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Jalsur Ka Vivah- Kathanak जलशूर का विवाह- कथानक

रानी मल्हना बनाफरों की पालन करने वाली माता थी। उसने इन्हें सदा प्रेम और अपनापन दिया। मलखान के निधन के पश्चात् उसका पुत्र जलशूर युवा हुआ। माता मल्हना को स्वप्न हुआ। गजमोतिन (मलखान की सती पत्नी) ने स्वप्न में कहा, “मैं होती तो अपने जवान बेटे के विवाह की चिंता करती। अब jalsur Ka Vivah आपका कर्तव्य है। आपने इसके पिता को पाला, विवाह करवाया; अब जलशूर का विवाह भी आप करवाइए।”

मलखान के पुत्र जलशूर का विवाह


रानी ने स्वप्न की बात चंदेला राजा परिमाल से कही। राजा ने ऊदल को बुलवाया। आल्हा ने सारी बात ऊदल से सुनी। जलशूर का विवाह करने का निश्चय किया। सभी भाई-भतीजे और परिवारी तैयार हो गए। सेना सजाकर दिल्ली आ पहुँचे। पृथ्वीराज ने हरकारा भेजा, ताकि पता कर सके, कौन राजा चढ़ आया है, क्या चाहता है?

हरकारे से पत्र लेकर ऊदल ने पढ़ा। फिर पृथ्वीराज को उत्तर लिखा, “आपने कभी मलखे से उसके पुत्र के विवाह का वायदा किया था। अब वह जवान है, विवाह के योग्य है। मलखान नहीं है तो क्या हुआ। आल्हा-ऊदल अपने भतीजे की बरात लेकर आए हैं। जल्दी से भाँवर की तैयारी करो।”
हरकारे ने पृथ्वीराज से सारी बात कही। तब पृथ्वीराज के पुत्रों ने कहा, “आप चिंता मत करो। हम बनाफरों को दिन में तारे दिखा देंगे।” युद्ध की तैयारी फटाफट हो गई। पृथ्वीराज की तोपें चलने लगीं। हाथी, ऊँट, घोड़े तोपों के गोले लगते ही गिर पड़ते। आदमी के तो चीथड़े उड़ जाते। महोबावालों ने भी जवाब दिया। दिल्ली के निवासी दुःखी हो गए। महोबे की फौज भी गोलों से परेशान हो गई। पृथ्वीराज ने संदेश भेजा, “अब तोपों की लड़ाई बंद करो। पैदल की सेना को लड़ाकर फैसला कर लो।” संदेश पाकर ऊदल ने भी तोपें बंद करवा दीं। पैदल सिपाही आपस में भिड़ गए। तलवारें खटाखट बज उठीं।

इंदल (आल्हा का पुत्र) ने कहा, “ऊदल चाचा! आपने बहुत युद्ध कर लिये। आज पृथ्वीराज के पुत्रों से मुझे भिड़ने दो।” उधर पृथ्वीराज का पुत्र सूरज रण में आ रहा था। इधर से इंदल आगे बढ़ा। आमने-सामने का युद्ध हुआ। अपने-पराए की सुधि नहीं रही। सैनिकों के शीश कट-कटकर गिरने लगे। फिर सूरज और इंदल भिड़ गए। सूरज ने पाँच सांग चलाई और तलवार के वार किए, पर इंदल ने बचा लिये। इंदल के पहले ही वार में सूरज गिर पड़ा। इंदल ने फुरती से उसे बंदी बना लिया। बंदी सूरज को ऊदल के पास भिजवा दिया। मोती और चौंडा, दोनों ने इंदल को घेर लिया।

जलशूर ने कहा कि मुझे भी युद्ध में दो-दो हाथ करने की अनुमति दीजिए। ऊदल की आज्ञा पाकर जलशूर भी रण में कूद पड़ा। प्रायः युद्ध में दूल्हे को नहीं जाने देते हैं। जलशूर की बहादुरी देखकर मोती तो भाग ही गया। चौंडा पंडित को जलशूर ने कैद कर लिया। पृथ्वीराज ने फिर नाहर सिंह को भेजा। ऊदल ने सुरंग बनाकर बारूद भर दिया। जैसे ही दिल्ली की फौज वहाँ आई, सुरंग को उड़ा दिया गया। कुछ जल गए, कुछ मर गए; बहुत से भाग गए। महोबे की फौजें किले में घुस गई। पृथ्वीराज के बेटों को बाँध लिया। स्वयं पृथ्वीराज महल में छिप गया। रानी अगमा ने ऊदल को आश्वासन दिया कि कल प्रातः भाँवर डलवा दूंगी, अब युद्ध बंद कर दिया जाए।

अगले दिन प्रातः मंत्री ने भी यही सलाह दी कि बेटी मंदाकिनी की भाँवर डलवा दी जाएँ। पृथ्वीराज ने नेगी भेज दिया और दूल्हे सहित मंडप में आने का निमंत्रण दिया। दूल्हे को पालकी में बैठाकर बनाफर परिवार पृथ्वीराज के महल में पहुँच गया। सुंदर मंडप सजाया गया था। पंडित ने बेदी सजाई। मंदाकिनी को श्रृंगार करवाकर लाया गया। उसकी एक-एक लट में सौ-सौ मोती गुंथे हुए थे। पाँच मुहर से बनी नथ नाक में पहनी थी, होंठों पर बुलाक लटक रहा था। बाजुओं में भुजबंद, छन, कंगन और पछेली पहनी। अँगूठे में आरसी, जिसमें नगीनेदार शीशा था। पैरों में कड़े, छड़े, पाजेब और लच्छे। सब गहने बिटिया की सुंदरता में चार चाँद लगा रहे थे।

इधर पंडित ने गणेश पूजन करवाया, गौरी पूजन और नवग्रह पूजन के पश्चात् गठबंधन करवाकर हवन और फेरे की तैयारी कर ली। पहला फेरा शुरू हुआ तो सूरज ने तलवार का वार कर दिया, जिसे इंदल ने अपनी ढाल पर रोका। दूसरा फेरा शुरू हुआ तो नाहर सिंह ने तलवार खींच ली, तब ऊदल तलवार निकालकर खड़ा हो गया और ललकारा, “अब अगर किसी ने वार किया तो अंजाम उसे ही नहीं, सबको भुगतना पड़ेगा।” पृथ्वीराज ने फिर सबसे कहा कि कोई अब विवाह में बाधा न डाले। लड़के तो बैठ गए। फिर चौंडा राय ने कहा, “मैं इनसे छल से बदला लूँगा।”

उसने महल में सात सौ शस्त्रधारी सैनिक छिपा रखे थे। पृथ्वीराज ने चुपके से कहा, “यदि हो सके तो इस ऊदल को मार डालो।” चौंडा ने संकेत किया और हल्ला बोलते हुए सात सौ सैनिक मंडप में आ धमके। आल्हा ने आदेश दिया, “अपनी तलवारें निकालकर रक्षा करो। जिसे देखो, मारा-मार मचा दो। बिल्कुल मत डरो।”

फिर इंदल, ढेवा, ऊदल, जगनिक जितने भी वीर थे, सबकी तलवारें ऐसी चलीं कि एक घंटे में पाँच सौ सिपाही मारे गए। खून की नदियाँ बहने लगीं। चौंडा को इंदल ने बाँध लिया। बोला, “ब्राह्मण है, इसलिए तुझे मारकर पाप सिर पर नहीं लेता।” फिर पृथ्वीराज ने हाथ जोड़कर कहा, “अब शांत होकर काम पूरा होने दें।” अब शूर के बाकी फेरे डलवाए और ऊदल बोला, “अब तुरंत विदा करो।” रानी ने संदेश दिया, “हमारे रिवाज से बेटी गौने को ही विदा की जाती है। आप लोग जाओ, गौने की जब खबर करें, तब आकर विदा करा ले जाना।”

ऊदल ने तब ललकारकर कहा, “आपका रिवाज हम नहीं मानते। हम तो डोला विदा करवाए बिना जाएँगे ही नहीं।” पृथ्वीराज समझ चुका था कि ऊदल ने कह दिया तो अब यह मानेगा नहीं। अतः अपने परिवार और रानी को समझाकर डोला विदा करवा दिया। बहुत सी कीमती वस्तुएँ और दासियाँ भी साथ भेजीं। विदा होकर डोले सहित सब महोबा पहुँचे। रानी मल्हना ने स्वागत की सब तैयार कर रखी थी। डोले से पोते और पोतबहू मंदाकिनी को आरती करके उतारकर महल में ले गई। सभी नेगियों, दासियों आदि को तरह-तरह के उपहार देकर विदा कर दिया। फिर सिरसा भेजने से पहले कुछ दिन अपने महल में ही लाढ़ लढ़ाए।

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