेवता करते आए हैं । अनेक ऐसे लोग देवता हैं जो परिवार एवं संपूर्ण खानदान को एक सूत्र में बांध कर रखते हैं।
और अनेक लोक देवताओं में प्रत्येक गांव के अलग-अलग ग्राम देवता है जो पूरे गांव को एक सूत्र में बांध कर रखते हैं। प्राचीन काल से आज तक अनेक प्रचलन गांव में देखे गए हैं जैसे एक गांव के लोग दूसरे गांव में विवाह विशेष हेतु जाते हैं तो गांव के बाहर उन ग्राम देवताओं का पूजन अर्चन करते हैं। एक दूसरे के ग्राम देवताओं के अर्चन पूजन की परंपरा आज भी दूर-दराज गांव में देखने को मिल जाती है। जो एक सामाजिक समरसता और सौहार्द का जीता जागता उदाहरण है।
बुंदेलखंड के लोक जीवन का आधार है यहां के लोक देवता इन्हीं के कारण परिवार, खानदान, समाज, गांव, प्रदेश और देश को एक सूत्र में बांधने का काम करते हैं ये लोग देवता।
1 – प्रत्येक घर के आँगन के एक कोने में स्थापित लोक देवता की चौरी (छोटा चबूतरा) होता है जिन्हें हम कुल देवता कहते हैं यह प्रत्येक समाज में अलग-अलग नाम से जाने जाते हैं। इन देवताओं का मुख्य उद्देश्य है की परिवार के सभी सदस्यों को एक सूत्र में बांधना। इसके साथ-साथ पूरे खानदान के लोगों को एक सूत्र में बांधकर उनके जीवन को समरसता के साथ संयुक्त परिवार जीवन शैली को दिशा देना है ।
इन संयुक्त परिवारों में वर्ष में एक बार अपने कुल देवता का पूजन अनुष्ठान होता है इस अनुष्ठान में उस परिवार के एवं उस खानदान के सभी सदस्यों का शामिल होना अनिवार्य होता है । किसी कारणवश परिवार के सदस्य कहीं किसी और गाँव -शहर में रहते हैं तो सभी उस अवसर पर परिवार सहित पूजा -अनुष्ठान में भाग लेते हैं। और इसी बहाने पूरा परिवार, पूरा खानदान एकत्र होकर हर्षोल्लास के साथ पूजा अनुष्ठान तो करता ही करता है साथ ही एक दूसरे के सुख-दुख के बारे में भी चर्चा करता है किसी को किसी प्रकार की कोई परेशानी होने पर उनके निदान पर चर्चा करते हैं और निदान भी करते हैं।
2 – प्रत्येक गांव में पीपल के पेड़ के नीचे चबूतरे पर स्थापित देवताओं को ग्राम देवता कहते हैं। अलग-अलग गांव में यह ग्राम देवता अलग-अलग नाम से जाने जाते हैं। लेकिन इनका कार्य, इनका उद्देश्य एक ही है कि पूरे गांव को एक सूत्र में बांध कर रखना और उन्हें सही दिशा देना और अपनी संस्कृति और परंपराओं का निर्वाह करने के लिए प्रेरित करना ।
इन ग्राम देवताओं लोक देवताओं के कारण समस्त ग्रामवासी एक जुट रहते हैं वर्ष में अनेक बार ऐसे लोक पर्व एवं त्यौहार होते हैं जिसमें सभी ग्रामवासी यहां एकत्र होकर सौहार्द पूर्वक बिना भेद भाव के पूजा-अर्चन करते हैं। और यहीं से एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होने की प्रेरणा लेते हैं। गांव में होने वाले छोटे-मोटे वाद विवाद का निस्तारण भी इन्ही देवताओं के चबूतरे पर बड़े बुजुर्ग करते हैं और सभी समरसता के साथ जीवन यापन करते हैं ।
3 – तीसरे लोक देवता वह हैं जो गांव के बाहर जहां गांव की सीमा प्रारंभ होती है वहां किसी पेड़ के नीचे किसी पत्थर के रूप में विराजमान होते हैं । यह गांव की सीमा में रहकर गांव और खेत खलिहान की सुरक्षा का दायित्व निभाते हैं साथ ही अन्य गांव से आने जाने वाले लोगों को आपसी प्रेम और सौहार्द में बांधते हैं ।
हमारे बुंदेलखंड की परंपरा है कि जब हम किसी शुभ कार्य हेतु किसी शादी विवाह हेतु दूसरे गांव में जाते हैं तो गांव में प्रवेश करने से पहले उसे ग्राम देवता का पूजन अर्चन करते हैं वहां पान, बताशा एवं नारियल चढ़ाते हैं और दोनों गांव के लोगों में प्रेम और सौहार्द्ध बनाए रखने की प्रार्थना करते हैं ।बुन्देलखण्ड के लोक जीवन में हरदौल तथा कारसदेव आदि वह व्यक्तित्व हैं जिसे मानव होकर भी देवताओं की तरह पूजा जाता है। उनका प्रतीक उनका चबूतरा बन जाता है और वही उनकी आस्था का केन्द्र बन जाता है।
बुन्देलखण्ड के विशिष्ट पर्व कजलियों के मेले में प्रेम से आलिंगनबद्ध होकर मिलना, कजलियां देना तथा बड़ों का चरण स्पर्श करना लोक धर्म है। दशहरे मे रावण रूपी सामाजिक बुराई का जलना और सभी का एक दूसरे को पान खिलाकर एक दूसरे से गले मिलना हमारी संस्कृति का अंग है। सुअटा, नौरता, टेसू, अकती, विशिष्ट लोक-पर्व हैं। यह खेल बालक बालिकाओं को अपने जीवन में उतारने के लिए पूर्व प्रशिक्षण देते हैं। बुन्देली लोक जीवन में अधिकतर शुभकार्य उत्तरायण तथा मुहूरत निकलवा कर किये जाते हैं।
विज्ञान की दृष्टि से पर्वतों नदियों, सरोवरों, और वृक्षों की पूजा की जाती है। पीपल, बरगद, नीम, आंवला, तुलसी, केला, बेलपत्र आदि वनस्पतियों को पूज्यनीय श्रेणी में रखा गया है। भोजन बनने के पश्चात तुलसी डाल कर ठाकुर जी को प्रसाद लगाकर खाना तथा तुलसी के बिरवे को नित्य जलदान देना प्रतिदिन का कर्तव्य माना गया है। वनस्पतियों का संरक्षण एवं सम्बर्द्धन वातावरण को शुद्ध कीटाणु मुक्त करता है।
बुन्देलखंड के लोक देवता
बुन्देलखण्ड के लोक देवताओं में सर्वाधिक समावृत और पूज्य हरदौल का स्मरण यहाँ के प्रत्येक परिवार में विवाह के अवसर पर अवश्य किया जाता है, उन्हें आमंत्रित किया जाता है। गांव-गांव में उनके चबूतरे बने हुए हैं। आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। यहां उस दिन साभी देवी-देवताओं को पूजने का प्रचलन बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है। उस दिन हरदौल की भी पूजा की जाती है।
हरदौल औरछा नरेश वीरसिंह देव बुन्देला के पुत्र थे। इनके बड़े भाई जुझार सिंह जब ओरछा की गद्दी पर आसीन हुए तो राज्य का सारा काम उनके छोटे भाई हरदौल ही देखा करते थे। वे उस समय के अप्रतिम वीर, सच्चरित्र तथा न्यायपरायण व्यक्ति थे। बुन्देलखण्ड में राजा के छोटे भाई को दीवान कहा जाता है। दीवान हरदौल की इस कीर्ति से जकर किसी चुगलखोर ने राजा जुझार सिंह से शिकायत की कि दीवान हरदौल के रानी से अनुचित सम्बन्ध हैं। राजा को चुगलखोर की यह बात सच प्रतीत हुई। वास्तव में विनाशकाले विपरीत बुद्धि हो ही जाती है।
जुझार सिंह ने अपनी रानी को आदेश दिया कि वह अपने को निर्दोष प्रमाणित करने के लिए हरदौल को अपने हाथ से विषाक्त भोजन का थाल प्रस्तुत करे। नारी के सतीत्व और गरिमा के कोमल तन्तु कितने क्षीण होते हैं कि सन्देह के श्वास से ही छिन्न-भिन्न होने लगते हैं पर हरदौल तो लक्ष्मण के समान अपनी मातृ स्वरुपा भावज के लिए सदा से ही नित्य पादाभिवन्दन के समय नूपुरों से ऊपर कभी उकनी दृष्टि गई ही नहीं, उठी ही नहीं। अतः उन्होंने अपनी भावज को निर्दोष प्रमाणित करने के लिए हलाहल का पान कर प्राणोत्सर्ग किया।
वे मानव की कोटि से ऊपर उठकर देवकोटि में प्रतिष्ठित हुए। उनके साथ उनके अनुचर मेहतर ने भी प्रतिदिन की भांति उस दिन भी उनके जूठे प्रसाद को पाकर अमरत्व और देवत्व प्राप्त किया। जहाँ जहाँ हरदौल के चबूतरे बने हैं, उसके समीप ही मेहतर बाबा का छोटा चबूतरा भी पूज्य बन गया है।
इस प्रकार बुन्देलखण्ड में ही समता का वह चरम उत्कर्ष देखने को मलता है कि जहां श्वपच भी वन्दनीय हैं, देवत्य को प्राप्त हैं। यहां कहा जाता है कि हरदौल ने अपनी बहिन कुंजाबाई की पुत्री के विवाह के समय अदृष्ट रहकर भात दिया था। विवाह के समय मामा की ओर से जो सामग्री अन्न-वस्र आदि दिये जाते हैं। उन्हें यहाँ लोकभाषा में “भात’ देना कहते हैं। यह किंवदन्ती कहाँ तक सच है, यह तो नहीं कहा जा सकता।
जनश्रुति
आज से चालीस वर्ष पूर्व जब सेंवढ़ा से लेकर दतिया तक महामारी का प्रचण्ड प्रकोप हुआ था जिसमें प्रतिदिन व्यक्ति मर रहे थें, परिवार के परिवार उजड़ गये थे, लाशों को ठिकाने लगाने के लिए लोग नहीं मिलते थे, उस समय सेंवढ़ा के अनेक परिवार उस विनाश लीला से बचने के लिए सेंवढ़ा से जाकर महल-बाग के पास बने हरदौल के चबूतरे के आस-पास खुले आसमान के नीचे बिताने को विवश हो गये थे।
विज्ञान का यह सत्य उस समय धूमिल पड़ गया था कि हैजा संक्रामक रोग है। हरदौल के चबूतरे के आसपास शरण लेने वाले एक भी व्यक्ति को हैजा नहीं हुआ जबकि अन्य मुहल्ले के लोग मरते रहे और उन्हीं में से भागकर लोग वहां शरण ले रहे थे।
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मुंशी प्रेमचंद के हरदौल
बुन्देलखण्ड के प्रायः प्रत्येक गांव में, गांवके बाहर अथवा भीतर एक चबूतरे पर दो ईंटें रखी रहती हैं जिन्हें कुंवर साहब का चबूतरा कहा जाता है। इन्हें जनमानस में Bundelkhand Ke Lok Devta के रुप में प्रतिष्ठा प्राप्त है।
सामान्य व्यक्तियों को इनके सम्बन्ध में केवल इतना ही बात है कि ये कोई राजपुत्र थे। अनेक स्थानों पर बहुत प्राचीन सर्प Snake के रुप में भी ये दिखाई देते हैं। उस समय एक दूध का कटोरा रख देने से ये अदृश्य हो जाते हैं। ऐसा लोगों का विश्वास है।
रतनागिरी की माता और कुँवर साहब दतिया जिला के सेंवढ़ा से आठ मील दक्षिण पश्चिम की ओर रतनगढ़ नामक एक स्थान है। यहां कोई गांव नहीं है। एक ऊंची पहाड़ी पर दुर्ग के अवशेष मिलते हैं। दुर्ग सम्पूर्ण पत्थर का रहा होगा, जिसकी दीवारों की मोटाई बारह फीट के लगभग है।
यह पहाड़ी तीन ओर से सिन्धु नदी की धारा से सुरक्षित है। इसी विचार से यहदुर्ग बनाया गया होगा। स्थान अतयन्त ही रमणीक रहा होगा। घने जंगल के बीच में है। यहां उस पहाड़ी पर एक देवी का मंदिर बना हुआ है जिसे रतनगढ़ की माता के नाम से जाना जाता है।
कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यहां एक मेला भरता है जिसमें अनेक व्यक्ति देवी की मनौती मनाने के लिए आते हैं, जिसकी कामना पूर्ण हो जाती है, वे देवी को प्रसाद चढ़ाने, ब्राह्मण को भोजन कराने और देवी की आराधना में बोये हुए यवांकुर चढ़ाने के लिए आते हैं। इस स्थान की ख्याति दूर-दूर तक एक सिद्ध पीठ के रुप में है।
यहां से सात आठ मील की दूरी पर ही देवगढ़ का किला है जो बहुत कुछ ठीक स्थिति में है। किले के अनेक कमरों में ताले पड़े हुए हैं जिन्हें कदाचित शताब्दियों से नहीं खोला गया। कहते हैं कि इस स्थान पर रात को कोई ठहर नहीं सकता जिन्होंने ठहरने का दु:स्साहस किया, उनके शव ही दूसरे दिन पाये गये।
रतनगढ़ के राजा रतन सिंह के सात राजकुमार और एक पुत्री थी। पुत्री अत्यन्त सुन्दरी थी उसकी सुन्दरता की ख्याति से आकर्षित होकर उलाउद्दीन खिलजी ने उसे पाने के लिए रतनगढ़ की ओर सेना सहित प्रस्थान किया। घमासान युद्ध हुआ जिसमें रतन सिंह और उनके छः पुत्र मारे गये। सातवें पुत्र को बहिन ने तिलक करके तलवार देकर रणभूमि में युद्ध के लिए बिदा किया।
राजकुमारों ने भाई की पराजय और मृत्यु का समाचार पाते ही माता वसुन्धरा से अपनी गोद में स्थान देने की प्रार्थना की। जिस प्रकार सीता जी के लिए माँ धरित्री ने शरण दी थीं, उसी प्रकार इस राजकुमारी के लिए भी उस पहाड़ के पत्थरों में एक विवर दिखाई दिया जिसमें वह राजकुमारी समा गई, उसी राजकुमारी की यहां माता के रुप में पूजा होती है।
किसी भी पुरुष अथवा पशु को सांप काटने पर प्रायः कुँवर साहब के नाम का बंध लगा दिया जाता है जिससे विष का प्रभाव सारे शरीर में व्याप्त नहीं होता। यह बंध कोई धागा आदि नहीं होता जिसे बांधा जाता हो। केवल कूँवर साहब की आन देकर उस स्थान के चारों ओर उंगली फेर देते हैं, इसी को बंध कहा जाता है। दीपावली के पश्चात पड़ने वाली द्वितीया के मेले में इस चबूतरे के पास सर्प दंश वाले ऐसे लोगों और गाय, बैल, भैंस आदि के बंध काटे जाते हैं।
विचित्र बात तो यह कि पुजारी के बंध काटते हो उस व्यक्ति को मूर्छा आती है, उसे चबूतरे का परिक्रमा कराकर घर जाने दिया जाता है। लेखक को एक बार अपने कुछ साथियों सहित इस चमत्कार को देखने का अवसर प्राप्त हुआ।
एक के बाद एक इस प्रकार के अनेक स्री पुरुष जाते गये और बंध काटने के समय उन्हें उनके साथी सहारा देकर चबूतरे की परिक्रमा कराते रहे। पर जब एक बैल का बंध काटने के पश्चात वह चक्कर खाकर गिर पड़ा तो इस चमत्कार को देखकर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। जनमानस भी कुँवर साहब के इस प्रभाव के सामने सिर झुकाते हैं।
इस क्षेत्र में प्रायः अनेक गाँवों में कारसदेव के चबूतरे बने हुए हैं। यहाँ प्रतिमास की चतुर्थी को रात के समय गोपालक तथा अन्य व्यक्ति इकट्ठे होकर ढाक, ढक्का बजाते हैं। यह डमरु के आकार का एक वाद्य होता है जिसे बजाते समय पैरों का उसी प्रकार उपयोग करना पड़ता है जिस प्रकार हाथ से कपड़ा बुनते समय साथ ही पैर भी चलाने पड़ते हैं।
ढाक जब पूरे जोर पर और अधिक गति से बजने लगाता है तो किसी व्यक्ति विशेष पर इनका आवेश होता है जो लोगों के दु:ख दर्द सुनकर उनके समाधान का उपाय बताता है। जब कोई दुधारु पशु, दूध कम देने लगता है, दूध दुहने ही नहीं देता, अपने बछड़े को नहीं पिलाता अथवा दूध में रक्त आने लगा तो इनके चबूतरे पर दूध चढ़ाने से ही ठीक होता है। इसलिए इन्हें यदि पशुओं का देवता कहा जाता तो कुछ अधिक असंगत नहीं होगा।
बुन्देलखण्ड में झाड़-फूंक के अनेक शाबर मंत्र प्रचलित हैं जिसमें अजयपाल की आन धराई जाती है। ये सभी मन्त्र सद्य: प्रभावकारी हैं। अजयपाल का संबन्ध देवी भागवत की एक कथा से जोड़ा जाता है। सेवढ़ा में सिन्ध नदी के तट पर अजयपाल का एक पुराना स्थान जंगल में है, जहां कोई मर्ति नहीं है। उसे अजयपाल का किला समझा जाता है। यहां वर्ष में एक बार दूर-दूर से लोग आकर अजयपाल की पूजा करते हैं।
बुन्देलखण्ड में कुलदेवता की पूजा को बाबू की पूजा कहा जाता है। यहां प्रत्येक जाति और वर्ग में भिन्न-भिन्न तिथियों में बाबू की पूजा की जाती है। किसी के यहां माघ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया को यह पूजा संपन्न होती है तो किसी के यहां मार्गशीर्ष द्वितीया अथवा फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वितीया को।
परिवार में किसी पुरुष का विवाह होने पर जब नव वधू घर में जाती है तो उस अवसर पर बिना किसी तिथी का विचार किए बाबू की पूजा की जाती है। यह एक प्रकार से अन्य कुल से आने वाली वधू का स्वकुल में लेना कहा जा सकता है। इस पूजा में केवल वही लोग सम्मिलित किए जाते हैं जो स्वगोत्र होते हैं, यहाँ तक की अपनी लड़की तक को इसमें सम्मिलित किए जाते हैं न बाबू की पूजा का प्रसाद ही किसी अन्य को दिया जाता है।
बुन्देलखण्ड मे अनेक ग्राम देवी-देवताओं की पूजा होती है बुंदेलखंड में हीरामन लोक देव के प्रति अपार आस्था देखने को मिलती है लोक देवताओं की प्रतिष्ठा को लेकर कोई बड़ा साहित्य जानकारी का स्रोत नहीं है लेकिन लोक देवता उपयोगिता प्रधान होते हैं इनके पीछे का मनोविज्ञान अद्भुत है इन देवताओं के चमत्कार की कथाएं लोकमानस में व्याप्त हैं इनके बहुत से लोग देवताओं को जातियों के आधार पर अलग-अलग अवसरों पर पूजे जाते हैं।
बुन्देलखण्ड मे अनेक ग्राम देवी-देवताओं की पूजा होती है बुंदेलखंड में मेहराम बाबा के प्रति अपार आस्था देखने को मिलती है लोक देवताओं की प्रतिष्ठा को लेकर कोई बड़ा साहित्य जानकारी का स्रोत नहीं है लेकिन लोक देवता उपयोगिता प्रधान होते हैं इनके पीछे का मनोविज्ञान अद्भुत है इन देवताओं के चमत्कार की कथाएं लोकमानस में व्याप्त हैं इनके बहुत से लोग देवताओं को जातियों के आधार पर अलग-अलग अवसरों पर पूजे जाते हैं।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच बुंदेलखंड में ग्रामीण इलाकों में अनेक लोक देवता देवियों की प्रतिष्ठा है । अनेक लोक देवता और लोक देवियों को काफी लोग भूल चुके हैं लेकिन प्राचीन परंपरा में लालमन बाबा को काफी मान्यता प्राप्त थी। बुजुर्गों को इन ग्राम देवताओं से बड़ी उम्मीद रहती थी इसलिए इनका पूजा अर्चन प्रचलन में था। बुंदेलखंड में ऐसे अनेक देवी देवताओं की अर्चना पूजा उपासना का प्रचालन है।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच बुंदेलखंड में ग्रामीण इलाकों में अनेक लोक देवता देवियों की प्रतिष्ठा है । अनेक लोक देवता और लोक देवियों को काफी लोग भूल चुके हैं लेकिन प्राचीन परंपरा में इन ग्राम देवताओं को काफी मान्यता प्राप्त थी। बुन्देलखण्ड के गांवों में खैर बाबा – बुन्देलखण्ड के लोक देवता का पूजा अर्चन प्रचलन में है । बुंदेलखंड में ऐसे अनेक देवी देवताओं की अर्चना पूजा उपासना का प्रचालन है।
बुन्देलखण्ड के इन लोक देवताओं देवियों की स्थापना ज्यादातर गांव जंगलों और बीहड़ों में है क्योंकि बहुत सी जगह नष्ट हो चुकी हैं या फिर बचे हुए नहीं है। बड़े शक्तिपीठों से इनकी मान्यता कम नहीं है लाखों की संख्या में लोग इन पर आस्था रखते हैं । खुरदेव बाबा – बुन्देलखण्ड के लोक देवता जातीय देवता है।
गहोई समाज में खुर्देव बाबा को सूर्य का अवतार माना जाता है । लोगों का मानना है कि खुर्देव बाबा द्वारा गहोई वंश के एक बालक की रक्षा कर बीज रूप में बचा लिया जिससे गहोई वंश की वृद्धि होती गई। यह समाज खुद को सूर्यवंशी समाज से जोड़कर देखता है क्योंकि इनका सूर्य ध्वज है और खुर्देव बाबा सूर्यदेव के अवतार माने जाते हैं ।
बुन्देलखण्ड मे अनेक ग्राम देवी-देवताओं की पूजा होती है बुंदेलखंड में इनके प्रति अपार आस्था देखने को मिलती है आस्था और विश्वास लोक जीवन के मूल आधार हैं। ग्रामीण अंचल में लोक देवता आस्था के प्रतीक हैं। हर अंचल की एक आत्मा होती है। इसी आत्मा को लोक जीवन पुष्ट करते हैं। लोक का मन आस्था के मार्ग पर आगे बढ़ता है। गाँवों में लोक देवताओं को पूजने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है । रक्कस बाबा बुन्देलखण्ड वासियों की प्रमुख लोक देवता हैं ।
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बुन्देलखण्ड के लोक जीवन मे अनेक ग्राम देवी-देवताओं प्रचलित हैं । बुन्देलखण्ड में मिड़ोईया बाबा – बुन्देलखण्ड के लोक देवता के प्रति अपार आस्था देखने को मिलती है। मिड़ोईया बाबा खासतौर पर खेत की मेंड़ के देवता है । इनका अर्चन -पूजन खेत की मेड पर होता है । खेत की मेड ही इनका देव स्थान है । लोक देवताओं की प्रतिष्ठा उपयोगिता प्रधान होती हैं इनके पीछे का मनोविज्ञान अद्भुत है इन देवताओं के चमत्कार की कथाएं लोकमानस में व्याप्त हैं।
बुंदेलखंड में ग्रामीण इलाकों में अनेक लोक देवता देवियों की प्रतिष्ठा है । भियाराने बाबा मूलतया काछियों के लोक देवता । अनेक लोक देवता और लोक देवियों को काफी लोग भूल चुके हैं लेकिन प्राचीन परंपरा में इन ग्राम देवताओं को काफी मान्यता प्राप्त थी। बुजुर्गों को इन ग्राम देवताओं से बड़ी उम्मीद रहती थी इसलिए इनका पूजा अर्चन प्रचलन में था। बुंदेलखंड में ऐसे अनेक देवी देवताओं की अर्चना पूजा उपासना का प्रचालन है।
बुंदेलखंड में लोक देवियों ग्राम देवताओं एवं क्षेत्र लोक पालक शक्तियों की आराधना हमेशा से होती आई है समूचे बुंदेलखंड में हर शहर कस्बा गांव-खेड़ों में भी इन लोग देवी देवताओं की छोटे-छोटे मंदिर मडिया मिल जाएंगे घरों में चबूतरो पर स्थापित देवी देवताओं के स्थान मिल जाते हैं । भियाराने बाबा के स्थान भी अनेक ग्रामीण अञ्चल मे मिल जाते हैं ।
बुन्देलखण्ड के इन लोक देवताओं देवियों की स्थापना ज्यादातर गांव जंगलों में है । गोसाईं बाबू -बुन्देलखण्ड के लोक देवता बुन्देली लोक जनमानस के आराध्य हैं । इनके पूजा के स्थान गांवों में अनेक जगह मिल जाएंगे । इन लोक देवताओं के आस्था केंद्र बहुत सी जगह नष्ट हो चुके हैं या फिर बचे हुए नहीं है। बड़े शक्तिपीठों से इनकी मान्यता कम नहीं है लाखों की संख्या में लोग इन पर आस्था रखते हैं इनमें कई जातीय देवता है।
बुन्देलखण्ड मे अनेक ग्राम देवी-देवताओं की तरह रावकारू बाबा लोक जीवन मे पूज्यनीय हैं । बुंदेलखंड में इनके प्रति अपार आस्था देखने को मिलती है लोक देवताओं की प्रतिष्ठा को लेकर कोई बड़ा साहित्य जानकारी का स्रोत नहीं है लेकिन लोक देवता उपयोगिता प्रधान होते हैं इनके पीछे का मनोविज्ञान अद्भुत है इन देवताओं के चमत्कार की कथाएं लोकमानस में व्याप्त हैं ।
बुन्देलखण्ड के लोक देवता गौड़ बाबा भी जाति विशेष के देवता हैं । उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच बुंदेलखंड भूभाग में ग्रामीण इलाकों में अनेक लोक देवता देवियों की प्रतिष्ठा अनूठी है । कुछ लोक देवता और लोक देवियों को लोग भूल चुके हैं लेकिन प्राचीन परंपरा में इन ग्राम देवताओं को काफी मान्यता प्राप्त थी बुजुर्गों को इन ग्राम देवताओं से बड़ी उम्मीद रहती थी इसलिए इनका पूजा अर्चन प्रचलन में था बुन्देलखण्ड में ऐसे अनेक देवी देवताओं की अर्चना पूजा उपासना आज भी होती है।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच बुंदेलखंड भूभाग में ग्रामीण इलाकों में की काफी मान्यता है साथ ही अनेक लोक देवता देवियों की प्रतिष्ठा अनूठी लोक देवता और लोक देवियों को काफी लोग भूल चुके हैं लेकिन प्राचीन परंपरा में इन ग्राम देवताओं को काफी मान्यता प्राप्त थी।
मसान बाबा बुन्देलखण्ड में तेली (साहू ) जाति विशेष के देवता हैं । इन ग्राम देवताओं से बड़ी उम्मीद रहती थी इसलिए इनका पूजा अर्चन प्रचलन में था बुंदेलखंड भूभाग में ऐसे अनेक देवी देवताओं की अर्चना पूजा उपासना होती रहती है।
मैकासुर को बुंदेलखंड क्षेत्र में पशुरक्षक देवता के रूप मे मान्यता प्राप्त है। इसी रूप में उनकी पूजा भी की जाती है। यद्यपि इनके बारे में किसी प्रकार का एतिहासिक वर्णन प्राप्त नहीं होता है फ़िर भी जनमानस की आस्था के अनुसार प्रत्येक माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को इनकी पूजा की जाती है।
इस पूजा में विशेष रूप से मैकासुर से पशुओं की रक्षा करने की प्रार्थना की जाती है। इनके पूजा का स्थान एक चबूतरे पर ऊँचे से टीले पर कंगूरेदार होता है, जहाँ पूजा के समय प्रसाद तथा सफ़ेद रंग की ध्वजा(झंडा) चढाई जाती है। इनके प्रसाद को लेकर मान्यता है कि उसे वहीं समाप्त करना होता है, प्रसाद को घर ले जाने को भी नहीं मिलता है। मान्यता है कि मैकासुर के पूजन के बाद लोगों के जानवर, पशु सुरक्षित रहते हैं।
बुंदेलखंड में लोक देवियों ग्राम देवताओं एवं क्षेत्र लोक पालक शक्तियों की आराधना हमेशा से होती आई है समूचे बुंदेलखंड में हर शहर कस्बा गांव-खेड़ों में भी इन लोग देवी देवताओं की छोटे-छोटे मंदिर मडिया मिल जाएंगे घरों में चबूतरो पर स्थापित देवी देवताओं के स्थान मिल जाते हैं । बुन्देलखण्ड में गुरैया देव- बुन्देलखण्ड के लोक देवता के स्थान अनेक जगह मिल जाएंगे ।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच बुंदेलखंड भूभाग में ग्रामीण इलाकों में अनेक लोक देवता देवियों की प्रतिष्ठा अनूठी है । कुछ लोक देवता और लोक देवियों को काफी लोग भूल चुके हैं लेकिन प्राचीन परंपरा में इन ग्राम देवताओं पोरिया बाबा को काफी मान्यता प्राप्त थी बुजुर्गों को इन ग्राम देवताओं से बड़ी उम्मीद रहती थी इसलिए इनका पूजा अर्चन प्रचलन में था
बुंदेलखंड भूभाग में ऐसे अनेक देवी देवताओं की अर्चना पूजा उपासना होती रहती है। बुंदेलखंड में लोक देवियों ग्राम देवताओं में पोरिया बाबा आराधना हमेशा से होती आई है समूचे बुंदेलखंड में हर कस्बा गांव-खेड़ों में भी इन लोग देवी देवताओं की छोटे-छोटे मंदिर मडिया मिल जाएंगे ।
बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचल की मान्यताओं में ग्वाल देवता न्याय के देवता माने जाते है। ग्वाल देवता को गांव में अत्यधिक मान्यता प्राप्त है। पहले ग्रामीण अञ्चल के लोगों के घर में अगर किसी प्रकार की चोरी हो जाती थी तो उस समय लोग ग्वाल देवता की शरण में जाते थे उन से विनती करते थे।
ऐसा मानना होता था कि उनकी पूजा-अर्चना के बाद अगर जिस किसी ने चोरी की है तो उसका अनिष्ट होता है। इस डर के कारण लोग ज्यादातर चोरी किया हुआ सामान किसी न किसी बहाने लौटा देते हैं या मंदिर में रख आते हैं ग्वाल देवता की छोटे-छोटे मंदिर या मढ़िया दूर-दराज गांव में देखने को मिलते हैं।
भारत आस्था और विश्वास का देश है यहाँ हिन्दु आस्था में वट वृक्ष पवित्र माने जाते हैं पूज्यनीय माने जाते हैं । बुंदेलखंड के जनमानस का मानना है कि इनमें वरमदेव अर्थात, ब्रहमदेव का वास समझा जाता है। वट वृक्ष पर लोग प्रतिदिन जल ढारते (जल चढ़ाना)हैं । इनके सम्मान मे जनेऊ, खिचड़ी , चरण पादुकाएं इन्हें अर्पित की जाती हैं।
जनमानस एक और अवधारणा है जिसके आधार पर बुंदेलखंड में वट सावित्री व्रत मनाया जाता है। इसमें महिलाएं यह व्रत सौभाग्य की कामना एवं संतान प्राप्ति की दृष्टि से मनाती हैं । बहुत ही शुभ और फलदाई होता है। वट सावित्री व्रत सौभाग्य, संतान और महिलाओं की अन्य मनोकामनाओं को पूरा करता है।
भारतीय संस्कृति में यह व्रत एक आदर्श नारी की छवि का प्रतीक है। भारतीय महिलाओं के लिए यह व्रत काफी महत्व दिखाता है। ऐसा माना जाता है कि वट सावित्री व्रत स्त्री के अत्यंत दुर्भाग्य को भी सौभाग्य में बदल सकता है। वट सावित्री व्रत के साथ, यहां तक कि अपने गरीब भाग्य के साथ एक महिला भी खुशी, दुनिया के आराम और आनंद से भरा एक शांत जीवन प्राप्त कर सकती है।
बुंदेलखंड में मान्यता के अनुसार का पूजन विवाहोत्सव में प्रमुख रूप से अनिवार्य है। कहते है कि यह विवाह की विघ्न बाधाओं को हरने वाले देवता है, विवाह से अंत तक इनकी मनौती मानी जाती है। जब तक लड़का-लड़की, दूल्हा-दुल्हन के भेष में रहते हैं। इनके संरक्षण में रहते हैं, हर ग्राम में दूल्हा देव का चबूतरा हैं, सूक्ष्म रूप से इन्हें वह सारी सामग्राी चढ़ाई जाती हैं जो दूल्हा के पहनावे में आती है एवं विवाह के पूर्व प्रथम निमंत्रण इन्ही का किया जाता हैं। पीला, केसरिया, सफेद व लाल रंग का इनका बाना हैं।
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घटोरिया बाबा
खेरापती
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation
[…] संगीतात्मक बना देती है। इसे भी देखिए: बुन्देलखण्ड के लोक-देवता लोकगाथा मे आंचलिक परिवेश Regional environment of Folk […]
बुंदेलखंड के लोकदेवताओं की सुंदर जानकारी के लिए धन्यवाद।कृपया लोकदेवता दूल्हादेव के बारे में भी जानकारी उपलब्ध कराएं।
सुमित जी बहुत-बहुत धन्यवाद…. जल्द ही लोकदेवता दूल्हादेव के बारे में भी जानकारी अपलोड हो जायेगी….
कुल देवता बाबू
इनके बारे में कुछ भी नहीं है अगर आप के paas कुछ our जानकारी हो तो हमे भी दे
हमारे यहा इनकी पूजा होती है लेकिन हमे कोई जानकारी नहीं है
कुल देवता बाबू
इनके बारे मे our जानकारी देने काष्ठ करे
हमारे यहा इनकी पूजा होती है लेकिन कोई जानकारी किसी को भी नहीं है अगर आप के paas कुछ our जानकारी है तो हम को भी बताय
जल्द ही कुल देवता बाबू के बारे मे जानकारी अपलोड हो जायेगी ..आपको मेल द्वारा जानकारी दे दी जायेगी… धन्यवाद
और भी कुछ देव है जैसे साड़े बाबा, करुआ करताल बाबा क्या इनपर भी जानकारी है तो देवें.
हमारे यहाँ नवरात्रि मे अस्टमी को देवी पूजा के साथ इनको भी आखत दी जाती है
पूजा मे घर की क्वारी या शादी शुदा लड़किया शामिल नही की जाती न उनको इसका प्रसाद दिया जाता.
जब तक दीपक जलता रहेगा तब तक उनको पास नही आने दिया जाता