Madhau Singh Bundela माधौ सिंह बुन्देला

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Shri Madhau Singh Bundela का जन्म छतरपुर जिले के ग्राम सीलोन में सम्वत् 1927 में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री पृथ्वी सिंह बुन्देला था। ये चार भाइयों में सबसे बड़े थे। तीनों अनुजों बुद्ध सिंह बुन्देला, किशोर सिंह बुन्देला तथा पर्वत सिंह बुन्देला सहित चारों भाई भक्त प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। इनमें काव्य प्रतिभा बचपन से ही थी।

आचार्य ईसुरी एवं गंगाधर व्यास के समकालीनश्री माधौ सिंह बुन्देला

श्री माधौ सिंह बुन्देला आचार्य ईसुरी एवं गंगाधर व्यास के समकालीन कवि थे। इनकी जन्मभूमि सीलोंन के इर्द-गिर्द रनगुवाँ बाँध बँध जाने के कारण ग्रामीणों ने विस्थापित होकर नया सीलोंन गाँव बसा लिया है किन्तु पुराने सीलोंन में इनके पिता पृथ्वी

सिंह का राजमहल तथा इनके द्वारा बनवाया गया बिहारी जू का मंदिर आज भी है। यहाँ लोग समय-समय पर भक्ति भावना से ओतप्रोत हो अभी भी दर्शनार्थ जाते हैं तथा माधौसिंह की भक्तिपरक रचनाओं का सामूहिक गायन करते हैं।

श्री माधौ सिंह बुन्देला के वंशज अमान सिंह बुन्देला के अनुसार कवि माधौसिंह को फड़बाजी का शौक गंगाधर व्यास की भाँति ही था। वे फागों के फड़ों व भजन मण्डली में मस्त हो जाने के कारण अपने गाँव-घर की खबर भूल जाते थे। उनके मानस में दिनरात रचना प्रक्रिया क्रियाशील रहती थी। कभी-कभी रात में प्रकाश सुलभ न होता था तो कोयला से दीवार पर रचना लिख लेते थे फिर सुबह प्रकाश होने पर लिपिबद्ध करते थे।

श्री माधौ सिंह बुन्देला की रचनाओं का हस्तलिखित संग्रह डॉ. के.एल. पटेल को शोधयात्रा के समय जीर्ण शीर्ण हालत में प्राप्त हुआ था जिसमें दोहा, पद, सोरठा, प्रभाति, कवित्त, कीर्तन, चौकड़ियों फागें तथा छन्दयाऊ फागें हैं। इनकी अनेक रचनायें आज भी इस क्षेत्र के झमटुली, सलैया, वरद्वाहा, भुसौर, कोंड़न, गंगवाहा, हरपुरा तथा रनगुवाँ आदि गाँवों में लोकमुख में हैं। इनकी जीवन लीला सम्वत् 2002 में समाप्त हुई।

दोहा – गौरी पुत्र गनेश जू, देव बुद्धि अनुसार।
करहु कृपा जन जानके, मैटहु सोच अपार।।

भजन – भजो मन श्री गौरी के नन्दन।
चार भुजा अति सुभग विराजत माथे है चन्दन।।

सुन्डा डण्ड दन्त एक सोहत सोच सकल गंजन।
मकराकृत कुण्डल कानन में तुम संतन रंजन।।

कीजे कृपा जान जन अपनो मैटहु दुख दंदन।
माधौसिंह छवि देख मगन भये हरो विपत्ति फंदन।।

कवि गणेश वंदना करते हुए कहता है कि हे पार्वती के लाल गणेश जी ! आप मुझे आवश्यकतानुसार बुद्धि प्रदान करें। अपना सेवक मानकर कृपा करिये और मेरी अनन्त चिन्ताएँ समाप्त करिये। अपने मन को समझाते हुए कवि गौरीसुत गणेश का भजन करने का आव्हान करते हुए कहता है कि जिसके चार हाथ हैं और जिसके मस्तक पर चन्दन का बिन्दु शोभा दे रहा है।

सूँड सहित, एक दाँत की शोभा से शोभित, कानों में मकर आकृति के कुण्डल धारण किए हुए संतों के मन में आनंद उत्पन्न करने वाले गणेश जी अपना भक्त जानकर मेरे समस्त दुख दर्दों का हरण कर कृपा कीजिए। माधौसिंह कहते हैं कि यह छवि देखकर वे उसमें तल्लीन होकर समस्त विपत्तियों के फन्दों का हरण करने की प्रार्थना कर रहे हैं।

दोहा – प्रगट भये भायन सहित, अवध पुरी हरि आन।
बाल चरित्र लागे करन, भूपत हित नारायन।।

भजन – खेलत चारऊ भाई भूप गृह शोभा छाई।
भीतर से जननी अति आतुर- दीनो मोदक लाई।।

कर लो तात कछू अव भोजन फिर तुम खेलो जाई।
देख हरि गये मुस्काई।।

कछुयक डार भूमि में दीनों कछुयक लीन चबाई।
काग भुसुण्ड कागतन करके किनका बीनत खाई।।

बचन तनकौ न पाई।।
देख-देख किलकत है ताको धाये चारऊ भाई।

कर पसार जब पकरन धाये-भागो काग उड़ाई।
मचल तब गये अंगनाई।

झंगुली फार फेंक दई टोपी, रो रो रार मचाई।
कौशिल्या कैकई सुमित्रा धाई तीनऊँ माई।

झपट लये गोद उठाई।
कोकिल सुआ हंस और मैना देहौ मोर मंगाई।

माधौ सिंह बल जाय तुम्हारी रहिये लाल रंगाई।
मात बहु रहीं समुझाई।

कवि माधौसिंह कहते हैं कि विष्णु भगवान, राजा दशरथ के लिए अवधपुरी में भाइयों सहित प्रकट हुए हैं अर्थात् उन्होंने अवतार लिया है, और अवधपुरी में भाइयों सहित बाल लीलाएँ कर रहे हैं। राजा के घर में चारों भाई खेल रहे हैं, जिससे राजन् के घर में प्रसन्नता छा गई है, शोभा बढ़ गई है।

राजमहल के भीतर से माता उनके खाने के लिए लड्डू लाई है, तथा वह कहती है कि हे लाल! पहले भोजन कर लो, फिर खेलो। माता को देखकर भगवान मुस्कुरा रहे हैं। विष्णु बाललीला करते हुए कुछ मोदक खा रहे हैं, और कुछ धरती पर गिरा रहे हैं, और जो मोदक धरती पर गिरे हैं, काकभुसुण्ड कौवे का रूप धारण कर बचे अंश खा रहे हैं, और उन्होंने पूरा शेष भाग खा लिया है।

इस क्रिया को देखकर चारों भाई हंस रहे हैं, और जब वह हाथ पसार कर उन्हें पकड़ने आते हैं, तो कौआ उड़ गया तब रामचन्द्र जी आँगन में मचल गए। उन्होंने अपना झबला फाड़ दिया है, टोपी फेंक दी है और जोर-जोर से रोते हैं, तब कौशल्या, कैकई, सुमित्रा तीनों माताएँ आती हैं, और बालकों को गोद में उठा लेती हैं। तब माता मनाती हुई कहती हैं कि हम कोयल, तोता, हंस और मैना मँगा कर देंगे।  कवि माधौ सिंह कहते हैं, मैं ऐसी बाल क्रीड़ाओं को देखकर बलिहारी जाता हूँ, उनकी माताएँ उनको विविध तरह से समझा रही हैं।

दोहा – ललिता राधे श्याम सों, हंस हंस पूछें बात।
केल रात भर तुम करे, उठ भागे प्रभात।।

स्थायी – आज सखी उठ आये बड़ी भोर।
कुंजन से वृषभान लाड़ली औ नन्दलाल किशोर।

उमग गात पग धरत धरनि में, परखत नख सिरछोर।
दसन वसन खंडित मुख मंडित विथरी काजर कोर।

माधौ सिंह कहत रस संग में है दोई सरबोर।।

ललिता सखी कृष्ण व राधा से हँस-हँसकर पूछ रही है कि तुम दोनों ने रात भर केलि की तथा सुबह होते ही भागे चले आये। ललिता कहती है कि तड़के ही वृषभान सुता राधा तथा नंदपुत्र कृष्ण कुंजों से चले आए हैं। उनके पैर धरती पर जल्दी-जल्दी (शीघ्रता से) पड़ रहे हैं, और वे नख से शिख तक अपने को देख रहे हैं। वस्त्र दांतों से कटे हैं और आँखों के काजल की कोर बिखर कर मुख पर छा गई है। माधौसिंह कहते हैं कि दोनों रस सरोवर में सराबोर हैं।

दोहा – मित्र कृष्ण के सुदामा, परे विपत में आन।
वसन विभूषन को कहै, असन बिना हैरान।।

स्थायी – सुदामा बहुत भये हैरान।
सत भामा बोली प्रीतम से सुनो कंत दे कान।

है हरि मित्र द्वारका तुम्हरे जाव प्रीत पहचान।।
चले हर्ष उठ वेग सुदामा वचन प्रिया के मान।

सिन्ध समीप पुरी हरि की, जहाँ तहाँ पहुंचे आन।
द्वारपाल ने खबर सुनाई सुन धाये भगवान।

भीतर लिवा गये है तिनको कीन बहुत सनमान।
लग लग हिये भेंट हरि कीन्हीं प्रेम न जाह बखान।

माधौ सिंह दई रिद्ध सिद्ध सब द्वज को कृपा निधान।।

द्वारकाधीश कृष्ण के बालसखा सुदामा विपत्ति में हैं। वस्त्र और आभूषण की बात ही छोड़ो भोजन व आवास बिना परेशान है। सुदामा की दीनता को लखकर उनकी पत्नी सुदामा से कहती है कि हे स्वामी ! कान देकर सुनिये। आपके मित्र कृष्ण द्वारकापति हैं। उनकी प्रीति पहचान कर आप उनके पास जाइये। सुदामा पत्नी की बात मानकर प्रसन्नता के साथ गति से चल दिए।

समुद्र के किनारे स्थित कृष्ण की पुरी द्वारिका में वह पहुँचकर द्वारपाल से श्रीकृष्ण तक संदेश भेजते हैं । श्रीकृष्ण संदेश पाकर दौड़कर आते हैं तथा मित्र को भीतर ले जाकर बहुत सम्मान देते हैं। बार-बार हृदय से लगाकर भेंट करते हैं, वे इतना प्रेम देते हैं कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। माधौ सिंह कहते हैं कि दीन ब्राह्मण को समस्त निधियों से कृष्ण ने आपूरित कर दिया है।

दोहा – हरि विचार मन में कियो, वामन रूप बनाय।
राजा बल सें जायकें, वसुदा लेव मंगाय।

स्थायी – वामन रूप बनाऊँ, फिर बलि छलि पै जाऊँ
माला धार लई मृग छाला पहरी चरन खड़ाऊँ।

कटि कोपीन लकुटिया कर में माथे तिलक लगाऊँ।
यह बिध बरन छिपाऊँ।

पूंछत-पूंछत डगर चलै है पहुंचे बलि के गाँऊ।
मख शाला मैं जाय भूप से कहो अपनो नाऊँ।

मैं राजन जो वर चाऊँ।
चार मास वर्षा रित आई कहो राजन कहाँ राऊँ।

तीन पैग धरनी दै राखौ, तुम्हरे नगर बस जाऊँ।
जौ जस तुम्हरो गाऊँ।।

जौ का मांगो ब्राह्मण तुमने देतन मैं सकुचाऊँ।
तीन पग की कौन चलावै साढ़े तीन नपाऊँ।

जौ बलिराज कहाऊँ।।
सुक्राचार्य सुनत चल आये सुन राजा मैं काऊँ।

ई ब्राह्मण कौ भूम न दइयो मैं तुमको समझाऊँ।
कौन गुन इनके गाऊँ।।

न मानी बलि दियो दान जब सो का चरित बताऊँ।
तीन लोक लौ हरि तन बाढ़ो जाकौ छोर न पाऊँ।

परौ बलि हरि के पाऊँ।।
होके दयाल दओ बलि को बर का नृप तोय साराऊँ।

माधौ सिंह कहत अस बानी कोमल शील सुभाऊ।
अब मैं निजपुर जाऊँ।।

विष्णु ने मन में यह विचार किया कि वामन रूप धारण करके ही राजा बलि से वसुधा माँगी जा सकती है। उन्होंने विचार किया कि ब्राह्मण वेश हेतु गले में माला, शरीर पर मृगछाल तथा पैरों में खड़ाऊँ धारण करके कमर में पीलावस्त्र बाँध माथे पर तिलक लगाया जाए। इसी विधि से अपने रूप को छिपाया जा सकता है।

उपर्युक्त रूप धारण करके वे रास्ता पूछते-पूछते राजा बलि के ग्राम पहुँच यज्ञशाला में प्रविष्ट हो अपना परिचय राजा बलि को देकर कहते हैं कि आगामी चार माह की वर्षा ऋतु में, मैं कहाँ वास करूँ? अर्थात् निवास हेतु मुझे तीन पग धरती दे दीजिए जिससे मैं आपके नगर में वास कर आपके यश का गुणगान करता रहूँ।

राजा बलि कहते हैं कि हे ब्राह्मण! आपने यह क्या माँगा? मैं इतनी छोटी भेंट देते हुए संकोच में पड़ रहा हूँ। आप तीन पग की बात करते हैं मैं साढ़े तीन पग धरती नपवाये देता हूँ, तभी तो राजा बलि कहाऊँगा अर्थात् मेरे दरवाजे से कोई खाली हाथ नहीं गया, आप कैसे जा सकते हैं?

यह खबर पाते ही शुक्राचार्य वहाँ आ गए और राजा से बोले हे राजन! तुमको मैं समझाकर कहता हूँ कि इस ब्राह्मण को भूमि मत देना, इसके गुणों का मैं बखान नहीं कर सकता हूँ। शुक्राचार्य की बात न मानकर राजा बलि ने जब दान में भूमि देने की ठान ली तो उसका चरित सुनाया नहीं जा सकता।

तीनों लोकों तक विष्णु ने अपना शरीर बढ़ाकर तीन पग में तीन लोक नाप लिए। इस रूप को देखकर बलि भगवान विष्णु के पैरों पर गिर जाता है। माधौसिंह कहते हैं कि भगवन् प्रसन्न होकर बलि को वरदान दिया और कहा कि राजन मैं तुम्हारी क्या सराहना करूं? तुम्हारा स्वभाव राजा होते हुए भी कोमल और शिष्ट है, अब मैं अपने धाम को प्रस्थान करता हूँ।

दोहा – फटो चित्त मिलबो कठिन, कोटन करो उपाय।
फिर जोरो नाहीं जुरै, जीसें जो फट जाय।।

टेक – मिलबो मुसकिल चित्त फटें सें, फट गवो नेह घटे सें।
अब बे बातें होनें नइयाँ, फिरकें कभऊँ लटे सें।

कड़ियौ गैल घाट दूरइ सें, ऐसे छैल छटे सें।।
माधौसिंह कहें दुख बिसरत, अपनौ काम सटे सें।।

कवि माधौ सिंह कहते हैं कि एक बार भी मन फट जाए तो मिलना कठिन हो जाता है। करोड़ों उपाय करने से भी वह मन जुड़ता नहीं है। जो एक बार फट गया। हृदय फटने (टूटने) से मिलना कठिन हो जाता है। प्रेम घटने से ही मन फटता है। अब वे पुरानी बातें जो चित्त जुड़े की थी, दुबारा नहीं हो सकती हैं। ऐसे छटे छलिया मित्र को दरकिनार करते हुए दूसरे रास्ते व घाट से ही निकलना चाहिए। माधौसिंह कहते हैं कि अपना काम निकल जाने पर वह दुख भूल जाता है।

दोहा – अटका बतला दो इक यारौ, जानो होय तुमारौ।
पंछी इक ऐसौ हम देखो, बेपर उड़ै विचारौ।।

अन्न खाय ना भूमै बैठै, बूढ़ौ होय न बारौ।
होबे गुनी चतुर जो इसको, भेद बताबै सारौ।

माधौसिंह कहै दंगल में, नातर हमसें हारौ।।

कवि एक समस्या रखते हुए कहता है कि मित्रों हमारी एक समस्या का समाधान कर दीजिए। तुम क्या एक ऐसे पक्षी को जानते हो? जिसे हमने देखा। वह बिना पंखों के उड़ता है, वह अन्न नहीं खाता और न ही धरती पर बैठता है। उसका न बचपन आता और न ही वह बूढ़ा होता है। जो आपमें से गुणी व चतुर हों, वे हमारा भेद बतायै। माधौसिंह कहते हैं कि समस्या पूर्ति करते हुए या तो उस पक्षी का नाम बताइये अथवा हमसे हार मान जाइये। (इसका उत्तर मन है)

दोहा – अब भई मोहन बिन हैरानी, सुनो सखी मम बानी।
हमसें प्रीत काट गिरधारी, कुब्जा कर लयी रानी।।

जाकी जात पांत कछू नाहीं, हरि के चित्त समानी।
माधौ सिंह हमसें बिछुरन कर, हिये निठुरता ठानी।।

कृष्ण के गोकुल से ब्रज चले जाने पर सखियाँ ईर्ष्या भाव से कहती हैं कि मन को मोहने वाले कृष्ण के बिना हम सभी परेशान हैं। गिरधारी ने हमसे नेह तोड़कर कुब्जा को अपने हृदय की रानी बना लिया है। उसकी जाति का भी पता नहीं है। ऐसी कुब्जा उनके मन में समा गई है। माधौसिंह कहते हैं कि सखियाँ (ग्वालिनें) कह रही हैं कि हम से बिछुड़ कर निष्ठुर कृष्ण ने न मिलने का प्रण कर लिया है।

फाग – राते आये काये तुम नइयाँ, हमें बता देव सइयाँ।
हेरें बाट रही सिजिया पै, उर बुलावो कई दइयाँ।।

डारत मदन मरोरें टोरें, अबै बैस लरकइयाँ।
माधौसिंह कयें बेग मिलौ अब, परौं तुम्हारी पइयाँ।

परकीया नायिका नायक से उलाहना देते हुए कहती है कि हे प्रिय! हमें बताइये कि आप रात्रि में क्यों नहीं आये? सेज पर मैं तुम्हारी राह तकती रही। मैंने कई बार तुम्हें आमंत्रण दिया। कामदेव की पीड़ा से मैं पीड़ित हूँ। मेरी अभी आयु ही कितनी है? मैं किशोरी हूँ। माधौसिंह कहते हैं कि विरहिन नायिका कहती है कि मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, अब तत्काल मिलिए।

छन्दयाऊ फाग

दोहा – एक गुवालिन के भवन, गये छल तककर कान्ह।
हार उतारो गरे सें, गई नार पहिचान।।

टेक – भागो लेकर हार कन्हाई, पीछे ग्वालन धाई।

छंद – धाई है बाल, मिल जाय लाल, हिया छिड़ा हाल हरवा हरसे।
बलम हमार, पूछेंगे हार, कहँ दओ डार, काड़ें घर सें।

करहैं बहुत लड़ाई।
मिले न लाल बाल को मग में।

उड़ान – कीन्हें बहुत उपाई।। भागो लेकर……………

छंद – पाई न श्याम, गई नन्द धाम
कर क्रोध बाम, बोली बानी

सुनलेरी मात, इक मेरी बात
पत तेरे हांत, हे नंद रानी।।

उड़ान – तासे तुम ढिग आई।
भागो लेकर……………

टेक – सोवत हती भवन में अपने, तौलौ गये यदुराई।
छंद – हिय हांत डार, हरवा उतार

भागे मुरार, तब मैं धाई
दीनों न मोय, दे दिया तोय

ऐसी न होय, हम पै माई।
सो दीजे हार मंगाई। भागी लेकर………….

टेक – सै लइयत माखन चोरी, जाकी ऐसई जाई।

सुन लेरी नार, कहना हमार
जो लिया हार, हरि ने तेरा

आहै मुरार, दै पूछौ मार
तू ले जा हार, यह ले मेरा

ग्वालन गई मुस्क्याई। भागो लेकर……….।।
माधौ सिंह लै हार नार कौ अपने भवन सिधारी।।

नटखट नन्दकिशोर कृष्ण एक ग्वालिन के घर छल से पहुँचे तथा उसके गले से हार उतार लिया। उस ग्वालिन ने कृष्ण को पहचान लिया। हार लेकर कृष्ण वहाँ से भागे तथा ग्वालिन उनके पीछे दौड़ी। ग्वालिन कृष्ण को ढूँढती हुई दौड़ रही है तथा कहती है कि मेरे पति हार के बारे में पूछेंगे कि तूने हार कहाँ खो दिया है? वे मुझसे झगड़ेंगे, घर से निकाल देंगे। ग्वालिन को कृष्ण रास्ते में बहुत खोजने पर भी नहीं मिलते हैं।

जब श्याम नहीं मिले तो वह नन्दबाबा के घर पहुँच क्रोधित हो यशोदा से कहती है कि हे मात! मेरी एक बात सुनो। मेरी इज्जत आपके हाथ में ही है। मेरा हार गले से निकाल कृष्ण भागे हैं इसलिए मैं आपके पास आई हूँ। मैं अपने घर में सो रही थी कि कृष्ण वहाँ पहुँचे तथा उन्होंने गले में हाथ डालकर हार उतार लिया।

वे हार लेकर भागे, उनके पीछे मैं दौड़ी, मुझे उन्होंने हार नहीं दिया, शायद आपको दे दिया हो। यदि नहीं भी दिया है तो भी उनसे मेरा हार मंगा दीजिए। मैं माखन की चोरी तो सहन कर लेती हूँ किन्तु अब हार चुरा लिया है। इस पर यशोदा कहती है कि रे नारि! यदि कृष्ण ने तेरा हार लिया है, तो उसके आने पर पिटाई लगाकर मैं पूँछुंगी, तब तक तू मेरा हार ले जा। इस पर ग्वालिन मुस्कुराकर हार लेकर अपने घर गई।

छंदयाऊ फाग
दोहा – रामसिया को भजौ नर, जो चाहौ सुख चैन।
नाहक बीते जात है, ये मूरख दिन रैन।।

टेक – भज लो राम सिया को भाई, जनम सफल हो जाई।
छंद – होवे जनम सफल उद्धार, भजलो राम सिया को यार।
हूहै भव सागर से पार, हरि गुन गायें।

देखो भजकें मीरा बाई, जाने लिया जहर को खाई।
बाके मौत पास न आई, बिस के खायें।

जानत लोग लुगाई।
भज लो………….

टेक – दुखी द्रोपदी देख प्रभू ने अम्बर दिया बड़ाई।

सौरी आय भीलनी वाम, जाकौ कोई लेय न नाम।
प्रभू गए ताही के धाम, फल ले आई।

खाये लछमन उर रघुराई, मन में बहुत गए हरसाई।
जाकौ स्वाद कहो न जाई, लछमन भाई।

तेहिं पावन गति पाई।।
भज लो…………….

टेक – गौतम तिय पाखान बीस कर दई, वेद पुरानन गाई

गनका करौ अनेकन पाप, न जानें पूजा उर जाप
तिहकीं भई वेदन में छाप, महमा भारी

जाकौ अन्त समय जब आया, हरि ने दूतों को पठवाया
अपने पासई में बुलवाया न लगी बारी।

पहुँची हरि ढिग जाई।
भज लो………

टेक – बरत अबा सें मनजारी के बच्चा लये बचाई।

भारई भारत के मैदान, बैठी धरकें हर कौ ध्यान।
रक्षा करै बेई भगवान, कै मर जाऊँ।

ताकी कीनहीं आन सहाई, दल के बीच मरन न पाई।
ऐसी-ऐसी हर प्रभुताई, कह लौ गाऊँ

जन की करत सहाई। भज लो…………
माधौ सिंह’ कहत नर तिनकी काये सुरत बिसराई।
(सभी रचनायें सौजन्य से – डॉ. के.एल. पटेल)

कवि माधौसिंह मनुष्य को चेतावनी के स्वर में कहते हैं कि तू यदि सुख-शांति चाहता है तो सीता-राम का भजन कर। जीवन के दिन व्यर्थ में बीत रहे हैं। सीताराम के भजन से जन्म सफल हो जाएगा। जीवन रूपी भवसागर से पार प्रभु के गुण गाने से ही होगा। मीरा ने भजकर देखा जिससे उसका जहर भी कुछ नहीं बिगाड़ सका।

जहर खाने के बाद भी सियाराम की कृपा से मृत्यु उसके पास नहीं आई। प्रभु ने दुखित द्रोपदी की लाज बचाते हुए उसका चीर बढ़ाया। शबरी भीलनी जिसका कोई नाम नहीं लेता था, उसके निवास पर प्रभु राम गए वह फल लेकर आई और उसके फल राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों ने प्रसन्नता से खाये। उन फलों के स्वाद की प्रशंसा की, इस प्रकार शबरी ने भी पवित्र गति प्राप्त की।

वेद-पुराण कहते हैं कि पत्थर हो चुकी गौतम ऋषि की पत्नी को सुन्दर नारी बना दिया। गणिका ने अनेक पाप किये थे, वह पूजा-जप कुछ नहीं जानती थी। उसकी वेदों में चर्चा है। उसका जब अंतिम समय आया तो उन्होंने दूतों को भेजा, देर नहीं की और उसे अपने पास बुला लिया, वह भगवान के पास पहुँच गई।

जलते हुए आवा (मिट्टी के बर्तन पकाने का स्थान) में से बिल्ली के बच्चों को बचाकर जीवन दान देने वाले भी सीताराम ही हैं। भारत भूमि के भारों का हरण भी वही सीताराम करेंगे। मैं उनका ध्यान करता हूँ। प्रभु की प्रभुताई का वर्णन मैं कहाँ तक करूँ? वह अनन्त है। वे हमेशा पीड़ित जन की रक्षा करते हैं। इसलिए सीताराम को भजन कर लीजिए। माधौसिंह कहते हैं कि हे नर! तूने ऐसे कृपालु भगवान को क्यों विस्मरण कर दिया है ?

बुन्देलखण्ड के साहित्यकार 

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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