Gahnai Lok Gatha Hindi हिन्दी अनुवाद पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है, गोचारण के लिए जाते समय या गोचारण के बाद लौटते समय अहीरों द्वारा गाया जाता है। अहीरों के समूह अपने-अपने खिरकों से गायें लाते जाते हैं और चार माह बाद गायें चराकर लौटते हैं, जिसे चारमास कहा जाता है। गोचारण की यह गाथा मूलतः गाय चराने से सम्बन्धित है।
भावानुवाद
खड़े-खड़े कन्हैया अपनी साथिन (गोपी) से बोले – ‘जंगल में गायें ले जाना है, भोज्य सामग्री तैयार कर दो।’ गोपी या साथिन ने कहा- ‘किसान की गेहूँ की पकी फसल खड़ी है, लेकिन आटा पुराना है । तुम थोड़े दिन रुक (ठहर) जाओ, तो मैं नयी भोज्य सामग्री दूँ।’ (1-2) जब साथिन धीरे-धीरे चली, तब गायें गेहूँ की फसल हिला रही थीं । मार्ग में नयी वधू मिली, जिससे हँसकर पूछने लगी- ‘क्या तुम्हारे घर पर कछेदन – मुण्डन या रोट का कल्याणकारी उत्सव है?’ उसने उत्तर दिया- ‘न मेरे घर कछेदन मुण्डन है और न रोट का कल्याणकारी उत्सव। भाई को गायें चराने जाना है, इसलिए मैं गायों के बाड़े जा रही हूँ।
ग्वालिन कन्हैया से कहती है कि – ‘स्वामी ! मेरी विनती है कि मुझे भी अपने साथ ले चलते। मुझे छोड़ मत जाओ ।’ कन्हैया ने उत्तर दिया- ‘ग्वालिन ! पिपरी (पीपल) माता और भैरव की पूजा सामने से करो । थाली में अक्षत और लोटे में गंगाजल ले आओ। उन्हें सिर से स्नान कराओ, जिससे जल बाहों तक बह जावे ।’ ग्वालिन ने प्रार्थना की- ‘स्वामी ! मेरे पति को लौटा दे, तो मैं तुम्हारा एहसान (उपकार) मानूँगी। पीपल के भैरव ने ग्वालिन से कहा- ‘इस जन्म में वह पत्थर बनेगा, उस जनम में वह चोर होगा ।
ग्वालिन सोचने लगी- ‘मैंने भूखी गाय लौटा दी है, मेरे सातों जन्म नष्ट हो गये। वह छाती पर घूँसा मारती और उल्टी पछाड़ खाती थी । देवताओं ने उसे उत्तर दिया था कि वे नचनिया गाय के बारे में कुछ नहीं कह सकते। ग्वालिन वहाँ से धीरे-धीरे चली, उसे देर नहीं लगी।
कन्हैया बीच रास्ते में मिले और हँसकर पूछने लगे- ‘तुम पीपल के नीचे भैरव पास गयी थीं? क्या वरदान पाया ? ग्वालिन ! सुन, थाली में अक्षतादि और लोटे में गंगाजल लेकर उस नचनिया गाय को पूजो, जो चोरों के यहाँ जाती है (जिसे चोर ले जाते हैं)।’ ग्वालिन ने कहा- ‘पदुमहरे ननदोई! मेरे स्वामी की गाय कौन है ? रात को सानी दी है और दिन को पानी उड़ेला है।
ननदोई ने उत्तर दिया- ‘साले की पत्नी ( सरहज ) ! हमसे क्यों मज़ाक करती हो। तुमने रात को सानी दी है और दिन को पानी उँड़ेला है (फिर भी गाय को नहीं जानती) ।’ ग्वालिन बोली- ‘पदुमहरे ननदोई ! मैं स्वामी की गाय नहीं पहचानती । ननदोई ने बताया- इस ओर आरती बैठी है, उस ओर सुलतान और दोनों के बीच नचनिया गाय बैठी है, वही तुम्हारे स्वामी की गाय है।
ग्वालिन ने नचनिया गाय को सिर से नहलाया और उसकी पूरी काया नहा गयी। उसने विनती की- हे नचनी! रूठे पति को घर लौटा दे, यह तुम्हारा उपकार मैं मानूँगी। सतयुग की नचनी ने सन्मुख होकर कहा- मैं तो रक्त की प्यासी हूँ, झाड़ियाँ क्यों निराऊँ ( झारी टोंटीदार लोटा को भी कहते हैं, इस अर्थ में लोटों का पानी क्यों देखूँ) ।
ग्वालिन यह सुनकर छाती में घूँसा मारने लगी और उल्टी पछाड़ खाने लगी। उसने नचनिया की उपेक्षा कर टटका उत्तर दिया । वह वहाँ से धीरे-धीरे चली, लेकिन उसे पहुँचने में देर नहीं लगी। बीच मार्ग में कन्हैया मिले और उन्होंने हँसकर समाचार पूछे। ग्वालिन से कहा- तुम गुमान बैल की पूजा करो, जो गायों में साँड़ की तरह है । थाली में अक्षतादि और लोटे में गंगाजल लेकर उसने गुमान बैल की पूजा की। सिर पर जल चढ़ाकर उन्हें पूरी तरह नहा दिया। प्रार्थना की- ‘मेरे रूठे पति को घर लौटा दो, तो मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानूँगी।
गुमान बैल ने कहा- ‘तुम्हारे पति (चरागाह की) झाड़ियों में जूझ गये हैं, यह संदेश पार्वती ने कहा है।’ यह सुनकर ग्वालिन ने अपनी छाती पीटी और उल्टी पछाड़ खायी। उसने उस गुमान बैल की उपेक्षा की, जिसने टटका जवाब दिया था । ग्वालिन ने स्वामी से कहा- इसी वर्ष के चारों महीने, गौरा की कृपा से यहीं छाये रहते, तो उत्तम होता।
रानी ने बरेदी से कहा- ‘इस वर्ष का चौमासा व्यतीत करवा दे, तो गौरा तुम्हें सफलता दे देंगी। यदि तुम मेरी गायों को नीलाम करते हो, तो तुम्हारी सीमा ही टूट जायेगी । ‘ ग्वालिन ने स्वामी से कहा- ‘आज की रात मेरी शय्या पर सो जाओ, तो मेरा हृदय शीतल हो जाय।’ उत्तर मिला- ‘यदि तू शत-प्रतिशत सोने की हो जाये और तुम्हारा घर भी, तो मैं पलंग पर पैर नहीं रखूँगा। मेरी नाचनी गाय भूखी है।
रानी ने स्वामी से कहा- ‘मैं तुम्हारी गाय की सेवा करती, पर तुम्हारी गाय दुबली है । आगे उसकी दोहनी करे, तो बाद में उसे माँग कर भोजन मिलेगा। मैं माँग कर भोजन करते हुए गाय की सेवा करती रही। इंकार करने पर पलकें पान की तरह सूख जातीं। हे स्वामी ! तुम मुझे साथ ले चलो, मुझे छोड़कर मत जाओ। स्वामी ने कहा- ‘ग्वालिन! तुम्हें ले चलता, छोड़ता नहीं, लेकिन बछड़े वाली लबाई गाय इतनी रँभाती है कि तुम बहरी हो जाओगी।
स्वामी – मुझे मंखी आभूषण और वस्त्र दे, जिन्हें मैं पहन लूँ और ढाल-तलवार कस (बाँध) लूँ। बिचकने वाली मरकू गाय को तन्दुरुस्त आदमी ही थाम सकता है। मैं तुम्हें अवश्य ले चलता, लेकिन नचनिया गाय के ले चलने में पैर पत्थरों से घायल हो जाते हैं । ग्वालिन- मनुष्य रोगी हो और स्त्री बाँझ, तो भी उन्हें छोड़ा नहीं जाता। स्वामी ! मुझे ले चलो, छोड़ो नहीं। तुम चाहे रोगी बने रहो और मैं बाँझ ।
स्वामी – तुम्हें ले चलता, छोड़ता नहीं, बादल घिरकर बरसता तो मैं तुम्हें अपने शरीर में छिपा लेता । ग्वालिन- स्वामी ! मुझे लेते चलो, मुझे छोड़कर मत जाओ। ज़रूरत पर गाय चराऊँगी और थकने पर तुम्हारे पैर दाबूँगी । स्वामी- ग्वालिन ! तुम्हें ले चलता, छोड़कर न जाता, लेकिन मेरा शील बोलता है कि मुझे ही गाय चराना चाहिए ।
उस विनोदी का लड़का मर जाये, जो हमारा मज़ाक उड़ाये । गाय, बकरी, भैंस आदि अहीरों की स्त्रियों के धन हैं। इसलिए ग्वालिन ! मैं तुझे ले चलता, छोड़कर जाता नहीं, लेकिन तुम्हारी बेंदी के सौन्दर्य से आहत मेरी गाय घूँट भर पानी न पियेंगी । ग्वालिन – स्वामी! मुझे ले चलो, छोड़कर मत जाओ। तुम्हारे पानी के समय अपनी बेंदी उतारकर घर रख दूँगी।
स्वामी- ग्वालिन! तुझे ले चलता, छोड़कर नहीं जाता, लेकिन तुम्हारी पायजेब के सौन्दर्य से आहत मेरी गाय घाट पर नहीं चढ़ती। ग्वालिन- स्वामी ! मुझे ले चलो, छोड़कर मत जाओ। गायों के घाट पर चढ़ने के समय मैं पायजेब के आठ टुकड़ा कर दूँगी । फिर लौटकर बछड़ा को बेच अच्छी पायजेब बनवा लूँगी।
कन्हैया ने बरेदी से कहा- जिसकी चरागाह की भूमि दूसरी हो, वह हमारे साथ चले। बरेदी का उत्तर था- ‘जो घास-पात होगा और कुएँ का पानी दूँगा। वीर! अपनी विवाहिता को छोड़ तुम्हारे साथ कौन जाये । कन्हैया- ‘तुम घास-पात छोल कर खिलाओगे और कुएँ का पानी दोगे। मैं किस-किस को घास – पात छोल कर खिलाऊँगा, मेरे तो पशुओं की संख्या बहुत अधिक है । जितनी घास-पात है, उतनी ही अहीर की गायें होती हैं।
आगे की गायें पानी पा लेती हैं, लेकिन पीछे की गायों को कीचड़ मिलता है । बहादुर ने आवाज़ की कि नचनी गाय ने कान खड़े किये। नचनी गाय मन में उदास होकर चली।
बाँदा को दायें छोड़ दे और बायें गुर्याह गाँव । परसौड़ा गाँव से होकर गायों को (चरने के लिए) ले जाना चाहिए। बीचों-बीच निकलकर सेंहुड़ा के पास सफेद पत्थर की पहाड़ी से मार्ग है। कन्हैया ने नचनी गाय से कहा- कुर्मियों की जाति किसानी है, जो खाने में एकजुट दिखाई देती है। नचनी! इस तरफ खेतों में पानी नहीं मिलता। अपने पास में बछड़ा लेकर और उसे छिपाकर (ढँककर) पानी के स्थल पर जाना । कोई (गाय) घास – पात खाती थी और कोई सिर्फ फुनगी चबाती थी। दादा की नचनी गाय जड़ से उखाड़ लेती है।
बरैन बरेदी से कहती है- अहीर ! तू कहाँ का है ? तेरा घर कहाँ है? ये गायें तेरे घर की हैं या दूसरे की बाँधकर लाई हुई हैं? गायों को फैल जाने दे, बेरी के पेड़ के नीचे धूप का निवारण करो। बछड़ों को दूध पीने दे और हम दोनों मिलकर पाँसे (चौपड़) खेलें। मेरी जैसी शक्ल (रूप) की तुझे संसार में खोजे नहीं मिलेगी । बरेदी ने बरैन से कहा- तेरे जैसे रूप की तो मैंने बहुत-सी दान कर दी हैं ।
तू क्या माँगती है खींचकर तोड़े पान बरैन बड़े मियाँ की ड्योढ़ी पर अपना सिर बार-बार पटकती है और कहती है- ‘एक परदेशी अहीर ने मेरा पानी ले लिया है।’ जब बड़े मियाँ कुछ कहने को थे, तब कृष्ण और अहीर गायों को समेटकर चले । दो अहीरों के साथ एक स्त्री थी और उनके साथ एक लाख गायें । लेने वाला दौड़ता आता था और दूरी को तौलता जाता था। भागने से अहीर बच नहीं सकता और उसके जीते जी कोई गाय नहीं जा सकती।
कन्हैया ने पद्मिनी से कहा- ‘यह किसी से लड़ने के लिए ( शस्त्र की ) धार सजाकर आया है। पद्मिनी कहा- उसने बरैन का पानी लिया है और शस्त्रों से सज्जित होकर आया है। बरेदी ने नचनी से कहा – नचनिया ! तू भाग जा, मेरी मृत्यु पास आ गई है। वह सतयुग था, जब बरेदी और गाय सन्मुख बात करते थे । गाय ने कहा- मेरी बगल में आ जाओ, तात ! तुम्हारी बाँह न जायेगी।
बरेदी (प्रसन्नता से) फूलकर बादल जैसा हो गया, उसकी उमंगें उसके अंगों में नहीं समा रही थीं। बड़े मियाँ का पायजामा एक गाय चुराकर ले गयी। बरेदी ने कहा- तुम्हारा और हमारा खाने, नाचने और प्यार का सम्बन्ध है । मैदान में लड़ने को छोड़ दे, कौन किसको मार सकता है। बरेदी ने आवाज़ की और दुलारी गाय तनकर खड़ी हो गयी। नाचनी गाय, जहाँ तुम्हारा मन चाहे, वहाँ चरने के लिए जाओ। सतयुग के समय बरेदी और गाय सन्मुख बात करते थे। लम्बे समय तक झाड़ियों के बीच रोककर रख लिया ।
गाय ने कहा- ‘मेरी हड्डियों के कुरवा और मज्जा की म्यारी बना ले । स्याल्हेन के कन्हैया, तुम उसी में आराम से सोओ।’ बरेदी ने नाचनी गाय से कहा- ‘तुम्हारा अस्थिपंजर बाँधकर बरदाडीह के स्थान में अपनी गायें चराऊँगा। स्त्री ने नाचनी से कहा- ‘सोने के जरान (रस्सी) से इन्द्रासन बाँध रहे हो। तुम्हारा पति घाटी में गया था। तुमने यात्रा में लम्बा समय लगाया। तुम्हारा पति झाड़ियों में जूझ गया (मृत्यु को प्राप्त हुआ), यह संदेश गौरा (पार्वती) ने दिया है ।’ ग्वालिन यह सुनकर छाती पीटने लगी और उल्टी पछाड़ खाने लगी।
कन्हैया ने पद्मिनी स्त्री से कहा- ‘बिलुहरिया गाय को हटक दे कि बाँगर (ऊँची ज़मीन) में न चरे। मैं जब तक आऊँ, तब तक घर में समझाये – बुझाये । अपनी लाठी और भैरमी गाय दे दे। स्त्री ने कहा- बिलहरिया गाय को बाँगर में चरने से हटक दूँ। तुम क्या गाय चराओगे, तुम स्त्रियों के गुलाम हो। कन्हैया चले, जिन्हें चलने में देर नहीं लगती । कन्हैया ने हल से बेंड़ा में मारा और बज्र किवाड़ खुल गये ।
उन्होंने कहा- बहुरिया ! लोहे के लंगर की मार से क्या पत्थर पड़ गये (विनाश हो गया ) ? क्या किसी ने हँसी-मज़ाक किया है या और कोई उपाय ? साले की पत्नी! तुमने अन्न-पानी क्यों छोड़ दिया है ?’ उसने उत्तर दिया- ‘न तो किसी ने हँसी-मज़ाक किया है और न कोई झगड़ा । तुम क्या सुनोगे कि मैंने अन्न-पानी क्यों छोड़ दिया है । बहुरिया (स्त्री) उठकर मुख धोती थी और तुरन्त पान लेती थी। महुआ की दातून लेकर तारीफ करती थी। फूल जैसी वह स्त्री उमंगों से फूलकर बादल हो गयी थी ।
उसने कहा- मेरे पिता का स्वामी, गाय के साथ लौट आये । झूठे की पुत्री झूठ की बात करती है । मैं अब झाड़ियों के लिए गाय नहीं रखूँगी। उसने कहा- तू पान खाकर हँसती है और बिना मुँह खोले पीक थूकती है। किसी आवारा के साथ कोई भूल न कर बैठना, नहीं तो तुम्हारी तीन पीढ़ियों का नाम डूब जाये । बहुरिया बरेदी से बोली- मैं पान खाकर हँसती हूँ और गली में पीक थूकती हूँ। सबेरे कूंजरी का पुत्र ले लूँगी और अच्छे बाप का नाम डुबो दूँ।
बहुरिया (स्त्री) स्वामी से कहती है- ‘गौरा माँ डंठन (बाधाओं) को नष्ट कर देंगी और मैं तुम्हारा नाम लेकर रहूँगी। जी में चिन्ता मत लाओ, मैं गायें चरा लूँगी ।
बरेदी चला, जिसे चलने में देर नहीं लगती थी। बरेदी ने साथिन से कहा। बरेदी ने आवाज़ की कि बम्बली काम का नाश कर दो। नचनिया गाय भागती जाती थी । वह चरागाही मैदान और झाड़ों में कूदती थी । बुटीवा रोती जाती थी और चरागाह के मैदान और झाड़ियों में चरती जाती थी। एक घड़ी में घाट और दूसरी में पहाड़ चढ़ गयी, फिर भी अहीर का चरागाही मैदान नहीं मिला।
सतयुग के समय बरेदी और गाय सन्मुख बात करते थे । बरेदी- ‘तुझे दिन में नागर प्यारा है या फिर बाँधने से तू झपटकर छुड़ाती है। गाय- मुझे दिन में न तो नागर (बस्ती) प्यारा है और बाँधने से झपटकर छुड़ाती हूँ । ऐसा समय आयेगा, जब मसकने (दाबने) से ही मेरे प्राण छूट जायेंगे।
साथिन ने बरेदी से कहा- हरे-पीले कंकड़ उठा ले और नाचनी का दूध दुह ले । कन्हैया ने पढ़कर (मंत्र) मारा कि भँवर गाय जाये और वह बरदाडीह के स्थान में पहुँची । ऐसा आश्चर्य है कि मैं एक भी नहीं खरीद सकती । बरेदी ने देवता से कहा – ‘स्नान करते समय मेरे केश मुलायम हैं। साथिन शारदा की अवतार है । मुझे चार माह के लिए चरागाही मैदान का बीच का भाग (?) दे दे। मैं आषाढ़, सावन, भादों और कार्तिक में गायें चराऊँगा ।
देवता ने बरेदी से कहा- तुम झाड़ियों से गायें हँकाकर ले जाना । पहली आवाज़ मैं करूँगा, दूसरी दलाल करेगा और तीसरी आवाज़ नकदी की है, जो मैं करूँगा, जिससे पाँच सौ गायों के जाने का निर्णय हो जायेगा। बरेदी ने देवता से कहा- ‘इस गर्मी में कलेजा कहाँ शीतल होगा । बनिया तराजू की डंडी का लोभी होता है और कलार मद का । बाड़े का लोभी कन्हैया है, जो दिन-रात गायें झाड़ियों से नहीं हाँकता।
बरेदी ने पाहुन (अतिथि) से कहा – ऊटी ने न तो अरका – करका (?) देखा और न जंगल। मैं, पद्मिनी तुमसे पूछता हूँ कि गाय कैसे चिकनायी है । पद्मिनी- ऊटी ने द्वरका-फरका और जंगल नहीं देखा, शतरंग नदी का पानी पीने से माँसल गाय चिकना गयी है । बरेदी ने साथिन से कहा- इन घाटियों में कौआ – काग के सिवा क्या है?’
साथिन ने बरेदी से कहा- राजा! गंग्यावल की घाटी में चीका हिलता है, जहाँ तुम्हारा मेरा घर है। बरेदी ने आवाज़ की और दुलारी गाय तनकर खड़ी हो गयी । दुलारी प्रेम से गयी, जहाँ राजा गंग्यावल का राज्य था। राजा ने बरेदी से कहा- ‘तू साले का बरेदी है, तुझे कहाँ तक दिखाया जाय । बरेदी ने राजा से कहा- ‘मुझे गायों के पास से अधिक नहीं दिखता ।
विशेष टिप्पणी
इस पाठ में कई जगह कुछ पंक्तियाँ अंकित होने से रह गयी हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि गायक बीच-बीच में विस्मरण के कारण पाठ छोड़ता गया है । अन्त में भी कथा पूरी नहीं होती । कन्हैया से राजा गंग्यावल का कालिंजर घाटी में लड़ा गया युद्ध इस पाठ में वर्णित नहीं है। युद्ध में गुमान बैल और नाचनी गाय को छोड़कर सभी पत्थर के हो गये ।
गुमान बैल और नाचनी गाय ने घटना का हाल गौरा को सुनाया और गौरा ने कन्हैया की साथिन या पत्नी को । गौरा ने कन्हैया की पत्नी से अपने पति, पति के साथियों और गायों को जीवित करने के लिए कहा। देवों के वर से ग्वालिन ने अपनी छिंगुरी चीरकर पत्थरों पर छिड़क दी, जिससे वे सब जीवित होकर सुखपूर्वक रहने लगे।
प्रस्तुत गाथा में कन्हैया का व्यक्तित्व एक अहीर का है, जो युद्ध में पत्थर का हो जाता है । कथा में उसका चरित्र मध्ययुगीन कृष्ण से सर्वथा भिन्न है । अतएव यह गाथा मध्ययुग के पूर्व की है। गोचारण सम्बन्धी तीन गाथाएँ प्रमुख रूप से उपलब्ध हैं- (1) कारसदेव की गाथा, (2) धर्मा साँवरी, (3) गहनई। तीनों गाथाओं में कुछ समानताएँ मिलती हैं। पहली में करियल भैंस और नगनाचन गाय का जोड़ है, दूसरी में मलनिया साँड़ और बिराजन गाय का तथा तीसरी में गुमाना बैल और नाचनी गाय का ।
इसके अलावा राजा से ‘युद्ध, तंत्र-मंत्र या जादू और अँगुली चीरकर छिड़कने से जीवित होने के अभिप्राय भी सभी में हैं । अतएव तीनों गाथाओं की रचना थोड़े वर्षों के अन्तर से हुई है । प्रस्तुत गाथा में भक्ति या कृष्ण भक्ति का लेशमात्र भी नहीं है, इसलिए उसे हम बारहवीं ‘चौदहवीं शती तक के बीच की रचना मान सकते हैं ।
गाथा में गोचारणी लोकसंस्कृति की तस्वीर उभरकर सीधी-सादी रेखाओं पर चलने को विवश है, क्योंकि उसमें देवत्व या जादू के चमत्कारों का दवाब नहीं है। मुक्त आभीरी संस्कृति में किसी विशेष समस्या के लिए भी कोई स्थान नहीं है । इन आधारों पर वह तीनों लोकगाथाओं में पहले क्रम की ठहरती है, लेकिन गायकी की दृष्टि से तीसरे क्रम पर ही मानी जा सकती है। दोहा गायकी अपभ्रंश की लाड़ली रही है और नौवीं – दसवीं शती में उसका उत्कर्ष मिलता है, लेकिन कारसदेव की गाथा और धर्मा साँवरी दोनों की गायकी मात्रिक छन्दों जैसी न होकर और पहले की लगती है ।
संकलन : डॉ. भगवानदीन मिश्र
अनुवाद : नर्मदा प्रसाद गुप्त
(‘गहनई’ का यह पाठ सागर विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. भगवानदीन मिश्र द्वारा संकलित है, जो परसौंड़ा जिला बाँदा, उत्तर प्रदेश के हैं ।