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Vaqt-Vaqt Ki Bat वक्त-वक्त की बात

राधाचरण ने ट्रेन की  खिड़की के बाहर झांका। सामने की दीवार पर किसी फिल्म का पोस्टर चिपका हुआ था। उस पर लिखे शब्द दूर से ही चमक रहे थे, Vaqt-Vaqt Ki Bat वक्त-वक्त की बात। राधाचरण की दृष्टि पोस्टर पर लिखे शब्दों पर जम गयी। जब उसकी दृष्टि दूर होते पोस्टर से हटी तो … । कब क्या हो जाय वक़्त-वक़्त की बात होती है।

प्लेटफार्म छोड़ चुकी ट्रेन ने अगले स्टेशन तक के लिए गति पकड़ ली थी। राधाचरण इसी ट्रेन से कल शाम झांसी पहुंचा था। कल जब वह अपने गांव से झांसी आ रहा था, तब वह विचार उसकी कल्पना में कहीं भी नहीं था कि अगले दिन ही उसकी वापसी हो जाएगी। राधाचरण को आज अपराद्द दो बजे से दिल्ली में हो रहे भारतीय स्टेट बैंक के प्रोबेशनरी ऑफिसर के साक्षात्कार में उपस्थित होना था, परन्तु झांसी से आगे का किराया न होने के कारण वह दिल्ली नहीं जा सका। फलस्वरूप वह झांसी से वापस अपने गांव लौट रहा था।

दो माह पूर्व, जब वह इसी प्रोबेशनरी ऑफिसर की लिखित परीक्षा देने दिल्ली गया था, तब उसके पास दोनों तरफ का पर्याप्त किराया और मां के द्वारा बांधा गया नाश्ता भी था। साक्षात्कार का बुलावा-पत्र मिलने से राधाचरण को माता-पिता एवं शुभचिन्तकों के मन में हर्ष की लहर दौड़ गयी थी। साक्षात्कार दिल्ली में होना था। दिल्ली जाने व आने के किराये की व्यवस्था करने में उसके पिताजी लग गये जबकि साक्षात्कार के लिए अभी पन्द्रह दिन बाकी थे।

दिल्ली जाने के लिए घर छोड़ने से कुछ घंटे पहले राधाचरण की छोटी बहन मुनिया की तबीयत अचानक खराब हो गयी। धीरे-धीरे उसकी हालत बिगड़ती गयी। जब गांव के एकमात्र डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया, तब सभी घबराए और मुनिया को गांव से बारह किलोमीटर दूर स्थित कस्बे के सरकारी अस्पताल में ले गये। वहां पर मुनिया की हालत में सुधार हुआ। तब कहीं हर किसी ने राहत की सांस ली। मुनिया की हालत अब काबू में आ गयी थी, परन्तु राधाचरण के दिल्ली जाने की समस्या मुंह बाए सामने खड़ी हो गयी थी। कारण, मुनिया के इलाज में राधाचरण के दिल्ली जाने के लिए जुटाकर रखे गये किराये के सारे रुपये खर्च हो चुके थे।

कस्बे के रेलवे-स्टेशन से ही राधाचरण को दिल्ली जाने के लिए ट्रेन पकड़नी थी। ट्रेन के आने में बहुत कम समय रह गया था। गांव से दूर कस्बे में इतनी जल्दी किराये के लिए कम से कम तीन सौ रुपये की व्यवस्था कर पाना राधाचरण व उसके पिता के लिए असम्भव हो गया था। जब राधाचरण के दिल्ली जाने के लिए किराये की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी, तब उसके पिता ने झांसी में रह रहे अपने छोटे भाई को एक पत्र इस आशय का लिखा कि वह राधाचरण को साक्षात्कार में दिल्ली जाने व वापस आने के लिए किराए की व्यवस्था कर दें।

कस्बे से झांसी तक का किराया सरकारी अस्पताल के डॉक्टर से उधार मांगकर राधाचरण कल शाम झांसी पहुंच गया था। कस्बे के रेलवे स्टेशन तक, उसे पिताजी छोड़ने आए थे। वे रास्ते भर चाचा जी की बड़ाई करते रहे, ‘‘बेटे वह तेरे सगे चाचा हैं। मैंने उन्हें अपने हाथों में लेकर बचपन में खिलाया-दुलराया है। वह तेरी पूरी मदद करेंगे। वैसे मैंने पत्र में स्पष्ट लिख दिया है। फिर भी तू निःसंकोच उनको सारी बातें अपनी ओर से बताकर उनसे किराया मांग लेना।’’

उसके पिताजी और भी बहुत कुछ उससे कहते रहे। वह भी परिस्थितिवश पिताजी के कहे को सुनता रहा जबकि वह अपने चाचा-चाची के निष्ठुर स्वभाव व व्यवहार से भली-भांति परिचित था। गांव के बड़े-बुजुर्ग अक्सर उसे बताया करते थे, ‘‘राधे! तेरे बाबा के मरने के बाद परिवार की सारी जिम्मेदारी तेरे पिता के कन्धों पर आ गयी थी। तेरे पिता ने अपने भाई-बहनों को बच्चों की तरह पाला-पोसा और पढ़ाया-लिखाया। अपनी सामर्थ्य से अधिक खर्च करके ऊंचे सम्पन्न घराने के लड़कों के साथ तेरी दो बुआओं का विवाह किया।

तेरे पिता ने अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट काट-काटकर तेरे चाचा को ऊंची शिक्षा दिलाई, डॉक्टरी पढ़ाई और उसे इस लायक बना दिया कि वह आज झांसी का सबसे बड़ा डॉक्टर माना जाता है, परन्तु बेटा तेरा चाचा बहुत स्वार्थी निकला, अपने बड़े भाई के त्याग को ऐसे भूल गया जैसे दुष्यन्त आश्रमवासिनी अपनी शकुन्तला को भूल गया था। पूरे गांव को यह विश्वास था कि तेरे पिता के सारे दुःख-दरिद्र तेरे चाचा के डॉक्टर बन जाने से दूर हो जाएंगे, पर बेटा कुछ कहते नहीं बनता। तेरे चाचा की मतिभ्रष्ट हो गयी।

बड़े भाई की कुछ मदद करना तो दूर, उसने तेरे पिता से सम्बन्ध ही तोड़ लिया, यहां तक कि उसने चुपके से झांसी के ही एक सम्पन्न डॉक्टर की इकलौती लड़की से विवाह कर लिया, जिसमें उसने बड़े भाई तक को नहीं बुलाया। तेरे चाचा के इस व्यवहार से तेरे पिता को बहुत ठेस पहुंची। पूरे गांव को दुःख हुआ था। अपने ससुर के मरने के बाद तेरा चाचा स्वयं बहुत बड़े नर्सिंग होम का मालिक बन लाखों में खेलने लगा और तेरे पिता दोनों बहनों के विवाह और भाई की पढ़ाई के लिए, लिए कर्ज के बोझ के तले दबकर गरीब से और गरीब होते चले गये।’’

यह सब सुनकर राधाचरण की आंखें भर आतीं। उसके हृदय में अपने चाचा के प्रति क्षोभ पनपने लगता। कुछ बनने की, कुछ कर गुजरने की इच्छा-शक्ति उसमें जन्म लेने लगती। गांव के मुखियाजी ने एक अवसर पर प्रसंगवश उसे बताया था कि एक बार जब तुम बहुत छोटे रहे होंगे, तुम्हारी मां सख्त बीमार पड़ी थी। गांव वालों की सलाह पर तुम्हारे पिता, तुम्हारी मां को लेकर झांसी तुम्हारे चाचा को दिखलाने ले गये थे। उस समय तुम्हारे चाचा के यहां उनके बच्चे के जन्मदिन की पार्टी चल रही थी। तेरे चाचा ने तेरी मां को देखना तो दूर, किसी के पूछने पर तेरे पिता को अपने गांव का नौकर बताकर भरी पार्टी में लोगों के बीच उनकी बेइज्जती कर दी।

तेरे पिता अकेले होते तो जरूर अपमान का घूंट पीकर चुप रहते, किसी को कुछ नहीं बताते, परन्तु दीनू काका, जो उनके साथ गये थे, ने गांव में आने पर घटना की सारी जानकारी दे दी। भगवान की कृपा से तेरी मां तो अच्छी हो गयी, परन्तु दैवयोग से तेरे चाचा का वह बच्चा, जिसकी पहली वर्षगांठ उस दिन पार्टी में मनाई जा रही थी, नहीं रहा।’’ समय-समय पर गांव के लोग उसे चाचा के बारे में बहुत सारी बातें बताते रहते थे, परन्तु धन्य हैं उसके पिता, जो अपने भाई के विरुद्ध कुछ कहना तो दूर, सुनना भी पसन्द नहीं करते थे।

समय बीतता रहा, जैसे-जैसे राधाचरण ऊंची कक्षाओं में पहुंचने लगा, घर की स्थिति बद से बदतर होती चली गयी। कर्जे और परिवार के भरण-पोषण के साथ राधाचरण की पढ़ाई पर होने वाले व्यय को, आय के एकमात्रा साधन कृषि से उसके पिता किसी तरह पूरा कर पा रहे थे। राधाचरण जब बी.ए. में प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण हुआ, तब उसके पिता गद्गगद हो उठे थे। उन्हें फिर आस बंधी थी। उस दिन राधाचरण ने भी महसूस किया था कि जब उसके चाचा के डॉक्टरी पास करने की सूचना उसे पिता को मिली होगी, तब वह इसी तरह गद्गगद हुए होंगे। यह सब याद आने पर उसका गला भर आया था और आंखें नम हो गयी थीं।

तब उसके पिता ने स्थिति भांपते हुए कहा था, ‘‘बेटे! मनुष्य की स्थिति सदैव एक-सी नहीं रहती, उसमें बदलाव आता रहता है। रात के बाद दिन आता ही है। मनुष्य को अपने कर्तव्यों से च्युत नहीं होना चाहिए। उसे सदैव अपने कर्तव्यों को ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए। भले ही अन्य लोग उसके प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाएं, तब भी नहीं, क्यों राधे?’’ …और फिर वह अपने पिता की सीख को ध्यान में रखकर अपने कर्तव्यों को निभाते हुए, अपने पिता के सपनों को साकार करने के लिए, अंधेरे के बाद उजाला लाने के लिए, जी जान से जुट गया।

राधाचरण की मेहनत रंग लाई। उसने पी.सी.एस. की लिखित परीक्षा प्रथम प्रयास में ही पास कर ली थी। साक्षात्कार भी अच्छा हुआ था। उसकी इस सफलता से सभी को प्रसन्नता हुई थी। फिर भी राधाचरण अन्य प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं की तैयारी करता रहा। इसी क्रम में उसने भारतीय स्टेट बैंक की प्रोबेशनरी ऑफिसर की लिखित परीक्षा भी प्रथम प्रयास में पास कर ली थी। इसी के साक्षात्कार के लिए कल वह गांव से चला था।

झांसी रेलवे-स्टेशन के प्लेटफार्म पर उतरकर राधाचरण अपने चाचाजी के बारे में सोचते हुए उनके निवास की ओर चल पड़ा, ‘आखिरकार वह पिताजी के सगे छोटे भाई हैं। वे मेरी प्रगति को सुनकर जरूर हर्षित होंगे। पिताजी के साथ उनकी बेरुखी के अन्य कारण भी हो सकते हैं, जो उसे पता न हों।’

राधाचरण ने अपने चाचाजी की विशाल कोठी में झिझकते हुए प्रवेश किया। चाचा जी का नौकर उसे अन्दर ले गया। चाचाजी उस समय कोठी में नहीं थे। चाची जी व उनकी बेटी, बेबी उससे मिलीं। उसने चाची जी के पैर छूने के बाद उन्हें अपना परिचय दिया। अपनी उपलब्धियां बिना उनके पूछे परस्पर संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से उन्हें बताईं, परन्तु उनकी चाची ने उसके प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई और अपने वैभव का बखान करते हुए उसे बताने लगी, ‘‘बेबी को फॉरेन पढ़ने भेजना है, निकी के लिए कल ही एक कार खरीदी है। देखो, वह वीसीआर आज ही निकी लेकर आया है, पुराना वीसीआर कुछ गड़बड़ करने लगा था, जिसे उसने उठाकर बाहर फेंक दिया और नया वीसीआर ले आया, बहुत खर्चे हैं।’’

राधाचरण ने अपनी चाची के अन्दर अभिजात्यवर्ग की गंध को स्पष्ट महसूस किया। इस बीच उसके चाचा जी आ गये। उसने उनके पैर छुए, पर उसके चाचा जी ने उससे कुछ भी नहीं पूछा और अपनी बेटी बेबी से अंग्रेजी में बात करने लगे। ऐसी स्थिति में वह अपने पिताजी का पत्र चाचा जी को देने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। काफी अन्तर्द्वन्द्व के बाद उसने पिताजी का पत्र चाचा जी को दिया।

चाचा जी ने पत्र पर उपेक्षित दृष्टि डाली और उसे पूरा पढ़े बिना मोड़कर टेबिल पर रखी किताब के नीचे दबा दिया और बेबी से पुनः अंग्रेजी में बात करने लगे। राधाचरण को लगा जैसे चाचा जी ने किताब के नीचे पत्र को नहीं बल्कि उसके अब तक के प्रयासों को, उसकी उम्मीदों को दबा दिया हो। चाचा जी से इस रुखे व्यवहार की उसे कतई उम्मीद नहीं थी। पत्रा के विषय में या अपनी मजबूरी बताने की उसकी इच्छा समाप्त हो चुकी थी। उसे आए लगभग एक घंटा बीत चुका था, परन्तु किसी ने उसे अभी तक एक गिलास पानी तक के लिए नहीं पूछा था। इस उपेक्षित और तिरस्कारपूर्ण व्यवहार से वह तिलमिला उठा और गांव वापसी का उसने मन ही मन निश्चय कर लिया।

राधाचरण के सामने गांव वापसी के लिए किराये की समस्या बरकरार थी। वह इस विषय में अभी सोच ही रहा था कि उसका हमउम्र चचेरा भाई निकी वहां आ गया। निकी के आ जाने पर गांव वापस जाने के लिए किराये की व्यवस्था विचित्र ढंग से अपने आप ही सुलझ गयी। हुआ यह था कि निकी अपने साथ एक विदेशी कीमती जरकिन खरीदकर लाया था, जिसे वह सभी को दिखलाते हुए उसकी कीमत बाईस सौ रुपये बता रहा था। एकाएक निकी की दृष्टि राधाचरण की जर्सी पर पड़ गयी। उसे राधाचरण की सूती जर्सी जंच गयी। उसने निःसंकोच राधाचरण के सामने उसकी सूती जर्सी की मांग रख दी।

राधाचरण ने निकी के मांगने पर अपनी सूती जर्सी उतारकर उसे सौंप दी। अपने कोट की जेब से निकी ने अपना पर्स निकाला और उसमें बचे दस-दस रुपये के कुछ नोट राधाचरण के मना करने के बावजूद जबरदस्ती उसकी जेब में रख दिए। गांव वापसी के किराये की व्यवस्था होते ही राधाचरण को एक पल भी रुकना भारी ही नहीं पड़ रहा था बल्कि अत्यन्त अपमानजनक लग रहा था। औपचारिकतावश उसने सभी से अपने जाने की अनुमति मांगी, जो उसे तत्काल मिल गयी।

कोठी के बाहर आकर राधाचरण ने अपनी शर्ट की जेब में रखे हुए दस-दस के नोट बाहर निकालकर गिने, कुल चार नोट थे। उसे याद आया पिछले दिनों, जब वह पीसीएस का साक्षात्कार देने इलाहाबाद गया था, तब उसने वह सूती जर्सी एक सौ साठ रुपये में खरीदी थी। राधाचरण सीधे रेलवे स्टेशन आ गया। किसी तरह जागते हुए उसने प्लेटफार्म पर गुजारी। अगली सुबह, जब वह अपने गांव की ओर जाने वाली ट्रेन में बैठा, तब उसके चेहरे पर कोई तनाव नहीं था।

ट्रेन की गति धीमी हो चली थी। शीघ्र ही स्टेशन आ गया। ट्रेन प्लेटफार्म के किनारे मन्थर गति से रेंगने लगी। राधाचरण ने खिड़की के बाहर झांका। सामने की दीवार पर किसी फिल्म का पोस्टर चिपका हुआ था। उस पर लिखे शब्द दूर से ही चमक रहे थे, ‘वक्त-वक्त की बात’। राधाचरण की दृष्टि पोस्टर पर लिखे शब्दों पर जम गयी। जब उसकी दृष्टि दूर होते पोस्टर से हटी तो आज साक्षात्कार में दिल्ली न पहुंच पाने के बावजूद उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही दृढ़-निश्चयी मुस्कान को कोई भी देख सकता था।

लोक साहित्य क्यों जरूरी है 

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