बीरवल का नाम तो सभी जानते हैं। मगर Birbal का कालपी से क्या रिश्ता था …? उनका असली नाम क्या था…? वे हिंदू थे या मुसलमान…अकबर से उनका क्या रिश्ता था ….? ऐसे ढेर सारे प्रश्न हमारे मस्तिष्क में थे। इतिहास पर काम करने के लिए बहुत सारी शंकाओं के साथ भी जीना पड़ता है । तभी समाधान उत्पन्न होते हैं। संभावनाएं बढ़ती हैं। रास्ते निकलते हैं। तथ्यों से भेंट होती है….
रंगमहल के खण्डहर दरवाजे
7 मई 2022 की उमश भरी शाम के 6: बजने को हैं। मैं अपने मित्रों के साथ कालपी में बने बीरवल के किले में आ गया हूँ… आग का लाल गोला बना सूरज अभी भी ऊँची मीनारों पर टँगा हुआ धधक रहा है। प्रचंड गर्मी है। आज के तापमान की सुई 44–45 डिग्री सेल्सियस के बीच झूम रही है। मैं आया तो था अब्दुल रहीम खानखाना से मिलने मगर बीरबल साहब का रंग महल बीच में आ गया …।
बीरवल के रंगमहल की आलीशान इमारत अब खण्हरों में तब्दील हो चुकी है। इस हवेली की शानोशौकत बुरी तरह जमींदोज़ हो चुकी है। कभी बारहों माह गुलजार रहने वाले इस महल में अब चारों ओर साँय-साँय करता हुआ सन्नाटा फैला हुआ है। एक अदृश्य अँधियारा मेरा पीछा कर रहा है। इतनी खूबसूरत इमारत देख-रेख के अभाव में नेस्तनाबूद है।
एक भुतहा वीरान सी डरावनी हवेली हमारे सामने खड़ी है। अनेक इतिहासकार बताते हैं, विद्वानों लोग भी कहते है, किताबें भी कहती हैं कि यह बीरबल का किला व उनका रंगमहल है जिसे उन्होंने 1583 के आसपास बनवाया था।
कालपी के मिर्जामण्डी स्थित मुहल्ले में महान युक्तिकार बीरवल का रंग महल बना हुआ है। जो आज भी बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक बादशाह बीरबल की न्याय प्रियता व विनोदी स्वभाव की स्मृति दिलाता है। बीरबल का रंग महल कालपी के ऐतिहासिक भवनों में से एक है। इसे बीरबल का किला या बीरबल का महल के नाम से भी जाना जाता है।
बीरवल का जन्म कालपी में सन 1528 में एक गरीब कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था जो कि जंगलों से लकड़ी बीनकर अपनी जीविका चलाते थे। वे एक कुशल कवि थे जिनकी कविताओं से प्रभावित होकर राजा रामचन्द्र द्वारा उन्हें कविराय की उपाधि से विभूषित किया गया। अकबर की सान्निध्य में आने के पश्चात बीरबल को कालिंजर का जागीरदार बनाया गया और उसके पश्चात् बीरबल ने अपनी जन्मभूमि कालपी में अपना निवास बनवाया था।जिसके भग्नावशेष के रूप में रंग महल आज भी विद्यमान है।
राजा बीरबल ने कार्लिंजर की जागीरदारी प्राप्त करने के पश्चात कालपी में अपना निवास स्थान बनवाया। उसने सात चौक का महल बनवाया तथा हाथी खाना तथा घुड़साल का भी निर्माण कराया। रंगमहल भवन तो अब टूट गया है परन्तु उसका दीवान खाना अब भी पुराने समय की याद दिलाता है। इसके आसपास अन्य भवन छिन्न भिन्न अवस्था मे पड़े दिखते है जो प्राचीन महत्ता को दर्शाते है।
ऊपर वर्णित बातें और तथ्यों में अनेक भेद देखने को मिलते हैं।जब भी मैं इतिहास लेखन में इस तरह की भ्रांतियों से घिरता हूँ तब मुझे मेरे मार्ग दर्शक जनपद जालौन के विद्वान इतिहासकार आदरणीय देवेंद्र कुमार सिंह जी की पुस्तकें तथा उनकी फेसबुक पेज मेरे मददगार बनते हैं।
अब बीरवल के विषय में जो जानकारी उनसे उपलब्ध हुई उसके अनुसार बीरबल का जन्म जनपद के इटौरा नामक गांव में 1528ई में हुआ था। बीरबल के बचपन नाम महेश दास, पिता का नाम गंगा दास, बाबा का नाम रूपधर था। रूपधर संस्कृत ओर फारसी के ज्ञाता थे तथा कवि भी थे। यह परिवार भट्ट ब्राह्मण था। पितामह के प्रभाव से महेश दास भी ब्रह्म नाम से कविता करने लगे।
राजाओं के दरबार में कविता सुना कर धन प्राप्त ही इनका पेशा था। इनके जयपुर के राजा के यहां रहने का विवरण मिलता है। वहीं एक बार बांधवगढ़ (रीवा राज्य) के राजा ने इनकी कविता सुनी और महेश दास को अपने यहां ले आए। यहीं से ये अकबर के दरबार में पहुंचे।
महेश दास की कविताओं से अकबर इतना प्रभावित हुआ कि इनको “कविराज” की उपाधि से सम्मानित किया।
अपनी हाजिर जवाबी, मनोरंजक तथा विनोद पूर्ण उत्तरों से इन्होंने अकबर का दिल जीत लिया। अकबर ने इन्हें अपने नौ रत्नों में जगह दी। महेश दास में बुन्देली धरा का रक्त था इसलिए इनकी वीरता में विनोदी स्वभाव देखने वाले इनके वीर पुरुष होने में संदेह न करें। इन्होंने कई अभियानों में वीरता दिखाई थी। इनकी वीरता से प्रभावित होकर अकबर ने महेश दास को बीरबल की उपाधि से सम्मानित किया। तभी से महेश दास का नाम बीरबल हो गया।
चूंकि बीरबल हमारे जनपद के हैं अतः मेरा फर्ज बनता है कि जो कुछ भी मैंने बीरबल के बारे में जाना है वह सब आपसे साझा करूं। अब उनके रंग महल को कौन जानता है। दुनिया तो बीरबल को ही जानती है।
18वीं में छपे मासिर-अल-उमरा में लिखा गया है कि बीरबल अपनी कविता और सुखन-सनीफ व लतीफागोई के कारण उच्च सम्मान के हकदार बने। अकबर उनको अपना मुसाहिब – ए-दानिसदार अर्थात सही सलाह देने वाला कहता था। अकबर के समय में जानवरों की देखभाल, उनके बेचने और खरीदने के विभाग की जिम्मेदारी भी बीरबल के पास ही थी।
अकबर- बीरबल से इतना खुश था कि उसने बीरबल को अपना घर जोधा बाई के महल से कुछ ही दूरी पर बनवाने की आज्ञा दे दी। अकबर के किसी भी सरदार को यह। यह आज्ञा नहीं थी कि वे किले के पास अपना मकान बनवा सकें बीरबल का मकान जब बन गया तब उसने अकबर को मकान में पधारने का निमंत्रण दिया, जिसको बादशाह ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। अबुल फजल लिखता है कि 7बहमन को बीरबल के महल में बादशाह को शानदार दावत दी गई। अकबर ने यह सौभाग्य अपने किसी अन्य दरबारी को नही दिया था।
अकबर ने एक पत्र अबुल फजल से लिखवाया जिसमें बीरबल के नाम के आगे पचीस आदर सूचक संबोधन थे (देखिए, मुहम्मद हुसेन आजाद, मुगलात – ए-मौलाना मुहम्मद हुसेन आजाद, भाग प्रथम (संपादित) आगा मुहम्मद बाकिर)। दरबारी चाहते थे कि बीरबल को अकबर की निगाह से किसी तरह गिरा दें। षडयंत्र करके गांधार में विद्रोह दबाने के लिए भिजवाने में उनको सफलता मिली। गांधार के युद्ध में हमारे जनपद का सपूत जिसको आमतौर पर लोग मशखरा समझते हैं युद्ध में वीरता से लगते हुए वीरगति प्राप्त की।
इतिहासकारों के अनुसार वीरबल की मृत्यु संभवतः 17 फरवरी 1586 को हुई थी। रंगमहल आखिर बीरबल ने बनवाया क्यों। रहते आगरे में थे, वहां उनके पास मकान था ही। बनवाना ही था नागरकोट में बनवाते जहां उनकी जागीर थी। अकबर कई बार अपनी इच्छा प्रकट कर चुका था कि प्रयाग में संगम पर एक नगर बसाया जाय और एक किला भी बने और प्रयाग तक की पूरी यात्रा नदी मार्ग से नावों द्वारा की जाय।
बीरबल जानते थे कि अकबर यह काम कभी न कभी जरूर करेगा और वे यह भी जानते थे कि बादशाह को यह भली-भांति मालूम है कि बीरबल मूल रूप से कालपी के रहनेवाले है। इस यात्रा में कालपी रास्ते में पडती थी। अतः अपनी इज्जत के लिए कुछ तो करना ही चाहिए। अतः बीरबल ने यह निर्माण कालपी में करवाया और नाम दिया “रंगमहल”। इसमें सात चौक, हाथीखाना और घुडसाल तथा एक मस्जिद है। कालपी के जागीरदार मुतालिब खां के सहयोग से 1583 ई के पहले ही रंगमहल बन कर तैयार हो गया था।
आखिर वहीं हुआ जिसका डर बीरबल को था। अकबर और उसका दल यमुना नदी के द्वारा नावों से प्रयाग के लिए चल दिया। अकबरनामा के अनुसार यह दल 22अबान को कालपी पहुंचा (जालौन के गजेटियर के अनुसार अकबर कालपी में 1583 में आया था)। उसका टैंट यमुना के किनारे पर लगा। जागीरदार के यहां कई भोज के बाद बीरबल के यहां भी दावत का मौका आया। बीरबल के यहां दस्तरखान में अन्य चीजों के साथ स्थानीय डिशेज भी थीं। जिसमें मालपुआ भी था जो अकबर को बहुत पसंद आया। अकबर ने जब इस डिश का नाम पूछा तो बीरबल अपने चिरपरिचित अंदाज जवाब दिया।
घी में गरम स्वाद में मीठा, बिन बेलन यह बेला है।
कहे बीरबल सुने अकबर, यह भी एक पहेला है।।
बुंदेली धरती के गौरव महान योद्धा, क्रांतिकारी, दानवीर आशु कवि एवं विलक्षण मेघा के धनी पंडित महेश दास भट्ट जिन्हें कविराज तथा “वीरवर” जैसी उपाधियों से बादशाह अकबर ने सम्मानित किया । जो बीरबल नाम से प्रसिद्ध है। दोस्तो ! यहाँ आपने जिस वृत्तांत को पढ़ा है, वह हमारे इतिहास की एक ऐसी सच्चाई है जिसे अनदेखा, अनगुना करके, अनसुना करके इतिहास नहीं लिखा जा सकता।
शोध -आलेख
डॉ०रामशंकर भारती