बुंदेली शैली कला Bundeli Shaili Art के विषय में मिली जानकारी में बुन्देलखण्ड सर्व – प्राचीन शिलाखंडों से निर्मित होने के कारण यहाँ शैलाश्रयी मानव के निवास स्थानों की कमी नहीं है। यहाँ शैलाश्रयों एवं गुफा – भित्तियों पर प्रागैतिहासिक चित्र बहुत बड़ी संख्या में सुरक्षित है।
बुंदेलखंड में प्रागैतिहासिक चित्रकला के विशाल भंडार पर पन्ना में वृहस्पतिकुण्ड, बाराछंगा तथा पांडवनाला, अजयगढ़ में सिद्ध का सेला, झाँसी में बाघाट, बिजावर में देवरा किशनगढ़, सागर के आबचंद व नरयावली, दतिया में परासरी तथा कुलरा की गुफाओ में सुरक्षित है, जो भारत के चित्रकला इतिहास को उत्तर – पाषाण युग की प्राचीनता तक पंहुचा देता है।
शुंग – काल में मूर्तिकला का केंद्र भरहुत था, गुप्त काल में खोह का शिव मंदिर, नचनौरा तथा कुठारा का पार्वती तथा चतुर्भुज मंदिर, देवगढ़ का दशावतार मंदिर, बुंदेली शैली के चरण – चिन्ह है। इसी प्रकार की स्थापत्य – शैली प्रतिहारो द्वारा आठवीं से दसवीं तक अपनायी गयी। झाँसी – बरुआसागर मार्ग पर जरायमठ तथा मड़खेरा का सूर्य मंदिर टीकमगढ़ जिले में इस काल के निर्माण है।
चंदेल शासक श्री धंग से विद्याधर के समय तक (950-1029 ई०) खजुराहो के प्रसिद्ध मंदिरों (विश्वनाथ, पार्शनाथ, विष्णु, जगदम्बा तथा चित्रगुप्त) का निर्माण होता रहा। मदन वर्मा देव (1129-63 ई०) के समय चंदेल-राज्यान्तर्गत मदनपुर में भित्ति चित्रण का प्रथम उदाहरण है।
बुंदेली शैली की पृष्ठभूमि में मदनपुर के चित्रण, ग्वालियर के राजा मान सिंह तोमर काल के चित्रण तथा खजुराहो ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सिकंदर लोदी द्वारा सन 1518 ई० में ग्वालियर-विजय से, ग्वालियर के दरबारी चित्रकार निराश्रित होकर ही 1526 ई० में मुग़ल-दरबार में पहुंचे। जिस कारण बुंदेली-शैली द्वारा मुग़ल-संस्कृति एवं कला को प्रोत्साहन मिला। १५३१ ई० में ओरछा राजधानी बनने पर उनमें से कुछ कलाकार बुंदेलखंड वापिस आ गए।
बुंदेली-शैली में ऊर्ध्व-वस्त्र कतैया ही सर्व प्रिय परिधान है। अधो-वस्त्रों में गरगा अनवरत रूप से कलाकार बनाते रहे। बुंदेली-शैली में सपाट रंगों की शैली को अपनाया गया है। बुंदेली-शैली के कलाकारों ने शरीर रचना के लिए खजुराहो से प्रेरणा ग्रहण की और सर से छः गुना लम्बाई वाली शरीर रचना को चुना। इस शैली ने ओरछा राज्य की छत्र-छाया पाकर समस्त बुंदेलखंड में अपनी शाखाएं बढ़ाई।
महाराजा मधुकर शाह (1554-92 ई०) तथा सम्राट अकबर और महाराजा वृषांग देव (1605-27ई०) तथा जहांगीर समकालीन तथा मित्र थे। अतः ओरछा और दिल्ली के कलाकारों के आवागमन ने तत्कालीन समय में बुंदेली-शैली को प्रभावित किया। मित्रता की प्रगाढ़ता के कारण बुंदेली एवं मुगल शैली का भी समिश्रण हुआ। औरंगजेब द्वारा निष्कासित मुगल-कलाकारों को बुंदेलखंड में आश्रय मिलाने के कारण भी बुंदेली-शैली पर मुगल प्रभाव व्याप्त रहा।
शाहजहाँ के ओरछा पर आक्रमण (1634 ई०) के कारण ओरछा के चित्रकार अन्य राज्यों और जागीरों में प्रस्थान कर गए। अतः बुंदेली-शैली में स्थानीय परिवर्तनों के कारण भारत की चित्रकला को अनेक उप शैलियां प्राप्त हुईं। इस प्रकार की कृतियां पूर्वी राजस्थान से मालवा तक मिलती हैं।
बुंदेली-शैली ने आमेर, बूंदी और जयपुर की शैली के साथ मिलकर मुग़ल शैली को जन्म दिया और ओरछा से बिखर कर अन्य बुंदेली राज्यों और जागीरों की उप-शैलियों को जन्म दिया। बुंदेली-शैली ने भारतीय-चित्रकला को विशिष्ठ परिधान – कतैया, गरगा, विशाल कटिवस्त्र, मराठी धोती, पाग, साफा, सेला, मंडील, पुन्नेरी, पागोट, पगङी, शिशुपाली पन्हैया तथा पिस्सोरी जूतों के रेखांकन प्रदान किये।
बुंदेली-शैली के ग्रन्थ-चित्रण (कवि-प्रिया, रसिक-प्रिया तथा रामचंद्रिका) ने मुग़ल, राजस्थान और कांगड़ा के चित्रकारों को नवीन चित्रण का आधार प्रदान किया। विद्वानों की दृष्टि में मुगलों के अंत के बाद भारत में चित्रकला को जीवित रखने वाले राज्यों में ओरछा का प्रमुख स्थान है।
आलेख – चित्रकार श्री विकास वैभव सिंह