यह त्योहार बुंदेलखंड का खेल परक लोक पर्व है। Bundeli Jhinjhiya/ Dhiriya एक मटकी के ऊपरी भाग में चारों ओर छेद कर लिए जाते हैं। फिर आधे भाग में राख भरकर उस पर एक दीपक में तेल-बाती डालकर उसे जलाकर रख देते हैं। उसे ही ढिरिया या झिंझिया कहते हैं।
बुंदेलखण्ड में क्वाँर की नौदेवियों में किशोरियाँ नौरता नामक एक धार्मिक भावों से भरा खेल खेलती हैं जिसे Bundeli Jhinjhiya/ Dhiriya कहते हैं। जिसमें लोककलाओं का संगम मिलता है। उसमें गायन, नर्तन और चित्रांकन की लोककलाएँ खेल-खेल में सीखने की व्यवस्था है।
क्वाँर शुक्ल नवमी खेल का अंतिम दिन होता है, जिसमें पूजा के बाद सभी किशोरियाँ गौरा-महादेव की मूर्तियाँ सिराने तालाब या नदी जाती हैं और सिराकर पीछे की ओर नहीं देखतीं। रात्रि होते ही ढिरिया या झिंकिया फिराई जाती है। एक मटकी के ऊपरी भाग में चारों ओर छेद कर लिए जाते हैं। फिर आधे भाग में राख भरकर उस पर एक दीपक में तेल-बाती डालकर उसे जलाकर रख देते हैं। उसे ही ढिरिया या झिंझिया कहते हैं।
एक किशोरी ढिरिया को अपने सिर पर रख लेती है और आगे-आगे चलती है। उसके पीछे सब किशोरियाँ रहती हैं। वे सब बारी-बारी से पास-पड़ोस के घरों में जाती हैं और हर घर के द्वार पर खड़े होकर गाती हैं –
तुम जिन जानो भौजी माँगने, नारे सुअटा, घर घर देत असीस।
पूत जो पारो भौजी पालने, नारे सुअटा, बिटियन अच्छत देव।
लै अच्छत भौजी निग चली, चँदने रिपटो पाँव।
चँदने रिपटीं भौजी गिर परीं, नारे सुअटा, अच्छत गये बगराय।
जितने अच्छत भौजी भौं परे, नारे सुअटा, तितने दुलैया तोरें पूत।
पूतन पूतन भौजी घर भरै, नारे सुअटा, बहुअन भरै चितसार।।
गीत के साथ ढिरिया के चारों ओर घेरा बनाकर वे नृत्य करती हैं। इस नृत्य में पद और हस्त-चालन से तो रहता ही है, पर मुख मुद्रा की अभिव्यक्ति भी असरदार होती है। यह नृत्य अधिकतर सम पर रहता है, दु्रत पर कम ही जाता है। फिर भी इससे लोकनृत्य की सीख मिलती हैं। वस्तुतः इस नृत्य में उस आदिम नृत्य की प्रतिच्छाया है, जो अग्नि के चारों ओर घेरा बनाकर किया जाता था। स्पष्ट है कि इन लोकनृत्यों में आदिम नृत्यों का बढ़ाव ही है।
जब बालिकाएँ झिंझिया लेकर घर घर जाती है तो ये गीत गाते हुए परिवार को आशीष देती हैं।
अपनी गौर को पेट पिरानो सारे लडुआ हप्प।
अपनी गौर को लड़का भओ ,सारे लडुआ हप्प।
पराई गौर को पेट पिरानो ,सारे लडुआ हप्प।
पराई गौर के बिटिया भई, सारे लडुआ हप्प।
जब घर-घर घूमते हुए पर्याप्त धन और अनाज एकत्रित हो जाता है तब सब बालिकाएँ मिलकर दसवीं अर्थात दशहरा के दिन भोज का आयोजन करती हैं । मिठाईयां भी परोसी जाती हैं और भोज करते हुए बालिकाएँ यही गीत गाती हैं। इस प्रकार नौ दिन तक चलने बाला नौरता पर्व विराम पाता हैं। बालिका के विवाह के उपरांत उसे मायके में आकर नौरता उजाना की रस्म करनी पड़ती है क्यों कि इसके बाद वह नौरता में भाग नहीं ले सकती।
सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल