Kanhda /Dhobiyai Nritya कानड़ा/धोबियाई नृत्य

बुन्देलखंड का Kanhda /Dhobiyai Nritya  मूलतः जातिगत नृत्य हैं। धोबी समाज के लोग इसे करते है। इसलिए कहीं-कहीं ये नृत्य धुबियाई नृत्य भी कहलाता है। काँनड़ा कान्हा (कृष्ण) से संबंधित कथागीतों का पुरुषप्रधान व्यक्ति पर केन्द्रित नृत्य है, जो विवाह-संस्कार के प्रसंगों, जैसे मैर (मैहर) का पानी भरने, वर की राछ फिरने, द्वारचार या टीका, चढ़ाव चढ़ना, भाँवरें पड़ना, वधू की विदा आदि में यह नृत्य होता था।

बुन्देलखंड के इस Kanhda /Dhobiyai Nritya मेे नर्तक को नेंग के अलावा बंधेज की धनराशि भी मिलती थी। इस कारण इस नृत्य का उत्कर्ष मध्यकाल में स्पष्ट है। कृष्णपरक कथागीतों का लोकप्रचलन 15 वीं शती में हुआ था, तभी काँनड़ा लोकनृत्य जन्मा था और मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में पल-पुसकर यौवन को प्राप्त हुआ। फिर 20 वीं शती के प्रथम दो दशकों तक उसका उत्कर्ष काल रहा, बाद में धीरे-धीरे अवनत होता हुआ लुप्त होने की कगार पर आ गया।


कानड़ा नाचने वाला प्रधान नर्तक होता है। कानड़ा का विशेष वाना (पोषाक) होता है। नृत्य में रूचि रखने वाले युवक को परम्परानुसार वाना दे दिया जाता हैं। कुछ समय पूर्व तक तो विवाहों में यह अनिवार्य रूप से किया जाता रहा है। वर्तमान में यह प्रायः लुप्तप्राय नृत्य हैं। समाज की वैवाहिक रस्मों में जैसे मेहर का पानी भरने अथवा दुल्हे की रछवाई निकलने पर, द्वारचार, टीका, भाँवर पड़ाई, विदाई आदि अवसरों पर, वैवाहिक संस्कारों के अलावा जन्म के समय भी इस नृत्य का आयोजन होता था ।

नृत्य की पोषाक या वाना मध्यकाल की प्रतीत होती है, क्योंकि उस समय राजे- महाराजे इसी तरह के बागे पहनते थे। नर्तक सफेद रंग का कलीदार बागा धारण करता है। वह सिर पर राजसी पगड़ी या साफा पहनता हैं। पगड़ी पर कलगी, कन्धों पर रंगीन कलात्मक कंघिया, गले में ताबीज, कमर में फैंटा, कंधे से कमर तक सेली, कमर में रंग-बिरंगे बटुए लटकते रहते हैं।

दोनों बाजुओं में बाजूबंद, पैरों में बड़े-बड़े घुंघरू, चेहरे पर हल्का मेकप, आँखों में काजल या सुरमा। नर्तक सुसज्जित होकर ऐसा प्रतीत होता है कि उस नर्तक के रूप में कोई राजा- महाराजा हो अथवा मोरपंख लगाकर कृष्ण हो। नर्तक नृत्य के लिए सुसज्जित होता है तो उसे कानड़ा बनना कहा जाता है।

इस नृत्य को घूम-घूमकर नाचा जाता है। घेरे को बुन्देली में कोण भरना कहा जाता है और इस नृत्य को भी घेरे में नाचते हैं। इसलिए इस नृत्य का नाम काड़रा नृत्य पड़ा।  काड़रा नृत्य का प्रमुख वाद्य सारंगी या केकड़िया हैं। इस वाद्य को काड़रा नर्तक स्वयं बजाता है। मुख्य गायन भी वही करता हैं। अन्य वाद्यों में खंजड़ी, मृदंग, तारें, झूला तथा लोटा प्रयुक्त होते हैं।  
गायक जब कथा गायन करता है तब बीच-बीच में उसे संवाद भी बोलने पड़़ते हैं। दोहा, साखी, विरहा, गारी, भजन, भगत प्रायः सभी तरह के गायन इस नृत्य में किया जाता है। विभिन्न श्रृंगार, हास्य, वीर, शांत,करूण, रसयुक्त लोकगीत, धुनों के आधार पर विरहा, रामपुरिया, बधाई, आदि नामों से इस नृत्य को जाना जाता है।

नृत्य के प्रारम्भ में ’सुमिरनी‘ गायी जाती है और नर्तक मध्य लय में थिरकता है। वह मृदंग के ताल पर ठुमक-ठुमक कर एक पैर पर दूसरा पैर मारकर तिरछा चलते हुए लंबाई में नाचता है और कसावरी बजने पर फिरकियाँ लेता है। कटि को थोड़ा झुकाकर केंकड़िया बजाते हुए वह झूमता है और दर्शकों तक फिरकियाँ मारता नृत्य करता है।

कृष्ण अच्छे और कुशल नर्तक थे, तभी तो नर्तक की दु्रति में हर गोपी के निकट दर्शित होते थे। काँनड़ा में विरहा, दादरे, लमटेरा और राई गीत गाये जाते हैं। गीत की धुन बदलने पर पैर बदलते हैं और साज एवं वाद्य भी। इस दृष्टि से नृत्य को बिरहा, रमपुरियाई आदि नाम से जानते हैं।

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लोकनृत्य के इस महत्व के दौर में काँनड़ा जैसे प्राचीन पारस्परिक लोकनृत्य को उपेक्षित करना कठिन है। पहले कहीं-कहीं स्त्रियाँ भी भाग लेती थी और समूह में नृत्य करती थीं। काँनड़ा लोकनृत्य में गाये जाने वाले कुछ लोकगीतों इस प्रकार हैं।

मैर का पानी भरने का गीत
जल भरबे कौ गौरा चली बिचारी।
पनघट पै झोंका खा गई गौरा, महादेव की नारी।
हाँथ में लोटा, बगल में धुतिया, चाल चले गौरा मतवारी।
इन गौरा को रूप देखकें, समुद हँसो दैकें किलकारी।
किन की बहू, कौन की बेटी, कौन पुरूष की नारी?
कौने राजा खों प्यास लगी, कौन पठै दई सुघर पनिहारी?
राजा हिमांचल की बेटी कहिये, महादेव की नारी।
बूढ़े नादिया खों प्यास लगी है, उनई नें पठाई सुघर पनिहारी।।

द्वार पर टीका के समय का गीत
सिवसंकर ब्याहन आये।
कका, बाप, कुटुम नईं जिनके, कौनै नाम धराई?
आजी दाई भाई नईं जिनके, कौन दूद पिलाई?
बैन, फुआ कोऊ न जिनके, कौने तेल चढ़ाई?
आजे बाजे जुरे न जिनको, डमरू लैकें आये।
सिर पै मौर बँधे न जिनको, गले नाग लिपटाये।।

कृष्ण जी का गारी गीत
जमुन जल भरन न जइयो, प्यारी राम दुलइया।
मैं जमना जल भरन जा रई ती,
उतें सें पनहारन आ रई ती,
बानें बिथा कथा कै दई ती,
ऊधम मचा रओ मारग में, छलिया कुँवर कनइया।जमुन।
बाकी कई एक न मानी,
इतने में आ गयी जिठानी,
बाके संग भरन गयी पानी,
पानी भरकें लौटन लागी, आकें मचो धमइया।जमुन।

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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