Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिBundelkhand ki Lori बुन्देलखंड की लोरी

Bundelkhand ki Lori बुन्देलखंड की लोरी

छोटे-छोटे बच्चों को सुलाने और उनका मन  बहलाने के लिए स्त्रियों के द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत Lori  लोरी हैं। स्त्रियों के अनेक भूमिकाएँ होती हैं, माता, बहन, बुआ, दादी, नानी, भाभी, आदि स्त्री की इन्हीं भूमकिओं में लोरी गायी जाती हैं। अन्य भाषाओं और बोलियों की तरह  Bundelkhand ki Lori का अपना शब्द विन्यास है, अपनी परिकल्पना है ।

छोटे बच्चों को सुलाने और बहलाने के लिये गाया जाने वाला लोकगीत लोरी


‘बाल्य‘ रस लोरी की प्राण-धार है। लोरी मातृत्व की सहजता रागिनी है। आदिम माँ के शब्द-लय की लाडली हैं। भाषा और भाव उत्पत्ति के साथ लोरी की उत्पत्ति को परिभाषित किया गया है।

बाल-विनोद सम्बन्धी लोक साहित्य-बाल-साहित्य का सृजन प्रकृति की गोद में पले हुए सीधे, सरल ग्राम्य बालक-बालिकाओं द्वारा होता है। वही भविष्य में लोक-साहित्य के रूप में परिणत हो जाता है । इसकी प्रेरणा मिलती है खेतों की हरी-भरी बालों से, मधुर स्वर से चहचहाते हुए वन के पक्षियों से, इठलाते हुए सुवासित वन-पुष्पों से तथा गर्जन करते हुए मेघों से।

यही कारण है कि लोक-साहित्य कृत्रिमता अथवा बाह्याडम्बर से मुक्त और छन्द के विशेष बन्धनों में बन्दी न होने पर भी, रस का अक्षय स्रोत है। इसमें जन-मन की समवेत स्वर लहरी गुंजायमान होती है। बुन्देलखण्ड का बाल-विनोद साहित्य भी इन्हीं गुणों से सम्पन्न है। बाल-लीला के विविध भाव-चित्रों को लोकगीतों में जिस श्रेष्ठता से सँजोया गया है, वह देखते ही बनती है । एक ग्रामीण बहन अपने छोटे भाई के खीझने पर यह गीत गा रही है।

यह एक लोरी है । लोरी उस समय गाई जाती है, जब एक या दो बर्ष का बालक खीझता है :

कोंड़ी के रे कोंडी के,
पाँच पसेरी के।
उड़ गये तीतुर,
बस गये मोर,
सरी डुकरिया ले गये चोर ।
चोरन के घर खेती भइ,
मार डुकरिया मोटी भइ।
मन-मन पीसे मन-मन खाय,
बड़े गुरू सों जूझन जाय ।
बड़े गुरू की छपन धुरी,
तीसौं काँपै मदन पुरी


*************

एक तीर मोय मारोतो,
हिली जाय पुकारो तो।
हिरूली के घर अंशा,
गैसन में संग दान सा।
यद्यपि यह लोरी बालकों द्वारा रचित प्रतीत होती है, पर इस अर्थहीन गीत में तात्विक अर्थ छिपा हुआ है। ‘बाल्य‘ रस लोरी की प्राण-धार है। लोरी मातृत्व की सहजता रागिनी है। आदिम माँ के शब्द-लय की लाडली हैं। भाषा और भाव उत्पत्ति के साथ लोरी की उत्पत्ति को परिभाषित किया गया है।

1 -अर्थात् हे मनुष्य, तेरा यह शरीर जिसमें, जीवात्मा निवास करता है, पंच तत्व का निर्मित होने पर भी एक कौड़ी का नहीं है।

2 – तेरा वह गर्भावस्था का ज्ञान-ध्यान कहाँ उड गया? जो तू पेट रूपी नरक से मुक्त होने के लिए करता था। अब संसार में जन्म लेते ही तेरे शरीर में माया-रूपी चोरों ने अधिकार जमा लिया है। जो भक्ति रूपी डुकरिया गर्भ की अवस्था में तेरे मन में उत्पन्न हुई थी, उसको लोभ, मोह तथा मत्सररूपी चोर ले गये हैं।

3 – अब तेरे शरीर में इन्द्रियों की बन पड़ी है। माया के अधीन होकर इन्द्रियाँ कुमार्ग पर चलने लगी हैं, जिससे माया रूपी डुकरिया तरुण हो गई

4 – माया इन्द्रियों द्वारा मनमाने कार्य करने में संलग्न है, और ब्रह्मा ने जो संयम-नियम आदि बनाये हैं उनसे जूझने के लिए तत्पर है।

5- माया यह नहीं जानती है कि उसके गुरु शिव हैं, जिन्होंने अपने तीसरे लोचन से कामदेव को भस्म कर दिया था, उनकी शक्ति कितनी तीव्र है।

6 – तेरे शरीर पर उसी कामदेव ने भोग की दृष्टि से इच्छा रूपी अनेक शस्त्रों को बांधकर धावा बोला है।

7- कामदेव के तीर लगने पर शरीर की इन्द्रियों ने जीवात्मा से, जो ईश्वर का अंश है, पुकार की है।

8 -जीव, जो ईश्वर का अंश है, अपने मन से कहता है कि तू कर्म, धर्म, दान आदि शुभ मार्गों पर चल।

9 – यदि तू शुभ मार्गों पर नहीं चलेगा तो इस संसार के मानव ते हू’लू’लू’ कहकर परिहास करेंगे।

मोरे सो जा बारे वीर,
वीर की बलया ले लाउँ जमना के तीर ।
भैया की बाई मम्मन के गइ,
भैया खों घरे छोड़ गई।
आओ कूकरा करी उजार,
भैया खौं लगी थपरियां चार।
मोरे सोजा वारे वीर।
भैया की रिरियां बुकरियां चरन पहारे जाय ।
आई नदी को पान पीये राय करौंदा खाय।
मोरे सो जा वारे वीर।
प्राकृतिक भाव से पूरित इस लोरी में बहन यह भाव व्यक्त कर रही है कि भाई, माता वास्तव में बड़ी निष्ठुर है। देखो तो, तुमको घर अकेला छोड़कर मामा के घर चली गई। कुत्ता आया और नुकसान कर गया, उसके बदले में उसने तुमको मारा है। मेरे छोटे भाई सो जा। जब वह इस पर भी नहीं सोता, तब वह कहती है कि तेरी छिरिया-बुकरियाँ पहाड़ पर चरने गई हैं, और वहाँ जाकर वह बढ़ती हुई नदी का जल पी रही हैं, और बन के राय करोंदा खा रही हैं।

यह स्वाभाविक सिद्ध है कि जिसका मन जिस वस्तु में रमता है उसका नाम लेने से उसे प्रसन्नता होती है। अतः ज्योंही उसने छिरियों-बुकरियों का नाम सुना जिनके साथ वह नित्यप्रति खेलता था तो सुनते ही तुरन्त सो गया।

भूमि का यह प्रभाव है कि जब बालक उसकी गोद में खेल-कूदकर, धूलधसरित होकर उसकी पावन रज अपने मस्तक पर विनोद में चढ़ाने लगता है, उसी क्षण से उसके हृदय में भावों का सृजन होना प्रारम्भ हो जाता है। देखिये तो, बालिकाएँ, ‘था, था, थपरी’ का खेल खेल रही हैं। यह खेल इस प्रकार खेला जाता है कि एक बालिका दूसरे की हथेली को अपनी हथेली द्वारा थपथपाती हुई कहती है
था – था – थपरी ।
गया ब्यानी कबरी।
बच्छा जायौ सेत।
नाव धरौ गन्नेस।
जा भैया की ।
जा दद्दा की।
जा बैन की ।
जौ बल को खूटा।
डुकरिया रांटा-पौनी उठाइये,
लंगड़ बच्छा आऔ है ।
तेरी बहू करकसा नार ।
द है चुनी बताहै दार।
कुल-कुल-कुल-कुल

**************

झूला डरो कदम की डार,
झूला झूलें नंद कुमार।
काहे को जो बनो हिंडोला,
काहे की जोती चार। झूला…
चंदन काठ को बनो हिंडोला,
रेशम जोती चार। झूला…
का जो झूलें को जो झुलावे,
को जो खैंचे डोर।
झूला झूलें नंदकुमार। झूला…
राधा झूलें कृष्ण झुलावें,
सखियां मिचकी घाल। झूला…
*************


झुला दो माई श्याम परे पलना।
काऊ गुजरिया की नजर लगी है,
सो रोवत है ललना।
झुला दो…
राई नौन उतारो जसोदा,
सो खुशी भये ललना।
झुला दो…
जो मोरे ललना खों पलना झुलावैं
दैहों जडाऊं कंगना।
झुला दो…


एक सहेली दूसरी सहेली की हथेली को थपथपाती हुई, उसकी चारों संगलियों को क्रमशः पकड़ती हुई कह रही है कि काली गाय व्यानी है और उसके खेत बग्छा हबा है तथा यह गाय भाई की. यह बहन की. यह पिता की, एवं यह बैल का बूटा है। वह अंगूठे को बैल बांधने का खूटा बताती है। सत्पश्चात् अंगूठे को आगे बढ़ाती हुई कहती है कि लंगड़ा बच्छा आया है।

हे करिया (बृद्धा), अपने सूत कातने का रोटा और पोनियों को उठा ले। वह उस वृद्धा को यह संकेत करती है कि मेरे घर में जो वधु है, वह कलह करने बाली है । वह दाल छानने से बची हुई चुनी उसको देगी और दाल कहेगी। यह वर्णन करती हुई वह अपनी सहेली की कांख में कुलकुलाती है, जिससे दोनों हंसने लगती हैं।

एक और मनोरंजक खेल का चित्रण भी देखें । इसमें प्राचीन युग के कृषि सम्बन्धी उत्पादन-तथ्य का संकेत किया गया है ।
हिली मिली दो बालें आई का भर ल्याई, पिसी चना ।
भाव बताओ, टका पसेरी ।


इस खेल के खेलने की प्रथा यह है कि बालक-बालिकाएँ पहले एक स्थान पर एकत्र होते हैं । उसमें से एक बालक और बालिका एक-दूसरे के गले में बांह डालकर, फिर वापस आकर कहते हैं कि मिल-जुलकर दो बालें आई हैं, अर्थात् बुन्देलखण्ड में जो बेजरा (पिसी-चना) एक साथ बोया जाता है, उसकी दोनों बालें आई है।

तब उन बालक बालिकाओं में से कोई पूछता है कि ‘ये बालें क्या भर लाई है ?’ तब यह दोनों उत्तर देते हैं कि ‘पिसी-चना’ । फिर वह पूछते हैं कि ‘भाव (दर) क्या है ?’ उत्तर मिलता है कि दो पैसा की एक पसेरी।

इस विनोद गीत में उस काल का संकेत मिलता है जबकि बुन्देलखण्ड में गई-चना चार आना मन बिकता था।अब आप बुन्देलखण्ड के व्यंग्य पर शिष्ट साहित्य का अवलोकन कीजिये, यह साहित्य उस समय का परिचय कराता है जबकि बालक-बालिकाएं, कुछ। समाने होकर अपनी बुद्धि द्वारा कहने सुनने और समझने की शक्ति का अनुभव करने लगते हैं:

सूप से कान, भटा सी आँखें, काय बिटा से सूजत है ।
नाक की नकटी, भौय की चपटी, गज – मन सों जूमत है।
बारी के गिरधारी लाला, कायें हमाइ नाक चपटी ।
बैठी रऔ स्याम सुन्दरि, कायें खौं अटकी ।


एक बावड़ी के समीप मेंढकी और गिरधौरा एक साथ निवास करते थे। एक दिन उस बावड़ी के समीप से एक हाथी निकला, जिसका पैर उस मेंढकी। से अनायास छू गया। अब क्या था, वह तमककर कहने लगी-ओ सप की भाँति कर्ण वाले और बैंगन के सदृश आँख वाले तथा बिटा (कंडों का ढेर) की तरह ऊँचे शरीर वाले हाथी, क्या तुमको दिखता नहीं है, जो तूने मुझको अपनी लात मार दी? मेंढकी के कठोर और व्यंग्य वचनों को सुनकर हाथी भी क्रोधातुर होकर व्यंग्य में ही उत्तर देता है-
अरी, नासिका की नकटी,
और भौंहों की चपटी मेंढकी,


तू उस हाथी से बकवाद करके लड़ना चाहती है जो अभिमानियों के मद का मर्दन करता है। हाथी के इन व्यंग्य वचनों द्वारा जब मेंढकी के रूप पर चोट की जाती है, तब वह आतुरता के साथ अपने समीप रहने वाले गिरधौरा को ‘लाला’ शब्द से सम्बोधित करके अपना वृत्तान्त सुनाती है—गिरधारी लाला, क्या हमारी नाक चपटी है ? गिरधौरा बड़ा कूटनीतिज्ञ था, तुरन्त उत्तर देता है-अरी श्यामसुन्दरी बैठी रहो, क्यों व्यर्थ की बातों में उलझती हो?

बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

admin
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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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