Khand Bundela Dekh  खंड बुंदेला देख

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‘खंड बुंदेला देख’ Khand Bundela Dekh कृति की सारी कल्पना – परिकल्पना के सारे आधार और साकोचार लोक की कहावतें, किंवदंतियां, उक्तियां – सूक्तियां और सुनी – गुनी प्रयुक्तियां हैं। इन्हीं को मूल आधार मानते हुये एक ओर आस पास के ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थलों के अनुसार समस्त तीज-त्योहार, उनके विधि विधान की परंपरा सनातन काल से गांव-गांव और घर-घर में रचे बसे हैं।

बुंदेलखंड पर्व और त्योहारों का जनपद है। सावन का रक्षाबंधन और कजरियां, भादों की मामुलिया, हरछठ, कन्हैया आठें और तीजा, क्वांर में पितर पक्ष, शारदीय नवरात्रा, नौरता, रामलीला और दशहरा, दिवाली के आगे पीछे के सभी त्योहार गोधन, दोज, मौनियां आदि बडे उत्साह और धूमधाम से मनाये जाते हैं। कुल मिलाकर आधुनिकता के दौर में हमारे जो लोकपर्व खतम हो रहे हैं, उन सभी का चित्रण ‘खण्ड

बुंदेला देख’ में किया गया है।

अग्गम दिसा में टौंस, पच्छिम में चम्बल, उत्तर में जमुना, दक्खिन में नरबदा जैसी दैवीय नाम की पावन नदियां, और उनके घाटन – किनारन के ऐंगर डग- डग तीरथ – पग-पग कुंड, सभी स्थलों के अपने पुन्य-फल और परताप, असर-कुसर की किसा-कानौतें सनातन काल से बेदन- पुरानन की पोथियन जैसौ ज्ञान कौ भान राउत आरई ।

चेदि धरा की इन चार बड़ी नदियन की खकरियन – परकोटन के बीच यात्रा करने पर कहीं चेदि से चंदेरी, लाक्षा गृह से लहार, ग्वाल गिरि से ग्वालियर, विभंडि से भिंड, दंतवक्र से दतिया, एरकच्छ से एरच, ओड़छा से ओरछा, विराट से राठ, परना से पन्ना, चरोखर से चरखारी, महोत्सव से महोबा, मल्लन हारा से मलहरा, ध्रुव-एला से धुबेला, मैया के हार से मैहर, कुंड से कुड़िया, बुंद एला से बुंदेला जैसे अनगिनते शबद मुख-सुख से अपने नये रूप ‘अदलत बदलत चलन में आये हुइयें। समय-समय पर राजन-महराजन ने अपने राज की जागीरें बनाई, राज बनाते रये, राज करत रये।

पांचवीं से लेकर बारवीं सदी तक चंदेल बंस के राजन ने पीढ़ी दर पीढ़ी केवल अपने लाने महल-किले और दुर्ग ही नहीं बनवाये। सभी ने अपनी रैयत की सुख सुबिधन के लाने पूरे राज में जगह-जगह तीरथ, मंदिर, मठ, सागर, तालब, सरोवर, चौपरे, कुंड और बावरियां आज भी अपने बुनियादी निर्माता राजाओं की कीरति को कानौतों के माध्यम से कानन में गुनगुनाहट के सुर झंकारती हैं।

कालिंजर, अजयगढ़, महोबा, खजुराहो, राजगढ़, खजुरागढ़, मनियांगढ़, खैरागढ़, बारीगढ़, धमधागढ़ आदि अनेक खड़यारा होकर जमीदोज हो गये हैं। इन्हीं महलों- किलों के आस-पास सुरंगें और भौंड़े थे, जो सभी अभी तक किसा-कानौतों के रूप में मौखिक परंपरा में सुरक्षित हैं।

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार इस कृति को आकार सहित अंजाम देने में मेरा अपना कुछ नहीं है। मूलतः कृति के ताने बानें में मेरे सहयात्री आतीत के ऐतिहासिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक चिंतक अग्रज कुंवर शिवभूषण सिंह जी गौतम, छतरपुर, और बहुभाषी तथा बहुमुखी प्रतिभा के धनी अग्रज श्री राकेश व्यास जी, बैंगलौर मेरे साथ नैपथ्य के आगे ही नहीं पीछे भी रहे हैं। बड़े गर्व और गौरव के साथ मुझे यह कहने में कोई संकोच भी नहीं कि इस संकलन को पुस्तकीय रूप में लाने का प्रेय और श्रेय आप दोनों विभूतियों को है।

डॉ.जय प्रकाश शाक्य ने अपनी तमाम अकादमिक व्यस्तताओं में से समय निकालकर मेरी इस कृति का बौद्धिक परिचय भूमिका के माध्यम से पाठकों से करवाया, जिस के लिये में उनका हृदय से आभारी हूँ। आदरणीय पंडित आशाराम जी त्रिपाठी, परा वालों ने अस्वस्थ होने पर भी मुझे अपनी विशिष्ट शैली शुभकामना संदेश भेजकर अनुग्रहीत किया है। मैं ह्रदय से त्रिपाठी जी का कृतज्ञ हूँ ।

 मैं चन्द्रनगर के श्री गणेश दत्त पटना, राकेश दत्त पटना, और आर.पी. सिंह राजपूत का आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे राजगढ़, मनियागढ़, सीलोन, और केन के तटों पर स्थित महत्वपूर्ण स्थलों का भ्रमण करवाया और उनके बारे में जानकारी उपलब्ध करवाई। समय-समय पर श्री संदीप चौरसिया ने गढ़ीमलहरा, धुबेला तथा

आसपास के समस्त महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थलों की जानकारी उपलब्ध करवाई साथ ही देवेश गुप्ता कम्प्यूटर ऑपरेटर छतरपुर ने स्वतः सारे दोहे केवल बुंदेली प्रेम के वशीभूत होकर टाइप किये। इस सहयोग के लिये दोनों बधाई सहित मेरा हृदय से धन्यवाद स्वीकार करें।

अन्त में, मैं श्री राजीव शर्मा ‘खण्ड बुन्देला देख’ के प्रकाशक का आभारी हूँ, जो पूरी लगन और निष्ठा के साथ उत्तम साहित्य के प्रकाशन में संलग्न

डा. कुंजी लाल पटेल ‘मनोहर’
हिन्दी विभाग,
महाराजा छत्रसाल बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय,
रेडियो कॉलोनी के सामने,
छतरपुर (म.प्र.)

राम की अग्नि परीक्षा 

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