कविवर Dr. Durgesh Dixit का जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी सोमवार, संवत् 1995 को ग्राम कुण्डेश्वर जिला टीकमगढ़ (मप्र.) में श्रीमती रामकुँवर देवी की कुक्षि से हुआ। इनके पिता श्री महादेव प्रसाद दीक्षित साधारण कृषक थे। प्रारंभिक अध्ययन पं प्रेमनारायण जी मिश्र के सान्निध्य में रहकर किया।
कविवर दुर्गेश दीक्षित की बुद्धि की प्रखरता और लगनशीलता के कारण वे गुरुजनों के कृपापात्र बने रहे। पड़ोसी होने के कारण बचपन से ही पं. बनारसीदास चतुर्वेदी के परिवार के बीच रहने का अवसर मिला जिससे साहित्यिक अभिरुचि में विशेष वृद्धि हुई। हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरान्त शिक्षक प्रशिक्षण लिया और शिक्षक पद पर नियुक्ति पा ली।
पत्नी की सद्प्रेरणा ने उन्हें आगे बढ़ने में विशेष सहयोग दिया
कविवर दुर्गेश दीक्षित का विवाह श्रीमती गिरजा देवी के साथ हुआ। सौभाग्यवश पत्नी की सद्प्रेरणा ने उन्हें आगे बढ़ने में विशेष सहयोग किया। उन्होंने एम.ए. हिन्दी और एम.ए. संस्कृत की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। पीएच.डी. की उपाधि लेने के बाद डी.लिट. के लिये प्रयासरत हैं और साहित्य की सेवा में निरन्तर संलग्न हैं। मंचीय कवि के रूप में भी इन्होंने बहुत ख्याति पाई। दस वर्ष तक हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्राचार्य के पद पर रहे। शासकीय सेवा करने के उपरान्त सेवानिवृत्त हुए।
प्रकाशित ग्रंथ :
1 – बलिदान (खण्ड काव्य)
2 – अवंती बाई की सचित्र शौर्य गाथा
3 – सगुन की हरैया (बुन्देली)
4 – बुन्देलखण्ड के अमर सपूत (बुन्देली)
5 – ऋतु संहारन् (बुन्देली में पद्यानुवाद)
अप्रकाशित :
1 – प्रेम के धागे (कहानी संग्रह)
2 – चोखी चोखी बातें (कुण्डलियाँ)
3 – स्फुट रचनायें
सवैया
घूंघट ओट छिपे कित हैं, दृग चंचल सैन करें कजरारे।
घायल हाय हजार करें, जिमि वान सरासन सैं धर मारे।।।
खोल न घूँघट देव अबैं, नहिं बेयर में मर जेंय विचारे।
छूटत वान हुए बहुते ‘दुर्गेश’, हिया बिच घाव करारे।।
इस मत्तगयंद सवैये में चंचल नेत्रों वाली रमणी के नेत्रों का वर्णन किया गया है। घूँघट की आड़ लेकर रमणी के कजरारे चंचल नेत्र इशारे कर रहे हैं। जिस प्रकार किसी धनुर्धर के तीक्ष्ण बाणों से योद्धा गण घायल हो जाते हैं। उसी प्रकार उस सुन्दरी के चंचल कजरारे नेत्रों के इशारों से लोग घायल हो जाते हैं। अभी उसे घूँघट न खोलने दो अन्यथा उसके झोंके से लोग मर जायेंगे। इन बाणों के छूटने से अनेकों के हृदय में गहरे घाव हो गये हैं।
हेर हमार हिया हरती, करती मन कौ धन धान धनारी।
आनन पै मुस्कान धरी, लख पागल हो गये प्रेम पुजारी।।
चोट करें तनपै मनपै, अरु भीतर मार कटार दुधारी।
भूल गई सुधि आज मनो, उर आन बसी अति प्रानन प्यारी।।
सुन्दरी अपने मद भरे नेत्रों से देखकर हमारे मन को धन्य करती है। उसकी चेहरे की मधुर-मधुर मुस्कान से प्रेमियों का मन पागल हो जाता है। वह तन और मन पर प्रहार करती है और भीतर कटारी सी चुभ जाती है। वह प्रान प्रिया उनके हृदय में हमेशा के लिए बस जाती है।
कुण्डलियाँ
मोरे तौ मन में बसे, जे रतनारे नैंन।
गिरत गाजसी हिये पै, कर देती जब सैंन।।
कर देती जब सैन, चैन निठुँअई नई परबै।
जगत रात दिन रैन, जिया नई धीरज धरबैं।।
ऐसैं लग रओ आज, मुँदे है दुख के दोरे।
सोसत हैं ‘दुर्गेश’, भाग खुल गये हैं मोरे।।
इस कुण्डलियाँ में सुन्दरी के रतनारे नेत्रों के प्रभाव का वर्णन किया गया है। मेरे मन में लालिमायुक्त नेत्रों ने निवास कर लिया है। उस युवती के दृष्टि निक्षेपण मात्र से हृदय पर गाज सी गिर जाती है। जब वह नेत्रों से संकेत करती है तो तनिक भी शांति नहीं रहती। उस प्रेम की पीर के कारण रात दिन नींद नहीं आती और हृदय में धैर्य नहीं बंधता। ऐसा लगता है मानो दुर्दिन निकल गये हैं और भाग्योदय हो गया है।
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)