नर्मदा संस्कृति की जीवित धारा है । यह जीवन रेखा भी है। Narbada To Aisi Bahe Re अमरकंट से अरब सागर, खम्भात की खाड़ी तक नर्मदा के किनारे-किनारे और जीवन के स्वर गूँजे हैं। ‘जल ही जीवन है’ के यथार्थ ने धरती पर नदी संस्कृतियों को जन्म दिया। ‘जीवनं भुवनम् वनम्’ की अवधारणा के कारण ही जल को जीवन का पर्याय माना गया है।
जीवन, भुवन और वन‘ की परिकल्पना जल के बिना हो ही नहीं सकती। इसीलिए अहर्निश जल से आप्लावित पृथ्वी की हम अहोरात्र आराधना करते आए हैं। जल, पृथ्वी को पुलकित बनाये रखता है । यही परम भेषज है । सारे रसों का रस है । जीवन है। नर्मदा जीवन-धारा है। एक नदी धारा, जो जीवन संस्कृति को निरंतर सींचती और विकसित करती प्रवाहमान है। राष्ट्र की एकता को पुष्ट करने वाली सात नदियों में नर्मदा का भी आह्वान है।
गंगे च यमुने चैव, गोदावरि सरस्वती।
नर्मदे, सिन्धु, कावेरी, जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु ॥
मैकल पर्वत के अमरकंटक शिखर से जन्मी अमरकंठी रेवा सर्वत्र पवित्र हैं । कवि कालिदास ने अमरकंटक को आम्रकूट कहा है । अमरकंटक, जहाँ से नर्मदा निकलती है, की ऊँचाई समुद्र सतह से लगभग 3,500 फीट है। पूर्व से पश्चिम तक यह लगभग 815 मील ( 1,304 किलोमीटर) की अविराम यात्रा करती हुई भृगुक्षेत्र के पास समुद्र में मिलती है। मध्यप्रदेश के शहडोल, मंडला, जबलपुर, होशंगाबाद, खण्डवा और खरगोन जिलों में यह लगभग 669 मील की यात्रा करती है। इसका अधिकांश यात्रा पथ मध्यप्रदेश में है।
मध्यप्रदेश की धरती को मेकलसुता ने रसवान और ऊर्वरा बनाया है। इसका दूध समान जल तटों के बीच तो बहता ही है, उससे भी अधिक विस्तार और प्रसार के साथ यह धरती की भीतरी शिराओं और धमनियों में जलस्रोत बनकर बह रहा है । यह पयस्वनी धरती पर हरियाली को अंकुरण देती है।
नर्मदा भारत वर्ष की सबसे पुरानी नदी है। गंगा से भी पुरानी । समय की अनवरता के साथ इसकी यात्रा भी अनवरत और अविराम है। वेदों में नर्मदा का उल्लेख नहीं है । कारण यह है कि वैदिक आर्य विन्ध्याचल को पारकर नर्मदा तक नहीं पहुँच पाये थे । महाभारत, मत्स्य, पदम, कूर्म, अग्नि, ब्रह्माण्ड और स्कन्द पुराणों में नर्मदा का बार-बार उल्लेख हुआ है।
पृथ्वी पर नर्मदा के अवतरण की अनेक कथाएँ हैं । यह शांकरी है । रूद्रेह समुद्भूता है । तांडव करते शिव के पसीने की बूँद से, हिरण्यतेजा राजा की तपस्या के फल से, राजा पुरुरवा तप के प्रभाव आदि-आदि कथाओं के माध्यम से नर्मदा की उत्पत्ति मानी जाती है । पर नर्मदा अमरकंटक में ‘माई की बगिया ‘ और आगे चलकर नर्मदा – कुण्ड में से ही निकलती हुई दृष्टिगत होती है।
सोमोद्भवा, नर्मदा, शांकरी, रेवा, मेकलसुता, दक्षिण गंगा, कृपा, विमला, चित्रोत्पला, विपाशा, रंजना, बालुवाहिनी, रूद्रदेहा आदि इसके अनेक नाम हैं । यह आस्था का केन्द्र है । जन-जन के जीवन में गहरा राग नर्मदा ने जगाया है। यह राग संघर्ष की निरभ्र रजनी में भी सुनाई देता रहता है।
गंगा कनखले पुण्यां, प्राच्यां पुण्या सरस्वती।
ग्राम्ये गोदावरी पुण्या, पुण्या सर्वत्र नर्मदा ॥
ग्राम हो या अरण्य, तीर्थ क्षेत्र हो या वनप्रान्त नर्मदा सब जगह पुण्यदा हैं। पवित्र हैं । मुक्तिदा हैं। कहा जाता है कि गंगा भी वर्ष में एक बार नर्मदा में स्नान करने आती हैं। गंगा लोगों के पाप धोते-धोते काली गाय की तरह हो जाती है। गंगा नर्मदा में स्नान करने के बाद धवल होकर वापस लौट जाती हैं। मत्स्य पुराण में उल्लेख है कि सरस्वती नदी का जल तीन दिन में, यमुना का एक सप्ताह में और गंगा का जल स्नान करते ही पवित्र करता है, लेकिन नर्मदा के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति पवित्र हो जाता है।
पुराणों में गंगा को ऋग्वेद, यमुना को यजुर्वेद, सरस्वती को अथर्ववेद और नर्मदा को सामवेद माना गया है। सामवेद संगीत का आधार है । अमरकंठी रेवा भी सागर तक संगीत की रसधार बहाती जाती है। यह अरण्य से होती हुई, चट्टानों पर से बिछलती हुई बहती है, तो कलरव पैदा होता है । यह रव करते हुए बहती है, इसलिए इसे रेवा कहा गया है। रेवा के रव के साथ जीवन के स्वर मिलकर धरती पर पुलक पैदा करते हैं।
नर्मदा के दोनों तटों के पग-पग पर तीर्थ हैं। दोनों किनारे उत्सवों से पूरित हैं। जहाँ स्नान एक पर्व हो जाता है । अनादि काल से आज तक लोग इसमें स्नान करते आ रहे हैं और जीवन विकास को आत्ममंथन से दिशा देते रहे हैं। सभ्यता एवं संस्कृति के विकास ने नदी किनारे आँखें खोलीं । नदी तीर्थ प्रमुख होते चले गये । मत्स्य पुराण अनुसार अमरकंटक से लेकर रेवा-सागर संगम तक 10 करोड़ तीर्थ हैं । स्कन्द पुराण में 60 करोड़ 60 लाख तीर्थों का उल्लेख है । वैसे तो कहा जाता है कि शिवकन्या नर्मदा के किनारे के सभी कंकर, शंकर हैं।
नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकंटक प्रसिद्ध तीर्थ है। यह कभी आम्रवृक्षों से आच्छादित वनप्रान्त और पर्वत शिखर था। अब यहाँ मात्र सरई के पेड़ बचे हैं। नर्मदा कुण्ड के आसपास 20 मंदिर बने हुए हैं। इस कुण्ड में गोमुख से जल निकलकर इकट्ठा होता है। आगे चलकर नर्मदा कपिल धारा और दुग्धधारा नामक दो प्रपात बनाती हैं । यहाँ से 7 किलोमीटर दूर कबीर चौरा नामक स्थान है।
मंडला में नर्मदा की छटा देखते ही बनती है । यहाँ नर्मदा मंडला को तीन ओर से घेरकर बहती है । करधनी बन जाती है । सहस्रधारा में हजारों धाराओं में बँटकर बहता जल, मन में सम्मोहन पैदा करता है । आगे चलकर ग्वारी घाट का मनोरम और शांत प्रवाह विश्रामदायी है । जबलपुर का विश्वप्रसिद्ध भेड़ाघाट नर्मदा की सुन्दरतम रचना है। धवल संगमरमरी चट्टानों पर से बहती, गिरती नर्मदा पत्थरदार पन्नों पर पुलकावली के छन्द लिखती है ।
पानी के कई-कई रंग यहाँ हैं । गति के कई-कई तेवर यहाँ हैं । स्वर का नैरंतर्य और अनुगूँज का भराव यहाँ पर है, यहाँ जलधार, दूधधार बन जाती है। नर्मदा का यह चमत्कार उसे माँ की कोटि में पहुँचा देता है । वह शक्ति, गति और प्राणवत्ता की जीवित धारा बन जाती है । नरसिंहपुर जिले में बरमान घाट महाशिवरात्रि पर नर्मदा किनारे का कुम्भ बन जाता है ।
जीवन के कितने राग- विराग यहाँ आकर नर्मदा जल के साथ पानी-पानी हो बहने लगते हैं । रेत पर जलते अलावा की आँच लेकर स्वर उठता है और घाटों, मंदिरों के शिखरों पर से आकाश हो जाता है-
नरबदा तो ऐसी मिली रे
ऐसी मिली रे जैसे मिल गयी मतारी और बाप रे ।
नरबदा मैया हो……..।
नरबदा तो ऐसी बहे रे
ऐसी बहेरे जैसे बहे दूध की धार हो…… ।
होशंगाबाद का सेठानी घाट नर्मदा के जल के सौन्दर्य को द्विगुणित करता है। इस ऐतिहासिक नगरी से पूर्व में 3 मील पर नर्मदा में बड़ी तवा नदी आकर मिलती है। बांदराभान में संगम पर मेला लगता है । होशंगाबाद में घाट का विस्तार और सुघड़ता दोनों ही नर्मदा तट की उत्सवधर्मिता को बढ़ाते हैं । लहर-लहर की बिछलन और जनमानस की डुबकियों के बीच यह घाट समय के सन्नाटे को तोड़ता रहता है ।
इसी जिले में हंडिया घाट है । उस पार उत्तर में नेमावर है। अपनी कला में बेजोड़ प्रसिद्ध शिव मन्दिर (सिद्धेश्वर ) जीवन की आस्था के फूलों को स्वीकारता हुआ खड़ा है। यहाँ नर्मदा का नाभि भाग है। नर्मदा यहाँ अपनी आधी यात्रा तय कर चुकती है। नर्मदा का घाट यहाँ खूब चौड़ा है। जल का बहाव तेज लेकिन जल उथला है । जल को सूर्य की रोश के साथ देह पर डालते रहना, कभी डुबकी लगाना और कभी पालथी मारकर जल में बैठकर माँ की गोदी में खेलने जैसा अवसर पाना, सुखकर लगता है।
इसके बाद नर्मदा का पथ वन का है। वह सघन अरण्यावली में से गुजरती है। ‘जोग का किला’ नर्मदा के द्वारा बनाये गये टापू पर है । यह निर्जन वन प्रान्त में इतिहास के अवशेष समेटे हुए है । खण्डवा जिले में सारी राह नर्मदा जंगलों के बीच बनाती है । किटी घाट, चापड़ा घाट और उसके बाद नर्मदा एक छोटा सुन्दर प्रपात बनाती है । वह प्रपात है– ‘किटी फाल’ । यह छोटा भेड़ाघाट है। किटी फाल से पश्चिम में असिन्दर घाट है, जहाँ नर्मदा पर वर्तमान में नर्मदा सागर परियोजना का काम चल रहा है।
नीचे की तरफ पुनासा के पास ‘धावड़ी घाट ‘ है । दोनों और ऊँचे-ऊँचे पहाड़, बीच में रेवा। नर्मदा यहाँ अनेक धाराओं में, पत्थरों को काटती हुई कुण्ड में गिरती हैं । यहाँ जलधारा से पत्थर कट-कटकर गोल होते हैं और शिवलिंग बन जाते हैं। दूर से जल के गिरने की आवाज आती है। रेवा के जल द्वारा यह सुखद अचरज रचना प्रकृति का उत्कर्ष हैं। इसके बाद काजलराणी और सातमात्रा स्थान आते हैं।
नर्मदा के किनारे ओंकारेश्वर का प्राकृतिक दृश्य बार-बार आमंत्रण देता है । पहाड़ियों के बीच बसी शिव की यह नगरी अपने इतिहास, पुरातत्व, जीवन के समृद्ध अध्यायों और संस्कृति की ऋचाओं से सम्पन्न है। बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक यहाँ है । यह लिंग प्रणव है। स्वयंभू है। मंदिरों, तपस्वियों, आश्रमों और मेकलसुता की अथाह गहराई वाला यह तीर्थ अपने दोनों तरफ बने पक्के घाटों के लिये प्रसिद्ध है । कोई दीया जल पर तैराया जाता है और लहर-लहर पर जीवन की निरंतरता के गीत उभरने लगते हैं।
गुरू- गोविन्द पदाचार्य का आश्रम, शंकराचार्य की शिक्षा स्थली, से नर्मदाष्टक की गूँज सुनाई देती है। ‘त्वदीय पाद पंकजम् नमामि देवि नर्मदे।’ नर्मदा किनारे देवी अहिल्या का नगर महेश्वर, काल के फलक पर चित्रित जीवन है। नर्मदा के किनारे महेश्वर में बना घाट सबसे लम्बा और बड़ा है। मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ कभी शंकराचार्य से यहाँ हुआ था। मंदिरों के खण्डहर समय की बलशीलता को प्रमाणित करते दिखाई देते हैं।
कुछ मंदिरों का सौन्दर्य और वास्तुशिल्प मनुष्य के तत्कालीन कला सौन्दर्य को पत्थरों पर पहचान दे रहे हैं । महेश्वर के घाट पर एक अपूर्व शान्ति है । नर्मदा का जल भी शांत है। नर्मदा विश्राम करती प्रतीत होती है । इसके बाद खलघाट और फिर धमरपुरी होती हुई नर्मदा राजघाट के बाद भृगुक्षेत्र की ओर बढ़ जाती है। इसी के पास समुद्र में मिलकर जल की नियति को साकार करती है।
नर्मदा की परिक्रमा की जाती है। हजारों लोग इसकी परिक्रमा कर चुके हैं। जल को देवता रूप में माना गया है। नदी भी शक्ति स्वरूपा है। परिक्रमा का संदर्भ भारत की सारी नदियों में से केवल नर्मदा के साथ जुड़ा है। कोई अमरकंटक से परिक्रमा शुरू करता है तो कोई हंडिया घाट से । अन्य स्थानों से भी परिक्रमा शुरू की जाती है । परिक्रमा वासी पैदल चलते हुए लगभग 815 मील दक्षिण तट और 815 मील (1630 मील) की दूरी तय करते हैं।
नर्मदा का प्राकृतिक वैभव मनुष्य की जिज्ञासा को और खोजी प्रवृत्ति को आमंत्रण देता है । परिक्रमा वासी जमीन पर सोते हैं और मांग कर खाते हैं। कोई भूखा नहीं रहता । कोई बीमार नहीं पड़ता। माँ सबको पालती है । सबकी रक्षा करती है । वाणी अराधन में कह उठती है- हर-हर नर्मदे । जीवन के विविध रूप पूरे नर्मदांचल में मिलते हैं। योगी- यति, साधु-संन्यासी, रोगी-ढोंगी, रागी-विरागी, स्नानार्थी – दर्शनार्थी से लेकर प्यासे और हारे थके व्यक्ति तक की शरण स्थली है पूरा नर्मदा क्षेत्र ।
संस्कृति के कई युग यहाँ आये, बीते, विकसित हुए और आगे बढ़े हैं। नर्मदा के किनारों पर प्रति अमावस्या को लाखों लोग स्नान करते हैं । पूर्णिमा, सावन सोमवार, शिवरात्रि, मकर संक्रांति, गंगा दशमी, गुड़ी पड़वां और वसंत पंचमी को घाट-घाट पर स्नान करने वालों के समूह के समूह डुबकी लगाते हैं । गाते हैं, नाचते हैं । खाते हैं। देखते हैं। कुछ खरीदी-बिक्री करते हैं । फिर जीवन-युद्ध हो जाते हैं।
नर्मदा ने मनुष्य को प्राकृतिक जीवन की सुविधाएँ दी हैं । जल, जमीन और वन की अपार सम्पदा नर्मदा के पास है । इसके किनारे के क्षेत्रों में बैगा, गोंड, भील, भिलाले, कोल, कोरकू, परधान, माड़िया, भूमिया आदि जनजातियाँ निवास करती हैं। नर्मदा इनके जीवन का मुख्य आधार है। माँ है। नर्मदा के किनारे के शैलाश्रय (आदमगढ़ – होशंगाबाद, भीमबेटका) आदिम मानव की कथा कहते हैं, साथ ही नर्मदा घाटी में करोड़ों वर्ष पूर्व मानव जीवन की संभावना के प्रमाण देते हैं। जन्म की मनौती और जन्म के क्षणों से लेकर मृत्यु उपरान्त क्रिया तक मनुष्य की यात्रा की नर्मदा साक्षी हैं।
विकास कहीं-कहीं विनाश की शक्ल धारण कर आया। इधर नर्मदांचल की सुरम्य वन प्रांत सघन से विरल होता जा रहा है । वनवासियों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। वनों की कटाई ने मिट्टी के कटाव को बढ़ाया और नर्मदा के आंतरिक स्रोतों को क्षति पहुँचायी है। बरगी बांध से अनेक लोगों के विस्थापन की उपजी समस्या अभी भी अनुसुलझी है।
नर्मदा पर बनने जा रहे भारत के सबसे बड़े नर्मदा सागर बाँध और सरदार सरोवर बाँध के साथ-साथ ओंकारेश्वर तथा महेश्वर बाँधों जैसे अनेक छोटे बाँधों से नर्मदा के जल के बिजली और सिंचाई के उपयोग का सपना बड़ा सुन्दर है। गुजरात और मध्यप्रदेश की भूमि की प्यास बुझेगी। अंधेरी झोपड़ियों में रोशनी होगी । उद्योगों को बिजली मिलेगी। लेकिन इन बाँधों के कारण कई गाँव डूब में आ रहे हैं। कई लोग (लाखों में) अपनी जमीन, संस्कृति, पर्यावरण और अपने आकाश से वंचित हो जायेंगे। उनके पुनर्बसाहट की समस्या अपनी जगह है।
खंडवा जिले का बहुमूल्य वन ( सागौन वन) डूब में आ रहा है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन का स्वर अपनी ताकत में पूरा विश्वास लिए गूँज रहा है। मेघा पाटकर और बाबा आमटे नर्मदा विकास से जुड़े अनेक रहस्यों को खोल रहे हैं। पूरी नर्मदा घाटी शांति थी । अब अशांत हो चली है। नर्मदा के दोनों किनारों के खेत फिलहाल लिफ्ट एरिगेशन से हरीतिमा उपजा रहे हैं।
लोगों का मैया (नर्मदा) पर विश्वास है कि वह बचा लेगी । पानी के अनेक रंग और जीवन के कई-कई रूप नर्मदा के पास हैं । लोक संस्कृति को नर्मदा के गहरे पाला-पोषा है । आराधना, वंदना, अर्चना के स्वर निरंतर आज भी इसके किनारे वाणी को सार्थकता दे रहे हैं। सैकड़ों मंदिर, हजारों आस्था-स्थल इसके तटों पर मनुष्य को प्रबोधते रहते हैं । आरती, शंख, घड़ियाल, अर्घ, आचमन, भोग, प्रसाद, भजन, कीर्तन, मान, मनौती, इच्छा, कामना, मुक्ति, शांति, विश्रांति के अलग-अलग प्रहरों में साकार होती रहती है।
नर्मदा के जल पर उतरकर ये सब मनुष्य को उत्कर्ष देते रहते हैं। और मनुष्य है कि नर्मदा किनारे गिरता – पड़ता जाता है, डुबकी लगाता है। स्वयं को भीतर से धवल करता है । फिर उठ खड़ा होता है । एक जीवन, नया बनकर सूर्य से बातें करने लगता है।